Monday 21 May, 2012

माया महा ठगनी -2


आज तो गजब ही हो गया विचार सिंह घुड़चढ़े और स्पष्ट सिंह उजागर आमने-सामने थे। यादव पान भण्डार पर लगभग भीड़ सी लग गयी थी। सबसे पहले मैं परिचय दे दूँ विचार सिंह जी को तो आप जानते ही हैं, वे सदैव चिंतनशील रहते हैं, अपने मन की बातें बेबाकी के साथ बकते रहते हैं। नागरिकताबोध उनके रग-रग में बसी हुई है। बसी क्या अंकुरित होती रहती है। अतः लोकतंत्र के सारे अधिकारों को वे अपनी जेब में लेकर घूमते हैं। स्पष्ट सिंह उजागर उनसे भी दो कदम आगे हैं। वे पेशे से पत्रकार हैं और खुद को बहुत बड़ा बुद्धीजीवी समझते हैं, जबकि बमुश्किल 12वीं पास हुए और फिर स्नातक तो नेतागीरी ने पास करा दिया। कहा यह भी जाता है कि उनकी उत्तर पुस्तिका भी किसी पट्ठे ने लिखी थी। खैर जो भी दोनों ही हमारे समय की जरूरत की तरह हैं, कम से कम बहस तो करते हैं। मुझे लगता है देवेन्द्र कुमार बंगाली ने इनको ही देख कर अपना चर्चित नवगीत बहस जरूरी है लिखा होगा। ये दोनों बाकी सब चीजों में भले ही अगल सोच रखते हों, लेकिन लेखकों, कवियों और साहित्यकारों को देखते ही उन पर पिल पड़ते हैं। या यूँ कहें कि पढ़े लिखे लोगों से इनको फोबिया है। खैर पूरा परिचय देने लगूँ तो एक पुस्तक तैयार हो जाएगी। फिलहाल उनकी बहस देखकर मैं भी सरकते-सरकते उनके करीब पहुँच गया। विचार सिंह घुड़ चढ़े पूरी ऊर्जा के साथ बोल रहे थे -"क्यों गुरू, हिंलिश उस्ताद, बोलो अब क्या बोलते हो ? तुम को ठीक-ठाक हिन्दी भी बुरी लगती है। खाते हिन्दी की हो और बजाते अंग्रेजों की। बिचारे साहित्यकारों का फजिहत करके रख दिया था। वासांसि... ने तुम्हारा हाजमा खराब करके रख दिया था। दिदे फाड़कर पढ़ो - अमरीका ने नासा में संस्कृत को अपनाने की घोषणा कर दी है। क्योंकि आधुनिक तकनीक के लिए सबसे उचित भाषा संस्कृत है। जब भारतीय संस्कृत के विद्वानों उनको सहयोग करने में नखड़े दिखाए तो प्राथमिकशाला में वे संस्कृत अनिवार्य करने जा रहे हैं। जिससे भविष्य में भारत पर निर्भरता खत्म हो जाए।" बात पूरी करते ही आखबार का पन्ना स्पष्ट सिंह के चेहरे पर फेंक दिया और ऊपर से जुमला चिपका दिया- "ये तुम्हारा ही अखबार है।" यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि वर्षों बाद इन्दौर आकाशवाणी ने कथा, उपन्यास तथा आलोचना पर केन्द्रित त्रीदिवसिय आयोजन वासांसि.... शीर्षक से किया, जिसकी रिपोर्टिंग में स्पष्ट सिंह ने जमकर उल्टी की थी और उनका वश चलता तो साहित्यकारों को सूली पर चढ़ा देते। क्योंकि यहाँ पर परम्परा और संस्कृति पर भी चर्चा हुई थी और शीर्षक गीता के दूसरे अध्याय का बाइसवां श्लोक था। बिचारे करें भी तो क्या करें, नेताओं की चमचागीरी के बरक्स साहित्यकार ही तो बचते हैं। खैर उन्होने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से विचार सिंह जी को घूरा और अखबार को सम्भाल कर लपेटा और जेब के हवाले करते हुए भुनभुनाए - "दारू की बोतल लपेटने के काम आएगी।" फिर विचार सिंह से मुखातिब हुए - "तुमको तो देख लूंगा। शाम को जब अंगुरी हलक के नीचे उतरेगी तो मेरी प्रज्ञा जगेगी। फिर तुमको निपटाउंगा। कल का अखबार पढ़ लेना। पत्रकार हूँ...... पत्रकार हूँ। तुम क्या समझो इन बौद्धिक चीजों को। समय के साथ बदलना सीखो। सड़ी गली परम्परा और भाषा की वकीली बन्द करो। दुनिया बहुत आगे निकल गयी है और तुम पीछे लौटने की बात कर रहे हो। पिज्जा-बर्गर के बरक्श सूखी रोटी....। तुम जैसों ने देश के विकास में लंगड़ी फंसी रखी है। " और अपने मोटर साइकिल का किक् मारने लगे। इतने में विचार सिंह उनकी खिल्ली उड़ाते हुए बोले- " वासांसि.. के नाम पर कपड़े फाड़-फाड़कर तुने क्या हाल कर लिया है। बनियान और पैंट भी फट गए हैं। घर जा पहले ये चिंदी उतार कर कोई कायदे का कपड़ा पहन। तूने ही लिखा था न वासांसि यानि कपड़ा।......पढ़ लूंगा तुमको। कल अखबार में...ऐसे अखबार में जिसका सम्पादक तुम्हारी जेब में पड़ा है और वह भी पढ़ा-लिखा तुम जितना ही है। बापू की खेत है, चाहे जो बोवो, जो काटो। " इतने में मोटरसाइकिल फुर्र हो गयी थी। खैर विचार सिंह जी ने अपना उतारा कर लिया था इसलिए वे यादव की तरफ मुड़ते हुए बोले - " एक मीठा पत्ता, एक सौबीस, तीन सौ, गीली सुपारी और सादी पत्ती ...मीठा कुछ भी मत डालना। " फिर मसकुराते हुए यादव से बोले - " देखा कैसा निपटाया..? " कुछ और बोलते इससे पहले यादव ने पान का बीड़ा आगे बढ़ा दिया था। मैं भी धीरे से खिसक लिया और दुश्यंत कुमार मेरे अंतस में गूंज रहे थे –
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।             

लेखक -  प्रदीप मिश्र   mishra508@gmail.com

Wednesday 16 May, 2012

संयुक्त अरब इमारात की पहली हिन्दी पत्रिका निकट


समाई हैं कई बेचैन नदियाँ उसके सीने में
अगर चाहे भी तो कैसे समन्दर चैन से बैठे।

कोई मछली नहीं जिन्दा कमल बाकी नहीं कोई
बता दो ऐसे में कैसे सरोवर चैन से बैठे।

कमलेश भट्ट 'कमल' के इन शेरों को पढ़ते हुए। एक रचनाकार की बैचेनी जो चित्र बनता है, उसके सारे रंग सृजनात्मक ऊर्जा से भरे हैं। इस तरह की रचनाओं से सुसज्जित एक पत्रिका अंक हमारे हाथ में है। पत्रिका का नाम 'निकट' है और आबूधाबी से प्रकाशित हुई है। इसके सम्पादक हिन्दी के सुपरिचित कथाकार कृष्णबिहारी हैं। प्रदीप ने जब पत्रिका अंक दिया और कहा कि विदेश से निकलनेवाली पत्रिका है, तो मन वैसे भी कुछ खास उत्साहित नहीं था। क्योंकि आजकल हिन्दी में यह रिवाज चल पड़ा है कि विदेशों में रहनेवाले कुछ लोग जो डायरीनुमा कुछ लिखकर कथाकार और किशोरावस्था के आवेगों को नोट करके अपने को कवि मान लेते हैं। विदेश यात्रा और डालर के लालच में हिन्दी के कुछ नामचीन समीक्षक, लेखक और कवि जो हिन्दी के देशी रचनाकारों की बखिया उधेड़ते हैं, इन अधकचरे रचनाकारों का झण्डा उठाए फिरते हैं। लेकिन प्रदीप ने अंक दिया था, पलटना मजबूरी थी। सो पलटते - पलटते कमलेश के ये शेर सामने आ गए और पूरी पत्रिका पढ़ गया।
एक समाचार पत्र के रिपोर्टर की तरह से लिखा गया सम्पादकीय तो ऊबाउ है। लेकिन उसके आगे जब अज्ञेय पर राजेश जोशी का आलेख पढ़ते हैं तो अज्ञेय को समझने की नई दृष्टि मिलती है। राजेन्द्र राव का 'जेल जीवन का के सवाक् चित्र' के शीर्षक से विद्यार्थी जी के जेल जीवन की डायरी अंक में विशिष्टता पैदा करता है। सम्पादक कथाकार हैं और कथा की अच्छी समझ रखते हैं, इसका प्रमाण अंक में छपी कहनियाँ हैं। लगभग सारी कहनियाँ पठनीय हैं, विशेष रूप से प्रमोद सिंह की कहानी 'आदमी और औरत उर्फ बीत रात की लोरी', अपूर्व जोशी की कहानी 'नेपथ्य का नरक' , प्रताप दिक्षित की कहानी 'ढलान पर कुछ पल' , उर्मिला शिरीष की कहानी 'असमाप्त' तथा हरि भटनागर की कहानी 'खसम' का जिक्र तो कराना ही पड़ेगा। इन कहानियों में न केवल किस्सागोई की पकड़ है, बल्की भाषा हृदय में जगह बनाती है। हरि भटनागर की कहानी का एक अंश उदाहरण की तरह से देखा जा सकता है - 'इस पर वह शरमा गया, हल्खा मुस्कुराया, दा़ढ़ी पर हाथ फेरा, बोला मैं शायर वायर कुछ नहीं। हाँ, अपने धंधे को शायरी की तरह लेता हूँ और इसी तरंग में पूरा दिन काट देता हूँ। अगर ये शायरी न हो तो मैं कब्रिस्तान में जा लगूँगा। यकायक वह झुककर एड़ी खुजलाने लगा और तिरछी नज़रों से देखता आगे बोला हर इंसान को शायर होना चाहिए। ......................................पत्नी बोलीं ज़ालिमों ने भाई जान और उनके बच्चों को मार डाला, कित्ते गंदे लोग हैं कहते हुए वे रो पड़ी थीं।
अब मुझसे रहा न गया, अलफ होकर चीख़ पड़ा तू तो ऐसे रो रही है जैसा तेरा ख़सम मर गया हो... कमीन कहीं की नीच '

कहनियों में जितनी गुणवत्ता है, कविताओं के चुनाव में उतनी ही लापरवाही दिखाई दी। इतनी सारी बुरी कविताऐं और कुछ तो कविता भी नहीं हैं और कविता की तरह छपीं हैं। इनके बीच में कुछ अच्छी काव्यपंक्तियों से भी सामना हुआ जिनका उल्लेख करना चाहिए । उत्पल बेनजीं की सारी कविताएं अच्छी हैं - 'जाते समय - अभी आता हूँ... कहना / उन्हें दिलासा देना होता है / जो हर पल इस कश्मकश में रहते हैं / कि शायद इस बार भी हम लौट आएँगे /कि शायद इस बार हम नहीं लौट पाएँगे' , प्रदीप मिश्र की कविताएं भी अच्छी हैं -'आदमी जब तक जीतता रहता है / एक भीड़ दौड़ती रहती है /उसके साथ /जब हारने लगता है /छंट जाती है भीड़
/अकेला पड़ जाता है/फिर भी अंदर के आदमी होते हैं/उसके साथ' । कविताओं के साथ गीत का आस्वाद भी पत्रिका में मिलता है, यतीन्द्र नाथ राही के गीत अच्छे हैं - 'न ठहरेंगे बसन्ती दिन /
किसी कचनार की ख़ातिर / पिये महुआ /हवाओं के चलन /होते बड़े शातिर /पलाशों पर दहकते / प्रीति के फागुन /चले आओ '!
जगन्नाथ त्रिपाठी शारदेय पर विशेष सामग्री देकर सम्पादक ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। उनकी रचनाओं और उन पर आलेख हिन्दी जगत को एक विलक्षण रचनाकार से परिचित करवाता है। उनकी कविता कुछ पंक्तियों देखा जा सकता है - 'हे काल ठहरो। जब तलक मैं चुक न जाऊं / पास मेरे जो बचा है जब तलक मैं दे ना पाऊँ / रिक्त होते ही तुम्हें मैं स्वयं प्रस्तुत करुँगा / मुदित मन स्मित वदन यह कहते हुए /मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा में खड़ा था / आ गए तुम'
इसके अलावा समीक्षा, फिल्म पर एक आलेख, लघु कथाएं और मन की बात आदि स्तम्भ के माध्यम से ठीक-ठाक सामग्री पत्रिका में संचित है। पत्रिका के लेआउट में सुधार की बहुत गुंजाईश है। कविताओं और लघुकथाओं को फिलर की तरह प्रयोग करना उचित नहीं है। प्रदीप मिश्र की कविताएं तो इस तरह से लगीँ हैं, जैसे जगह बच गयी तो कुछ भी ठूँस दिया। ऐसा लगता है स्कूटर चलाती लड़कियाँ कविता में उप शीर्षक मे हारकर बैठा आदमी कविता भी है। सम्पादक की लापरवाही ने कविताओं का आस्वाद खराब कर दिया है। इस तरह की दुर्घटना पत्रिका में और भी जगहों पर है। विषय सूची में अगर कविता उप शीर्षक के नीचे सिर्फ कवियों का नाम गया होता तो ज्यादा ठीक था। एक कविता की पंक्ती में दीमक निगल गए हैं लिखा है, तो फिर चाटने का काम कौन करेगा। निकट का यह 5वाँ अंक है। अगले अंक में सम्भावित जिस तरह से बड़े - बड़े लेखकों की सूची दी गयी है, उसी तरह की सम्पादकीय समझ की भी अपेक्षा रहेगी। विदेश में रहते हुए इस तरह का प्रयास सराहनीय है। सबसे ज्यादा सराहना सम्पादक की इस बात की जानी चाहिए कि वे इसको मुकम्मल हिन्दी जनपद की पत्रिकाओं के कलेवर में निकाल रहे हैं, न कि विदेशी तड़के साथ।

पत्रिका का नाम - निकट
सम्पादक - कृष्णबिहारी
वर्ष - 5, अंक-5 मई-अक्टूबर 2011
मूल्य - 25 रूपये
पो.बा. . 52088
आबूधाबी यूएई
                                                                                                      
                                                                                                                                   - रजनी रमण शर्मा
      


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