Wednesday 10 December, 2008

भोर सृजनसंवाद अंक छः

जनता ने अपना फैसला खुद किया


लेखक - डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाँच राज्यों के चुनाव-परिणामों ने यह सिद्ध किया है कि भारत का लोकतंत्र काफी परिपक्व होता जा रहा है। किसी भी लोकतंत्र को कमजोर करनेवाले जितने भी तत्व हो सकते हैं, इन चुनावों ने उनको पराजित किया है। सबसे पहली बात तो यह कि लगभग सभी राज्यों में मतदान का प्रतिषत बढ़ा है। यह जनता की जागृति का प्रमाण है। दूसरी बात यह कि चुनावों में धांधली, हिंसा और पैसे का खेल भी अपेक्षाकृत कम ही हुआ है। इन पाँच राज्यों के अलावा जम्मू-कष्मीर में भी चुनाव हुए हैं और उन्होंने भी उक्त निष्कर्षों पर मुहर लगाई है।
मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के कारण चुनाव की चौपड़ उलट सकती थी। देष की प्रमुख पार्टियाँ मानकर चल रही थीं कि मुंबई की घटनाएँ मतदाताओं पर गहरा असर डालेंगी। काँग्रेस का सूँपड़ा साफ़ हो जाएगा और भाजपा की झोलियाँ भर जाएँगी। दोनों पार्टियों ने मतदान की वेला में अजीबो-गरीब विज्ञापन भी छपवाए लेकिन लगता है कि भारत की जनता ने गज+ब की गहराई का परिचय दिया। भावनाओं की लहर में वह बही नहीं। उसने आतंकवाद को राजनीतिक नहीं, राष्ट्रीय मुद्दा माना। उसे राष्ट्रीय विपत्ति मानकर उसने किसी भी दल को दोषी नहीं ठहराया। अगर वह दोषी ठहराना चाहती तो भी कैसे ठहराती ? अगर वह मुंबई को याद करती तो संसद और अक्षरधाम को कैसे भूल जाती ? इस तथ्य से क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि अगले लोकसभा-चुनाव में भी आतंकवाद कोई खास मुद्दा नहीं बनेगा ? यह कहना कठिन है, क्योंकि हमारे राजनीतिक दल आतंकवाद को मुद्दा बनाए बिना नहीं रहेंगे। यदि काँग्रेस सरकार पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव डलवा सकी और आतंकवादी अड्डों का सफाया हो गया तो वह उसका श्रेय वह क्यों नहीं लेना चाहेगी ? कोई आष्चर्य नहीं कि सारे पैंतरे विफल होने पर सरकार खुद ही उन अड्डों पर सीधा हमला बोलकर कुछ ऐसा जलवा दिखा दे कि वह प्रचंड बहुमत से चुनाव जीत जाए। इसका उल्टा भी हो सकता है। यदि सरकार को कोई सफलता नहीं मिले और इसी तरह की एकाध घटना और घट जाए तो यह निष्चित है कि चुनाव के पहले ही सरकार का सूर्यास्त हो जाएगा। राज्यों के चुनावों में आतंकवाद दरकिनार हो गया लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में शायद वह केंद्रीय मुद्दा बन जाए। कुछ राज्यों के चुनाव को संसद के चुनाव से जोड़ना यों भी उचित नहीं है। संसद के चुनाव तक पता नहीं कौनसा मुद्दा कैसे उछल जाए। अगर पाँचों राज्यों में काँग्रेस बुरी तरह से हार जाती तो शायद कुछ ठोस संकेत उभरते। अभी जो मिले जुले संकेत सामने आए हैं, उनके आधार पर कोई भी भविष्यवाणी करना उचित नहीं है।
पाँच राज्यों के इन चुनाव-परिणामों ने इस निष्कर्ष को अकाट्य रूप से पुष्ट कर दिया है कि मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेतृत्व को ही अपनी कसौटी बनाया है। उन्होंने न तो जातिवाद, न ही मजहब और न ही मंहगाई को मुद्दा बनाया। मंहगाई के सवाल को अगर जनता मुद्दा बना लेती तो काँग्रेस का दिल्ली, राजस्थान और मिजोरम में जीतना असंभव हो जाता, क्योंकि मंहगाई तो देषव्यापी प्रपंच बन गई थी। लगता है कि आम आदमी को आज भी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में पूरा विष्वास है। अपनी सारी कठिनाइयों के बावजूद वह मानकर चल रही है कि अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री की सरकार उसके लिए जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह किए बिना नहीं रहेगी। मंदी की लहर में डूब रहे दुनिया के समर्थ राष्ट्रों के मुकाबले भारत की स्थिति कहीं बेहतर है। यदि आम जनता की प्रतिक्रिया यही बनी रही तो अगले चार-छह माह में होनेवाले लोकसभा चुनावों में भी काँग्रेस का ज्यादा नुकसान होने की संभावना कम ही है।

इन चुनावों में जात का मोहरा भी रद्द हो गया। राजस्थान में जातीय वोट बैंक को मजबूत बनाने के लिए भाजपा ने काफी द्राविड़-प्राणायाम किया लेकिन वह किसी काम नहीं आया। उमा भारती का अपने जातीय गढ़ में हारना अपने आप में उल्लेखनीय घटना है। छत्तीसगढ़ में भी जातीय समीकरण मात खा गया। बसपा जात के आधार पर इतने वोट लेने का दम भर रही थी कि दिल्ली, मप्र और राजस्थान में जरूरत पड़ने पर गठबंधन सरकार बनाने के सपने देख रही थी। उसे भी निराषा ही हाथ लगी। उमा की व्यक्तिवादी और मायावती की जातिवादी राजनीति का पिट जाना इस बात का सबूत है कि आम मतदाता काफी समझदार हो गया है। वसुंधरा राजे की सरकार का हारना इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि लोकतांत्रिक शासन को सामंती शैली में चलाना भी लोगों को बर्दाष्त नहीं है। मध्यप्रदेष में षिवराजसिंह चौहान की जीत सरलता, निष्ठा और अध्यवसाय की जीत है। तीन-तीन मुख्यमंत्रियों के बदले जाने के बावजूद भाजपा सरकार का लौटना एक चमत्कार-जैसा है। इससे भी बड़ा चमत्कार दिल्ली में हुआ है। शीला दीक्षित का तीसरा बार लगातार मुख्यमंत्री बनना तो दिल्ली का ही नहीं, भारत का अजूबा है। ज्योति बसु के अलावा वह सौभाग्य किसे मिला है। शीला दीक्षित की कार्य-षैली, निष्ठा और सर्वसंग्रही वृत्ति ने उन्हें जनता से जोड़े रखा। लगभग यही लाभ छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह को मिला है। शीला दीक्षित, षिवराज चौहान और डॉ. रमन सिंह दुबारा चुने गए, यह यह सिद्ध करता है कि जनता हमेषा ही सत्तारूढ़ व्यक्ति को उखाड़ फेंकना जरूरी नहीं समझती। यदि सत्तारूढ़ नेता आम जनता के हितों की रक्षा करता है तो आम लोग उसे सहर्ष वापस लाते हैं।
किस पार्टी की क्या विचारधारा है, उसके शीर्ष नेता कौन हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है। भाजपा, काँग्रेस और अन्य दलों के सभी नेता सभी राज्यों में चुनाव-प्रचार करने गए थे और उनके नाम पर वोट भी माँगे गए थे लेकिन जनता ने बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े नारों और बड़े-बड़े सब्जबागों की बजाय अपने रोज+मर्रा के छोटे-छोटे अनुभवों को अपना भगवान बनाया। उसी के इषारे पर उन्होंने वोट डाले। जनता ने अपना फैसला खुद किया । इसी का नतीजा था कि मिजोरम की अत्यंत शक्तिषाली सरकार, जो दस साल से चली आ रही थी, कूड़ेदान में समा गई। मिजो नेषनल फ्रंट का भ्रष्टाचार उसे ले बैठा। राजस्थान में भाजपा और म.प्र. में काँग्रेस की अंदरूनी खींचतान का खामियाजा भी इन पार्टियों को भुगतना पड़ा लेकिन इन दोनों राज्यों में भी जनता के अंतिम फैसले का आधार सरकार का काम-काज ही था।
कुल मिलाकर राज्यों के इस चुनाव में काँग्रेस का फायदा हुआ है। काँग्रेस ने कुछ पाया है, भाजपा ने कुछ खोया है। कांग्रेस को दो नए राज्यों, राजस्थान और मिजोरम, में सरकार बनाने का मौका मिला है। यदि भाजपा ने म.प्र. और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार बचाई तो काँग्रेस ने दिल्ली में बचा ली। लोकसभा चुनावों में काँग्रेस का रास्ता आसान नहीं होगा लेकिन भाजपा का रास्ता पहले से भी अधिक कंटकाकीर्ण हो गया है।
(वेद प्रताप वैदिक हमारे समय के चर्चित चिंतक एवं स्तम्भकार हैं। उनका एक आलेख मेल द्वारा मुझे मिला और लगा कि मित्रों को भी पढ़वाना चाहिए। पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराऐं- प्रदीप मिश्र)

Saturday 29 November, 2008

भोर सृजन संवाद अंक छः


नाम : प्रमोद कुमार
जन्म : ३ जनवरी १९५७, बिहार,सीवान जिले, के बिलासपुर गाँव में ।
शिक्षा : बी०एससी०,
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन एवं आई० एस० ओ० कंसलटेंट।
सृजन: पहला लेख १९७२ में। लगभग एक दर्जन लेख प्रकाशित। पहली कविता १९७७ में छपी तब से कविताओं का निरंतर प्रकाशन। रंगकर्म एवं मजदूर आंदोलनों में सक्रिय। १९८४ से जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय परिषद में शामिल तथा जलेस गोरखपुर इकाई के सचिव।
सम्पर्क: क्वार्टर न० ई १२०,फर्टिलाइज़र कालोनी, गोरखपुर-२७३००७
फोन न० ०५५१ २२६१८१५, ०९४५०८८३४१६, ०९४१५३१३५३५
ई मेल- pramodkumarsri@ymail.com,
pramodkumarpkpk@gmail.com

मित्रों इस बार प्रमोद कुमार की कविताएँ आप के सामने हैं। इन कविताओं में हमारा समय धड़क रहा है। इस धड़कन में भविष्य की छवियाँ शामिल हैं। जिनको देखकर एक ऐसा जीवन विवेक अर्जित होता है, जिसके सहारे हम अपनो स्वनों को साकार कर सकते हैं। हॉं,हॉं, हाथी को पढ़ते हुए हमें हमारी भाषा में हो रही सेंधमारी दिखाई देती है, तो बड़े होमवर्क को पढ़ते हुए उन औजारों का पता चलता है जो हमारी अभिव्यक्ति पर घात लगाए बैठे हैं। दिल्ली में तथा अनिवासी भारतीयों का शहर को पढ़तो हुए हम उन अतिक्रमणों से परिचित होते हैं, जो जीना मुहाल कर देंगी। जरा-जरा का जीवन, मेहनत का फार्मूला, मेरा दु:ख तथा एक जेब में कविताओं के माध्यम से कवि उस जीवन शैली की तरफ इशारा करता है, जहाँ विवेकपूर्ण चिन्तन जरूरी हो गया है। एक स्त्री का लिखना कविता तो सचमुच स्त्री विमर्श में बड़े कैनवास की कविता है।
प्रमोद कुमार की कविताओं को पढ़ना अपने समय के साथ संघर्षरत जीवन से परिचित होना है। उनके संवेदना संसार में समाज के सारे कोने-अंतरे अपने अस्तित्व के साथ उपस्थित होते हैं और ऐलान करते हैं, कि हम हैं तभी यह दुनिया इतनी खूबसूरत है। लगभग दो संग्रह भर की कविताओं को प्रकाशन के बाद और लगातार कई दशकों से हिन्दी कविता में अपनी उपस्थिती दर्ज करवाते रहने के बाद भी अगर प्रमोद कुमार की कविताओं का संकलन हमारे बीच में नहीं है तो यह हमारी साहित्य बिरादरी में व्याप्त सत्तात्मक प्रवृतियों का नाकारात्मक प्रभाव ही है। हमें इन नकारात्मक प्रवृत्तियों से बचना चाहिए और इमानदारी से अच्छे को अच्छा कहने की ताकत रखनी चहिए। अपने समय और समाज को पूरी इमानदारी से प्रस्तुत करती इन कविताओं के साथ आपके सामने भोर का छठवा अंक है। समय की किल्लत में यह चिन्दी भर जुगाड़ आपके सामने है। आप सबकी प्रतिक्रियायें हमारा मार्गनिर्देशन करेंगी। - प्रदीप मिश्र

हॉं,हॉं, हाथी !

हाथी, हाथी !
हाथी को पास से देखने-समझने का उत्साह,

उमंग में बच्चे चारों ओर उछलते-कूदते,
हाथी को सुंघ लेते बूढ़े
बोलने लगते बच्चों-से,

एक दिन एक भविष्य-वक्ता
अंधी-बहरी मुद्रा में
घुस आया इलाके में
और डॉंटते हुए बोला-नो !
नो, नो ! हाथी नहीं, एलिफैंट देखो,

बच्चों के पास हाथी थे
लेकिन उन्हें देखना था एलिफैंट,

बच्चे खड़े हो गये सावधान की फौजी मुद्रा में,
बूढ़ों का बचपन सो गया
पेट बॉंधकर,
वहॉं से हाथी निकल गया तेजी से,

वहॉं से एलिफैंट बार- बार गुजरा
लेकिन, उन बच्चों के जीवन में
हाथी फिर कभी नहीं आया ।

बड़े होमवर्क

अब नहीं उगते सरकंडे
तुम नहीं गढ़ सकते
अपनी लिखावट सुधारने वाली कलम,
तुम्हें बाजार की कलम से लिखना हैं
और बचानी हैं अपनी लिखावट,

घर बहुत छोटा हो गया
दादा दादी नहीं अंट सकते तुम्हारे साथ
तुम नहीं सुन सकते उनसे कोई कहानी,
तुम्हें वही देखना हैं जो दिखता है टी.वी. पर
और रचनी है अच्छी कहानी ।

दिल्ली में

कुछ बच्चे हँस रहे हैं दिल्ली में
आए गये होंगे किसी गाँव से
या बिहार से,

यहाँ लान में उगाये
बढ़ाये और छाँटे जाते हैं पेड़
और फुटपाथ पर आदमी

चलने में इतना सम्हलना पड़ता है कि
रास्ते में छूट जाता है अपना रास्ता,
घर से घर लेकर निकला आदमी
बाज़ार से सिर पर बाज़ार लादे
लौटता है
पहचान नहीं पाते अपने बच्चों को।



अनिवासी भारतीयों का शहर

गोरखपुर बहुत पीछे है लखनऊ से
लखनऊ दिल्ली से
दिल्ली बहुत पीछे अमेरिका से,

ओह, यह शहर इतना पीछे है
और हमें बहुत आगे जाना है अमेरिका तक,
बड़ी बेचैनी है
यही बेचैनी है यहॉं

एक यह बेचैनी चला रही है शहर को
इसे दूर करने में कोई कुछ भी करे
स्वीकार है इसे,

जल्द से जल्द कोई तकनीक लाओ
स्कूल से अस्पताल तक
घर से बाजार तक
सारे रास्ते खोलो कि
कोई बड़ा रास्ता निवेश हो,
घट सके समय
अमेरिका पहुंचने का,

यह शहर उमस से अपने भीतर भरा है
लोग खरोच रहे अपनी चमड़ी से पहचान के दागों को
पपड़ी-सी नोंच रहें स्मृतियॉं,

चौबीसों घंटे सारे अंग व्यस्त हैं
यहॉँ खुली आँखें वहाँ देख रहीं
पॉंव उसके आकाश में चल रहे

उसके गठरों में सारे हाथ बँधे हैँ

यहाँ जो ठहाके हैं
वहाँ के ठहाके हैं
रुदन जो सुनायी दे रही
वहीं की है

इस शहर के तड़पते कैलेण्डर में
जो चमकीले चिन्ह हैं
वे वहॉं के उत्सव हैं

मित्रों,रोज पसरता
यह शहर
उन लोगों का एक छोटा शहर है
जो इस देश में रहते हुए
अनिवासी भारतीय हैं ।

जरा-जरा का जीवन

कहीं कोई आदमी देखा
बना काम भर
जरा-सा आदमी,

दानवो के बीच
जरा-सा दानव,
दर्शकों में जरा-सा दर्शक
खेलों में जरा-सा खिलाड़ी,

मंदिरों में जरा-सा आस्तिक
गोष्ठियों में जरा-सा नास्तिक,
देश के लिए जरा-सा नागरिक
अखबारों में जरा-सा समाचार,

बच्चों के लिए जरा-सा पिता
औरत के लिए जरा-सा मर्द,
जरा-सा व्रत, जरा-सा प्रसाद,

इस जरा-जरा से मिला
एक बहुत लम्बा
जरा-जरा का जीवन


एक स्त्री का लिखना
उसे सादे कागज कम
पहले से लिखे-लिखाये अधिक दिये गये ,

अभ्यास के लिए बार-बार
उसे दो अक्षरों का पति दिया गया
यह तो कलम का अपना मिजाज था
और उसकी अंगुलियों का उत्साह भी , कि
अभ्यास के लिए दिया गया घर भी कम पड़ गया

उसे दोहरी मेहनत पड़ी
वह पहले से लिखे को मिटाती
फिर अपना लिखने की
कुछ जगह बनाती ।

मिटाने-बनाने के जोर में
कहीं-कहीं तो कागज सीमा के पार चला जाता
एकदम पतला अगोचर हो जाता कहीं
कहीं एकदम खुरदरा
उस पर स्याही ऐसी पसरती कि
अनेक शब्द दूसरी भाषा के लगने लगते
कहीं-कहीं अनलिखा भी
सबको आर-पार दिख जाता ,

अगर आपको उसका लिखना
और लिखा हुआ समझना है तो
लिखने का उसका यह इतिहास
पहले समझना आवश्यक है


मेहनत का फार्मूला

साइकिल में खाने का डिब्बा बाँधे
चींटियों की-सी कतार में वे आते हैं शहर ।


मकड़ी के जाले-से बिछे शहर के रास्ते
छिन्न-भिन्न कर देते हैं कतार को
वहाँ मशीनों का जनतंत्र
हाथ-पाँव के बहुमत के लिए कभी
मुख्यमार्ग नहीं छोड़ता ।

यहाँ की शुभ लाभ लिखती घड़ियाँ
इनकी ओर उलटी पड़ जाती हैं,
समय पकड़ने की यहाँ की होड़ में
वे दिन भर नाखूनी जाँचों से गुजरते
कददू-सा ताज़ा दिखने की कोशिश में
अपनी सारी भूख को दाँतों से कूँच डालतें हैं,

शहर उन्हें खाने के डिब्बे से
एक पल भी बाहर नहीं आने देता
वह उनके बच्चों से मिली उनकी सारी खुशियों को
अपने इंजन में ईंधन-सा चुआ लेता है
औरतों की दी उनकी छाँह से
अपनी नंगी भट्ठियों पर पर्दा डाल लेता है ,

अपने सवालों के जबाव खोजता
एकटक रास्ता जोहता है उनका परिवार,
अपने लोगों में लौटते हैं वे उन बच्चों की तरह
फार्मूलों के सही प्रयोग के बाद भी
जिनके उत्तर गलत निकल आते हैं ।



एक जेब में

ढोयें कितनी मिट्टी
भर लें कितनी हवा
किस कोने रखें धूप
कैसे बचायें नमी !


अपने किस कोने से झाड़ें
गाँव जाने का किराया
हुक्का-पानी चलाने,
तोड़ें बच्चों के कितने गुल्लक
देशाटन के लिये !

हाथ से फिसलते खेसरा-खतौनी पर
रखें कौन सा पेपर-वेट,
अगली फसल़ के लिये
उजड़ते बखार में सजोयें
कौन से महान बीज,


बापू की तस्वीर के लिये
कच्ची दीवार पर
कितनी गहरी ठोकें सत्यवादी कील
एक सिकुड़ते घर में
बच्चों को कैसे पढायें
फैलते संसार का मानचित्र,
दूर की दिल्ली पर न छोडें
तो किस ज़मीन पर
लगायें अपना प्रिय तिरंगा !


हमारी जेब में
सिकोड़ दी गयीं हमारी जड़ें,
हम क्या पसरें
कैसे फूलें-फलें,
लम्बे-चौड़े आसमान को खोखला न कहें
तो बस ऊपर ताक-ताक
स्वाति की किस बूँद के लिये
छूँछे दुलार को
मानते रहें मोती अपना !


मेरा दु:ख


मेरे अपने दु:ख ने
मुझे संसार भर का दु:ख दिया
इसके लिए
उसने मुझे दिया एक भरा पूरा संसार भी,

मेरा दुख कभी बौना न था
बचपन में ही उसने मुझे चंदा मामा दिया
कभी टूटने वाला खिलौना नहीं दिया,

माँ के दु:ख ने मुझे इंसान बनाया
पिता के दु:ख ने
शैतान होने से रोका
पत्नी के दु:ख ने पैदा की
मेरे भीतर एक बड़ी स्त्री
बदल गया सुख का मापदण्ड,

दु:ख ने मुझे कुछ भी कम नहीं दिया
बिक रही एक लड़की की ऑंखों की चमक ने
उड़ेल दिया मुझ पर पूरे बाजार का दु:ख,
एक हिन्दू के दु:ख ने
खड़ा कर दिया
मुझे मंदिर के मेले में अकेला,

मेरे खेतो में कभी पानी नहीं रुका
चारों ओर उपजे दु:ख ने
नहीं उठाने दी मुझे अपनी मेड़,

मेरे घर में एक ही सुख है
कि यहॉं सबका दु:ख एक है
दु:ख ने घर में एक ही थाली दी
और उस थाली पर
एक साथ बैठा कर
मुझे दिये अनेक भाई ।

Friday 10 October, 2008

भोरसृजन संवाद-5

भोरसृजन संवाद अंक-5 इंदौर,10 अक्टूबर 2008



सम्पादकीय,

मित्रों भोर जब होती है, खिड़कियाँ खुलतीं हैं। खिड़कियों से उतरती हुई भोर, फिर आपके सामने है। रामविलास शर्मा हमारे समय का एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो हिन्दी समीक्षा में कई खिड़कियाँ खोलता है। उनके जन्मदिन दस अक्टूबर 2008 को भोर के नये अंक के साथ हम उपस्थित हैं। भोर मेरा और अरूण आदित्य का सपना था, जो पूरी मित्र मण्डली का भी साझा सपना बन गया था। प्रदीप कांत, देवेन्द्र रिणवा के अलावा रजनी रमण शर्मा को फिर खूजाल उठी है। बाकी रही-सही अगली बार। सो पत्रिका का यह अंक............

प्रदीप मिश्र – अरूण आदित्य


सामग्री :
डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिध्दांत – राकेश शर्मा

कहानी नकारो – सत्यानारायण पटेल

कहानी संग्रह भीम का भेरू........ की समीक्षा – शशिभूषण
टाँड से आवाज से कुछ चुनी रचनाएं- कवि जितेन्द्र चौहान



डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिध्दांत

डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म १० अक्टूबर १९१२ में हुआ था। १९३३ में वे सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” के संपर्क में आए और १९३४ में इन्होंने निराला पर एक आलोचनात्मक आलेख लिखा जो रामविलासजी का पहला आलोचनात्मक लेख था। यह आलेख उस समय की चर्चित पत्रिका चाँद में प्रकाशित हुआ। सन् १९३८ में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे निरंतर सृजनोन्मुख रहे। अपनी सुदीर्घ लेखन यात्रा में लगभग १०० महत्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन किया जिनमें “गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ”, “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश”, “निराला की साहित्य साधना”, “महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण”, “पश्चिमी एशिया और ऋगवेद” “भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद”, “भारतीय साहित्य और हिन्दी जाति के साहित्य की अवधारणा”, “भारतेंदु युग”, “भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी” जैसी कालजयी रचनाएँ शामिल हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में साहित्य अपने समय, समाज, अर्थ, राजनीति और इतिहास की समग्रता के साथ होता है। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जांचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के समग्र रचनात्मक संविधान के साथ कितना न्याय किया है।

इतिहास की समस्याओं से जूझना उनकी पहली प्रतिबद्धता है। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने मे जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आये हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गये थे। वे लिखते हैं - “दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन-अभियानों की सहस्त्राब्दी है। इसी के दौरान भारतीय आर्यों के दल ईराक से लेकर तुर्की तक फैल गए। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूंजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई हैं, जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना हैं। भुखमरी, अशिक्षा, अंध-विश्वास और नये-नये रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है। यह प्रयास जब भी हो अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नये सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्न से जुड़ा हुआ है”। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २०)

भारतीय संस्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलासजी ने किया है, उसमें उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है। शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है। वे लिखते है - “ सन् १७८६ में ग्रीक, लेटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था - ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृध्द है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है। पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्वास किये बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्त्रोत से जन्में हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडोयूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। १९ वीं सदी के पूर्वार्ध्द में तुलनात्मक और एतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है, अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी एतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है। अंग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने १८३३ में लिखा था - हम निश्चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटेलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल है जिनकी आधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अंग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है, और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिविंबित है। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २१)
डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अंग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड़यंत्र मानते हैं। उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है, तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अंग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज्य कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अंग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बांटकर ही अंग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है।


राकेश शर्मा “मानस निलयम”, एम-२, वीणानगर,इन्दौर-४५२ ०१० (मध्यप्रदेश)। मो. न. 09425321223

सत्यनारायण हमारे समय के एक संभावनाशील युवा कथाकार हैं। ग्रामीण परिवेश के की संवेदनाओं को स्वर देने में सत्यनारायण का नाम विशेषतौर पर लिया जा रहा है। इनकी कहानियाँ हम लगातार हन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं हँस, कथादेश, बया और शब्द संगत आदि में पढ़ते रहते हैं। सत्यनारायण की पहली किताब में कुल छः कहानियाँ हैं और 144 पृष्ठ। संयोग से शशिभूषण की एक समीक्षा हाथ लग गई। पहले सत्यनारायण की एक कहानी जो हाल ही में शब्द संगत में प्रकाशित हुई थी। - सम्पादक



नकारो



(लेखक – सत्यनारायण पटेल - मो.-०९८२६०९१६०५)

-तू निरखी (शुद्ध) बाँछड़ी राँड है कँई ? कि थारा मग़ज में गू भर्यो है ? रोटी खाय है कि गोबर ? इतरी अक्कल नी है कि अपनी सास की उमर की बैराँ (औरत) से कोई चीज् को नकारो (इनकार) नी करे ?

यह गालियाँ कंचन माय ने एक साँस में दी थी। दी क्या थी ? हाथ हिला-हिलाकर और चेहरे पर अजीब-अजीब से डरावने भाव लाते हुए मारी थी- जैसे खजूर की घढ़ में भाटे मारकर खजूरे खिरा लेते हैं। जैसे जामुन की पतली टहनी पर ज़ोर से डंडा मारकर लुम सहित टहनी को तोड़ लेते हैं। लेकिन कंचन माय गालियों के भाटे (पत्थर) खजूर या जामुन खिराने के लिए नहीं मार रही थी। वह तो इन भाटों से ही अपनी बहू काँवेरी का माथा रंग देना चाह रही थी।

काँवेरी बहू थी, लेकिन आजकल में ब्याही नवी-नवेली बहू नहीं थी। वह दो बेटों की माँ थी। उसे अपनी सास के घर का पानी पीते-पीते पूरे दस बरस हो गये थे; और किसी शरीफ गाय की गोनी तो वह पहले से नहीं थी। वह गालियाँ बकने में कुशल थी। गालियों से ही जंग जीत लेने की कला काँवेरी ने अपनी जी (माँ) से सीखी थी। इस हुनर में उसकी जी (माँ) बड़ी ठावी (बदनाम-मशहूर) थी। उससे गाँव की बेटियाँ और बहुएँ भी गालियाँ सीखती थी। उसके लिए गालियाँ देने का मतलब था- साँस लेना। अपनी दक्ष गुरू और जी से काँवेरी ने बचपन में जितनी गालियाँ सुन-सीख ली थी, उतनी किसी-किसी के लिए पूरी उम्र में भी संभव नहीं थीं। जब इस क़दर निपुण बहू पर कंचन ने गालियों के भाटे मारे, तो वह कैसे चुप रह सकती थी ? उसके लिए चुप रहने का मतलब अपनी जी की सीख और दूध को लजाना था। तैरना जानते हुए भी डूब मरना था, जो पानीदार काँवेरी के लिए संभव नहीं था ?

उस दिन कंचन ने जैसे ही गालियों का पहला भाटा फेंका, आँगन में बैठकर बर्तन माँजती काँवेरी ने हाथ के भरतिये (हाँडी नुमा काँसे का गोल बर्तन) को ज़ोर से दरवाजे की ओर फेंका। जो इस बात का संकेत था कि भाटा उसके कपाल से टकराया है। भाटा कितनी ज़ोर से टकराया, इस बात का अँदाज़ा भरतिये को फेंकेने की ताक़त के अनुमान से लगाया जा सकता था। गोल-गोल भरतिया तेज़ दौड़ती गाड़ी से निकले पहिये की भाँति आँगन की देहरी की ओर लुढ़कता जा रहा था। देहरी से टकराकर भी भरतिया रुक जाता तो बात और थी, लेकिन वह तो देहरी को लाँघ गया था। सेरी में खड़े-खड़े गालियों के भाटे फेंकती कंचन की ओर लुढ़कता जा रहा था। भरतिये को अपनी ओर तेज़ी से लुढ़कर आता देख, कंचन इधर-उधर हटती, तब तक तो वह उसके पाँव में पहनी चाँदी की कड़ियों से टकरा गया था। टकराने के बाद बमुश्किल रुक तो गया था, पर झन्नाहट नहीं गयी थी। झन्नाहट तो कंचन को भी पाँव की कड़ियों से लेकर माथे पर झूलते काँसे के बोर तक हो रही थी। वह दरवाज़े की ओर इतनी उतावली से बढ़ी जैसे कोई कँडों के अँगारों पर चूल फिरते वक्त़ चलता है।

उस दिन घर पर वे दोनों ही थीं। काँवेरी के छोरे ढोरों को कुएँ पर ले गये थे। उसका लाड़ा (पति) और सुसरा (ससुर) बैलगाड़ी लेकर खेत पर गेहूँ का सुक्ला-भूसा लेने गये थे। वे अभी-अभी ही खाना खाकर गये थे। काँवेरी उन्हीं के झूठे बर्तन माँज रही थी। तभी घूरे पर गोबर की हेल फेंककर कंचन लौटी थी; और उसके साथ थी कौशल्या माय।

कौशल्या माय के हाथ में थी मिट्टी की दोणी; और कंचन माय के हाथ में खाली छाब (टोपला) थी-था। जब कंचन माय के पाँव की कड़ियों से भरतिया टकराया, तो कंचन माय ने छाब को ज़ोर से एक तरफ़ सन्ना दिया था। उसके छाब को सन्नाने के बहादुराना अँदाज़ की कौशल्या माय भी कायल हो गयी थी। कौशल्या माय भी थी तो कंचन की ही दँई (समान उम्र) की और दो-दो बहुओं की सास भी, लेकिन वह कभी उन्हें डाँट भी नहीं पायी थी। लेकिन कंचन को देख कर तो वह चकित रह गयी थी। कंचन के पास कैसी-कैसी नुकीली गालियों का जखीरा था। कभी मौक़ा पड़े तो वह दुबले-पतले को तो गालियों की कत्तल से ही मार डाले; और उस क्षण तो कौशल्या माय की आँखें फटी की फटी रह गयी थी, जब छाब को सन्नाने के जवाब में काँवेरी ने थाली को सुदर्शन चक्र की तरह घूमाकर फेंकी थी। थाली तो किवाड़ की बारसाख से टकराकर अधबीच में ही रुक गयी थी। लेकिन थाली की झन-झनाट के साथ-साथ कौशल्या माय भी काँप उठी थी। उसके हाथ से मिट्टी की दोणी छूटकर गिर पड़ी और टूकडे-टूकडे हो गयी थी। फिर काँवेरी ने राख में लिथड़ी हथेलियों को एक-दूसरी पर मारी। हथेलियों से कुछ राख झरी; और इतनी ज़ोर से साँस भीतर खींची कि कौशल्या माय ने खुद को हवा के साथ काँवेरी के नकसुर की ओर खींचाती महसूस किया। जब खींची साँस को काँवेरी ने छोड़ा, तो हवा के साथ-साथ कौशल्या ने खुद को पीछे धकियाती महसूस किया।

कौशल्या माय बीच-बचाव में कुछ बोले, उससे पहले सास-बहू सेरी में आमने-सामने खड़ी हो गयी। उनका खड़े रहने और एक-दूसरी पर गालियों से वार करने का ढँग इतना कसा हुआ था कि किसी तीसरे को दखल देने की कोई गुँजाईश नहीं थी। सो कौशल्या माय दखल देने का मौक़ा तलाशती उन्हें देख-सुन रही थी। उसके मन में कहीं यह कसमसाहट भी थी कि यह सब उसकी वजह से ही हो रहा था।

-हूँ (मैं) बाँछड़ी है। म्हारा मग़ज में गू भर्यो है। तू म्हारी सौत नज (अच्छी) अक्कलमंद है। तू रँडी बड़ी साजोक (शरीफ) की मूत है। काँवेरी ने सूरज जैसे दहकते अपने मुँह से दाँत पिस-पिसकर जवाब दिया था।

-हूँ रँडी है, तने म्हारे किकी साथे सोते देखी, बता ? किका ब्याव में नाचते देखी, बता ? बता नी तो थारो चाचरो (मुँह) तोड़ दूआँ। कंचन ने कहा था।

उसे यह बात बहुत बुरी लगी थी। बाखल की कोई हम उम्र यह बात कहती, तो उसे शायद कम बुरी लगती, लेकिन बहू ने कही, तो आर-पार हो गयी थी। उसने अपने एक पैर से टायर की चप्पल निकाल ली और काँवेरी पर तानती बोली- अभी बता, तने किकी साथ में सोते देखी, तू तो म्हारो खस्सम बता।

-तो तू म्हारो खस्सम बतय दे ? काँवेरी ने पलटकर प्रश्न दागा।

-हूँ कोई थारी चौकीदारी करूँ, जो बतऊँ, कजा काँ खाल-खोदरा में मूँडो कालो करी आवे। कंचन ने कहा था

-तो गोबर खाते कद देखी यो बतय दे ? काँवेरी ने फिर पूछा।

-तू म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो फिर सतरह जगह बिंद्यो है। कंचन ने कहा।

कंचन का यह कहने का मतलब साफ़ था कि अगर काँवेरी उसकी बात नहीं सुनेगी। अगर उसकी बात का मान नहीं रखेगी। अगर उसके सामने चपर-चपर और आड़ासूड़ बोलेगी, उसकी सास बनने की कोशिश करेगी, तो फिर वह उसे नहीं बख्शेगी। उसके मुँह में सतरह छेद है। हर छेद से वह काँवेरी की पोल खोलेगी। वह उसे बाखल, गाँव में मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी।

-तू भी म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो हूँ भी अभी सब उघाड़ी ने पटकी दूआँ। काँवेरी ने इस अँदाज़ में चेताया कि जानती वह भी बहुत कुछ है, पर कह नहीं रही है।

-तू घणी छौला चड़ी है। थारी जिबान भी ज्य़ादा लम्बी हुईगी है। थारी जिबान के खेंची के थारी उकमें नी घूसेड़ी दूँ, तो गाम का भंगी भेले सोऊँ। कंचन ने तमतमाकर कहा था।

-तू तो दूसरा का साथ में सोने को बहानो ढूँढेज है ! पर म्हारी सुनी ले, या जो थारी खूब उकलासा खई री है नी, इमें बलतो बाँस नी घूसेड़ दूँ, तो काला कुतरा की टाँग नीचे निकली जऊँवा। काँवेरी ने कहा था।

-आज तो तू आने दे म्हारा छोरा के, म्हारा घर को माल खई-खई के, इ जो थारा ढेका (कूल्हे) गदराना है नी ? इन पर काँदो नी कटायो, तो हूँ म्हारा बाप का मूत नी। कंचन ने कहा था।

कौशल्या माय ने कंचन और काँवेरी की गालियों के ज्ञान का बखान तो कई बार सुना था, पर रूबरू सुनने का यह पहला ही मौक़ा था। एक क्षण तो उसके मन में आया कि अब जब उसकी पड़ोसन उसे गालियाँ देगी, तो वह अपनी तरफ़ से गालियाँ देने को कंचन माय और काँवेरी को बुला लेगी।

दोनों एक-दूसरे को भिट पर भिट मार रही थी। न कंचन हार मान रही थी, न काँवेरी पीछे हट रही थी। उन दोनों को लड़ते देख कौशल्या माय को अपनी बाँगड़ भैंसों की याद हो आयी थी। कौशल्या माय की भैंसे इतनी उतपाती और उजाडू थी कि पूरा गाँव उन दोनों भैसों के कारण परेशान रहता था। उन बाँगड़ भैसों की वजह से ही कौशल्या माय की ओड़क बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या पड़ गयी था।

जब भैंसे बेची नहीं था, तब कौशल्या माय और उनके धणी ने खूब धत्तकरम किये कि भैंसे गाबन हो जाये। उन्हें घर की झूठन से भरे कुण्डे के पानी में मिलाकर देसी अन्डे पिलाये। उनके बाँटे में कई बार भिलामा मिलाकर खिलायी आदि आदि लेकिन वे बाँगड की बाँगड़ ही रही। कभी उनकी सिरावन (भैंस की योनि) से घी के रंग का तार नहीं लटका। वे कभी उस बेचैनी से नहीं रैंकी। कभी कौशल्या माय और उनके धणी (पति) ने पाड़े (भैंसा) के आगे जबरन खड़ी कर दी। तो उन्होंने कभी पाड़े को अपनी पीठ पर टाँगे नहीं धरने दी। कभी गाबन नहीं हुई। कभी पाड़ा-पाड़ी नहीं जनी। जैसे उन्होंने ठान लिया था कि वे कभी इस लफड़े में नहीं पड़ंेगी। अंतत: कौशल्या माय और उसके धणी ने उम्मीद छोड़ दी कि अब ये कभी गाबन नहीं होगी। अगर वे गाबन हो जाती। तो उनके अँवाड़े भरी चड़स की तरह दिखते। उन बाँगड़ों का नाक-नक्श तो ठीक था ही, बस; बोटरा-बोटरा भर के बुबु (थन), अगर गिलकी की तरह लम्बे और फूले होते, तो कौशल्या माय के वारे-न्यारे हो जाते। उनकी ओड़क (पहचान) भी बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या माय नहीं पड़ती। लोग खुशी-खुशी उनकी दाढ़ी में हाथ घालकर बीस-बीस हजार रुपये में खऱीद ले जाते। लेकिन बाँगड़ों को कसाई के सिवा कौन ख्ा़रीदे ? अंतत: एक दिन कसाई के सुपुर्द कर दी थी, बाँेगड़ भैंसे न रहने पर भी कौशल्या माय की ओड़क वही रही थी। दरअसल उन भैंसों को कोई भूलता ही नहीं था, उनकी लड़ाइयाँ गाँव में मशहूर थी।

जब वे लड़ती थी, तो उनकी लड़ायी देखने लायक होती थी। एक-दूसरे पर फूँफाती और दौड़-दौड़ कर भिट मारती थी। वे लड़ते-लड़ते फसर-फसर पादती। गोबर कर देती। छलल-छलल मूतने लगती। लेकिन पीछे नहीं हटती। उनकी लड़ायी रुकवाने को कभी-कभी तो दो-तीन जवान पट्ठों को लट्ठ लेकर बीच में कूदना पड़ता था।

जब उस दिन कौशल्या माय ने कंचन और काँवेरी को उसी जज्बे और ताव के साथ लड़ते देखा, तो अनायास ही बाँगड़ भैंसों की याद हो आयी थी। वह सोच रही थी कि उन्हें समझाने की कोशिश करे। क्योंकि वे उसी की खातिर तो लड़ रही थी। लेकिन वह नहीं चाह रही थी कि छोटी-सी बात के पीछे इतनी देर तक लड़ा जाये। उसे लग रहा था कि कंचन-काँवेरी की बाखल में बेवजह उसका नाम बदनाम होगा। बाखल की बहुएँ कहेंगी कि बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या माय के कारण काँवेरी को उसकी सास ने जमाने भर की खरी-खोटी सुनायी। सास कहेंगी कि बाँगड़ भैंस वाली के कारण एक अधेड़ सास कंचन का उसकी बहू ने माजना ख्ा़राब कर दिया। वह चाह रही थी किसी भी तरह दोनों की लडायी टूटे। पर कैसे टूटे ? उनके बीच में कौन पड़े ? बाखल वाली तो सब उनकी आदत से वाकिफ़ थी कि अगर कोई बीच में पड़ी, तो वे दोनों एकजुट होकर उस पर टूट पड़ेंगी। 'कहीं ये दोनों मुझ पर टूट पड़ी तो भागने की बाट भी न मिलेगी` कौशल्या ने सोचा और अपने भीतर उन्हें लड़ने से बरजने (मना करना, रोकना) का साहस बटोरने लगी।

-बेन चुप हुई जाओ। मत लड़ो। बीच में जरा-सा मौक़ा देख कौशल्या माय ने साहस किया। दोनों के पास जाकर बोली- लड़ाई को मूँडो (मुँह) कालो। इससे नी होय कोई को भलो।

-तू बेन (बहन) एक बाजू रुक ज़रा। पहला इकी मस्ती उतारने दे। या घणी मस्तानी है। कंचन माय ने कौशल्या माय से कहा था। और फिर काँवेरी की ओर घूरती बोली- इकी हिम्मत तो देखो ? सास के जीते-जी नकारा (इनकार) करने लगी।

-कोई बात नी बेन, नकारो कर दियो तो, नी होगी तो नकारो कर दियो। कौशल्या माय ने कहा था। वह कंचन को समझाती बोली- उका नकारा को बुरो भी नी लागो, वा भी म्हारी बहू बराबर है। नकारो करी भी दियो तो कोई बात नी।

-अरे नी, इकी दोणी फोडँ इकी। इने म्हारा होते-सोते नकारो कैसे कर्यो। कंचन ने फिर ताव खाकर बोला था। वह कौशल्या माय की ओर इशारा करती बोली- तू रुक बेन, हूँ आज फेनल करके ही दम लूआँ।

अब तक उनकी सेरी में बाखल की कईं औरतें आ गयी थीं। वे आस-पास खड़ी होकर कंचन और काँवेरी का झगड़ा देख रही थीं। फिर कंचन आसपास खड़ी औरतों की ओर देखकर बोली- सास हूँ (मैं) है कि या ? हूँ हेल फेंकने घूड़ा तक गयी, इत्ती देर में कौशल्या माय के नकारो कर द्यो। म्हारी इज्ज़्त ही कँय री गयी ?

आसपास खड़ी औरतों में रामप्यारी माय और उनकी बहू भी खड़ी थी। रामप्यारी माय की बहू ब्याह के बाद पहली बार ही ससुराल आयी थी। उस वक्त़ वह अपने घर के आँगन में गेहूँ से काँकरे बीन रही थी। उसने झगड़े की आवाज़ सुनी और देखा कि उसकी सास उतावले क़दम से बाहर निकली। तो वह भी सास के पीछे-पीछे बाहर चल पड़ी थी। रामप्यारी माय बारह-पन्द्रह क़दम आगे चल रही थी और उसकी बहू पीछे। रामप्यारी माय ने देखा नहीं कि बहू भी पीछे-पीछे चली आयी। जब वहाँ औरतों की भीड़ में देखा, तो वह बहू के पास गयी। उसे भीड़ से एक बाजू बुलाया और बोली-तू यहाँ क्यों आयी ? ये तो दोनों छीनालें हैं। इनने तो लाज-शरम को काटी के ढेका पाछे धर ली है, तू जा अपनो काम कर। हूँ भी अय री थोड़ी देर में। वह चली गयी। जाकर फिर से गेंहूँ में से काँकरे चुन-चुन अलग करने लगी।

रामप्यारी माय वहीं डँटी थी। उनकी बगल में काँता माय भी खड़ी थी। रामप्यारी माय ने काँता माय से पूछा- क्यों माय यो झगड़ो किनी बात पर है।

-कँई मालम बेन, म्हने इनकी भूषणे की आवाज़ सूनी, तो चली आयी। काँता माय ने कहा और फिर दबे स्वर में बोली- इ राँडना तो आये दिन लड़ती-भिड़ती ही रहती है। जब कोई और नी मिले, तो दोय आपस में ही लड़ने को रियाज करे।

'पर आज क्या हुआ है ? और कौशल्या माय क्यों खड़ी है ?` रामप्यारी ने सोचा और वह कौशल्या माय के पास चली गयी।

रामप्यारी माय उस बाखल में तो क्या, पूरे गाँव में न्यारी ही थी। उसे झगड़ा देखना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन झगड़े की कहानी सुनने-सुनाने का चुरुस रहता। उसका कहानी समझने और सुनाने का अँदाज़ भी न्यारा रहता। जब वह किसी और से सुनी कहानी भी खुद सुनाती, तो उसका अर्थ ही बदल जाता। उस दिन भी उसने अपने इसी स्वभाव के चलते कौशल्या माय से झगड़े की असल जड़ को जानने की कोशिश की थी।

कौशल्या माय ने बताया था कि कोई खास बात नहीं थी। आज मेरी बहू ने ज्वार की रोटी बनायी है। मैंने सोचा-ज्वार की रोटी के साथ खाटा राँधाना ठीक होगा- बेसन और भटा (बेंगन) का खाटा (कड़ी जैसा, पर कड़ी नहीं)। घर में सब सामान है। बस, छाछ नहीं है। छाछ कंचन माय के यहाँ अक्स़र मिल जाती है। यही सोचकर मैं दोणी लेकर चली आयी। और उसने कहा कि जब वह कंचन माय के घर आयी। कंचन माय घर में नहीं थी। काँवेरी थी। उसने काँवेरी से छाछ माँगी ली। काँवेरी ने उससे चाय-पानी का पूछा। बातचीत भी ठीक करी। पर छाछ का नकारा कर दिया।

-कँई बोली काँवेरी ? रामप्यारी माय के स्वर में आगे जानने की जिज्ञासा थी।

-बोली कि छाछ आज ही खुटी (समाप्त हुई) है, सवेरे एक डेढ लीटर छाछ थी, पर वी रोटी खईने सुक्लो भरने गया, तो पीता गया। और ये भी कहा- अब एक कप भर छाछ है, तो वा जम्मुन का काम आवेगी। बस म्हारी तो काँवेरी से इतरी ही बात हुई।

-घर में छाछ नी होगी तो नकरी गयी, फिर झगड़ा किस बात का ? रामप्यारी माय ने भीतर ही भीतर खुद से पूछा था और कुछ समझ नहीं आया, तो फिर कौशल्या को कुरेदा।

बात कौशल्या माय की भी समझ नहीं आ रही थी। लेकिन उसने यह बताया कि जब वह वापस खाली दोणी लेकर अपने घर जा रही थी। उसे रास्ते में कंचन मिल गयी। वह घूड़े पर गोबर की हेल फेंककर खाली छाब लिये लौट रही थी। जब दोनों नज़दीक आयी, तो कंचन ने ही पूछा- काँ से आ रही है बेन ?

-बेन थारा घर ही गयी थी छाछ लेने। कौशल्या माय ने कहा था।

-छाछ लेने गयी थी, तो थारी दोणी तो खाली ? कंचन माय ने खाली दोणी पर नज़र मारते पूछा था।

-हाँ बेन, काँवेरी ने क्यो (कहा) कि छाछ नी है। कौशल्या माय कहती हुई जाने को हुयी।

-उनी करम खोड़ली की या मजाल कि म्हारा होते-सोते, थारे छाछ को नकारो कर द्यो ? कंचन माय ने ताव में आकर कहा था।

-नी होगी, तो नकारो कर द्यो, इमे कँई बड़ी बात। कौशल्या माय ने बात टालते हुए कहा- कहीं और से ले लूँगी, गाँव में एक दोणी छाछ नी मिलेगी कँई ?

-नी बेन, असो कदी (कभी) हुओ ? तू म्हारी साथ में चल, हूँ भी तो देखूँ, थारे कैसे छाछ नी दे ! कंचन माय उसे वापस पलटाकर अपने घर तरफ़ ले चली थी।

कौशल्या को लगा कि छाछ होगी, काँवेरी ने जान बूझकर नकारा कर दिया होगा। लेकिन काँवेरी ऐसा क्यों करेगी ? कौशल्या ने तो कभी घर में चीज़ होते हुए नकारा नहीं किया। चार दिन पहले ही काँवेरी के यहाँ पावणे (मेहमान) आ गये थे। घर में शक्कर नहीं थी। कौशल्या माय ने पाँच कटोरी शक्कर दी थी। अभी तो वह लौटायी भी नहीं है। नहीं होगी, तभी उसने नकारा किया है। कौशल्या ने मन ही मन सोचा था, पर कंचन माय मान ही नहीं रही थी, तो उसके साथ वापस आ गयी थी। वह तभी से देख रही थी कि दोनों सास-बहू आपस में गाली के गोले इधर से उधर दागे जा रही है।

-लेकिन थारे छाछ मिली कि नी मिली ? रामप्यारी माय ने फिर पूछा था।

-अरे बेन, अभी छाछ तो मिली नी, दोणी और फूटी गयी। उसने अपनी फूटी दोणी की ओर इशारा करते हुए कहा था।

-लेकिन कंचन का घर में छाछ है भी कि नी ? रामप्यारी माय ने पूछा था।

ऱ्ये तो अभी पता ही नहीं चला है। कौशल्या माय बोली- इनकी बक-बक बंद हो तो पूछूँ ।

कंचन और काँवेरी का झगड़ा देखने-सुनने वाली औरतों में दो-तीन जवान छोरियाँ और बहूयें भी खड़ी थी। जवान छोरियाँ जिनके अभी-अभी ही ब्याह हुये थे। अभी कंचन जैसी सास के पाले नहीं पड़ी थी, वे आपस में फुसफुसाकर बात करती। हँसती। एक-दूसरे से कहती- ये बोल-बचन याद कर लो, ससुराल में काम आयेंगे। जो अधेड़ औरतें खड़ी थीं उनमें से रामप्यारी माय को छोड़, किसी में इतनी सूझ और साहस नहीं था कि कंचन और काँवेरी को डपटकर या समझा-बुझाकर चुप करा देती।

फटे में पाँव डालने की आदत रामप्यारी माय को ही थी, इसलिए उसी ने इस गुत्थी को सुलझाने और समझने का जोखिम उठाया। उसने अपने साथ कौशल्या माय का भी हौसला बढ़ाया। दोनों मिलकर कंचन और काँवेरी को घर में ले गयी। उन्हें जैसे-तैसे चुप कराया। बाहर खड़ी औरतें अपने-अपने घर चली गयी और अपने काम निपटाने में जुट गयी। कंचन माय के घर में वे चारों औरतें थी। कौशल्या माय और कंचन माय आपस में बात कर रही थी, तब तक रामप्यारी माय भीतर से एक जग में पानी ले आयी। वे दोनों रामप्यारी माय से बड़ी थी, इसलिए वह उनकी सेवा में बगैऱ कहे जुट गयी थी। रामप्यारी उनसे छोटी ज़रूर थी, पर वह ठंडा पानी छीड़कना जानती थी। उन्हें पानी पिलाने के बाद वहीं से बोली- काँवेरी चाय को पानी चढ़य दे। हम चाय पी कर ही जावाँगा।

कौशल्या माय चाह रही थी कि चाय बन रही है। तब तक छाछ ले ली जाये, ताकि चाय पीने के बाद तुरंत चला जा सके। उसका छोरा और धणी भी खेत बखरने गये हैं। उसकी बहू को खाना लेकर खेत पर जाना है। वह देर नहीं करना चाह रही थी। सो उसने कंचन से कहा- छाछ दे दे बेन।

-अभी कौन-सी ज़ल्दी पड़ी है। चाय बन रही है, चाय पी ले, फिर ले लेना। रामप्यारी ने कहा।
काँवेरी का चाय बनाने का तरीका, बिरबल के खिचड़ी बनाने के तरीके जैसा नहीं था, इसलिए चाय ज़ल्दी ही बन गयी थी। रामप्यारी माय चाय से भरे कप उठा भी लायी। तीनों आँगन में बैठकर चाय पीने लगी। काँवेरी भी अपना कप लेकर आँगन में आ गयी। अब आँगन में तीन सास और एक बहू बैठी थी।
-बेटा तू छोटी है। बहू है। सास को ऐसे मत बोला कर। कौशल्या माय ने कहा।
-सास तो माय बराबर होवे है कंचन माय, तम तो दानी (बुर्जुग) बैराँ हो सब जाणो-बूझो, दूसरा की छोरी के अपन घर में लावाँ, पर उके भी अपनी छोरी जैसी ही राखनी पड़े। रामप्यारी ने कहा था।
-अरे बेन म्हारे खुद अच्छो नी लागे। म्हारी बहू, म्हारी इज्ज़्त है। अपनी जाँघ अपन ही उघाड़ी कराँ और अपने ही लाज नी आवे, तो फिर दूसरा के क्यों आवेगी ? दूसरा तो खीं खीं करीने दाँत काड़ेगा (हँसेंगे)! कंचन माय भी समझदारी की बातं कर रही थीं। उसका गुस़्सा शांत हो गया था। चाय भी ख्त्म हो गयी थी।
कौशल्या माय ने सोचा- अब जाना ही पड़ेगा, नहीं तो देर हो जायेगी। जुवारे का टैम हो जायेगा और खेत पर खाना नहीं पहुँचेगा। वह उठती हुई बोली- ला बेन कंचन, देखी ले छाछ, हो तो दे दे। कंचन माय उठकर भीतर गयी। दीवार के भीतर सामान रखने की जगह बनाकर बाहर से लकड़ी के पल्ले लगी बारी को खोली। बारी के भीतर जिसमें छाछ भरी रहती, वह चूड़ला नहीं था। बस एक चरू (लोटे) में जम्मुन पुरती छाछ थी। कंचन माय के दिल में डबका पड़ा-धक। छाछ तो सचमुच में नहीं है।
वह बाहर आयी और बोली-बात अकेली यही नी है कि घर में छाछ है कि नी। घर में बड़ी मैं हूँ, मैं सास हूँ, ये नी, तो घर में क्या है और क्या नी है ? यो देखनो म्हारो अधिकार है। किसे हाँ करनी है और किसे नकारा यो म्हारो अधिकार है। आखिर मैं सास हूँ।
-अरे तम गोबर से भरी हेल फेंकने गयी थी, तो म्हने नकारो कर दियो। काँवेरी ने दबे स्वर में कहा। फिर से झगड़ा करने का उसका मूड नहीं था।
-तो हेल फेंकने ही तो गयी थी, कोई दूसरो खस्सम करके भाग थोड़ी गयी थी। कंचन की बात नुकीली थी लेकिन कहने के अँदाज़ में नरमायी थी।
रामप्यारी माय और कौशल्या माय एक-दूसरी की तरफ़ देखने लगी। वे सोच में पड़ गयी कि कहीं फिर से शुरू न हो जाये। कौशल्या माय ने पूछा- कंचन तू छाछ देखने गयी थी, है कि नी।
कंचन माय खिसानी पड़ गयी थी। उसकी आँखो में शर्मिन्दगी उतर आयी थी, उसने धीरपय से कहा- बेन छाछ तो सही में खुटीगी।
रामप्यारी माय को कहानी का सार समझ में आ गया था कि सवाल ये नहीं कि छाछ है कि नहीं। सवाल किसी को हाँ-ना करने के अधिकार का है।
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सत्यनारायणपटेल एम-२, १९९, अयोध्यानगरी,इन्दौर-११ मो.-०९८२६०९१६०५






अपराजेय सँघर्षशीलता की कहानियाँ

सत्यनाराण पटेल का होना हमारे समय में एक ऐसे कथाकार का होना है जिसकी कथाभूमि पूरी तरह से जीवन हो। यह जीवन बहुरंगी छटा का श्रमिक और लोक जीवन है। संघर्षशील आमजन यहांँ नायकत्व पाता है। इस कथाकार की भाषा में लोक संस्कृति के स्वर है, जिसमें लोक की गर्वीली आत्मा बोलती है। हिन्दी में कई ऐसे महत्वपूर्ण कथाकार हुये हंै जिन्होने सबसे पहले एक आयडिया चुना फिर उसी को केन्द्र में रख कर कहानी का प्लॉट बुना । यानी तयशुदा थीम की ज़मीन पर कल्पनाशीलता के उपकरणो से संवेदना के बीज बोए। नतीजे में या तो पहले से चला आता हुआ कोई विचार पुष्ट हुआ या नए विचार की कोंपलें फूटीं। चूंकि कहानी स्वायत्त, समय समाज की चौपाल पर सबसे मार्र्मिक साक्ष्य होती है। इसलिये वह कैसे भी मुकम्मल हो एक उपलब्धि के रूप में ली जाती रही है। उसे उपलब्धि के रूप में स्वीकार भी किया जाना चाहिये।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों के पात्र और कथास्थितियाँ जिंदगी से आए हैं। ये एकदम खरी भरोसेमंद कहानियाँ है। इन्हें पढकर आप ये कहने का साहस नहीं कर सकते कि गढ़ी हुई कहानियाँ हैं। जैसे पनही` कहानी का पूरण जूते गढ़ता है ठीक उसी तल्लीनता और गरिमा के साथ सत्यनारायण पटेल कहानी बुनते हैं। यह कथाकार जैसे कहानियां सुनाता है- धीरे-धीरे कदाचित रूक-रूक कर। सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ पढ़कर निराशा या अंधेरे वक्त की ऊब महसूस नहीं होती है, बल्कि अनुभवों का भरापूरा जिंदादिल संसार सामने आता है। अनुभव जो हमारी समझ के रुके हुये रास्ते खोलते हैं, ताकत देंते हैं। इनकी कोई भी कहानी उठा लीजियें चरित्रों का समूह मिलेगा। इस समुह में कोई हमारी बात रखता हुआ सुनाई देगा तो कोई वर्ग शत्रु की क्रूरता के साथ खड़ा मिलेगा । यहां एक सा जीवन जीने वाले , एक सी स्थगित भाषा बोलने वाले जिसमें धर्म ,राजनीति, बाजार या सांस्कृतिक सत्ता का व्याकरण होता है, चरित्र नहीं मिलेंगे ।

यह कथाकार कहानियों के लिये वातावरण का निर्माण नहीं करता । कहांनियाँ वर्णन से शुरू नहीं होती । बल्कि विवरण कहीं-कहीं तो खाली छोटे -छोटे संकेत स्थितियों के अनुरूप आते जाते हैं। इसी कारण शिल्प सख्त हो गया हैं। सत्यनारायण पटेल की कहानियों का शिल्प कच्चें नारियल की तरह है। पहले उसे काटना, भेदना पड़ता है। लेकिन एक बार यह हो जाए तो कौन नहीं जानता नारियल पानी की मिठास शीतल पेयों की सजावटी, विज्ञापनी मिठास से बेहतर होती है। यह हमें समृद्ध और मजबूत बताती है।

सतत् अनिश्चितता सत्यनारायण पटेल की कहानियों की एक और मुख्य विशेषता है । यह कथाकार परिवेश का कोई टुकड़ा सलीके से उठाता है और उसके सहारे कहानी की पर्ते धीरे-धीरे खोलने लगता है। इनकी कहानियॉं क्रमश: खुलती और आगे बढ़ती है। पात्रों का अधिनायकत्व रचने वाले दूसरे कथाकार होंगे । सत्यनारायण के यहां उनकी लोकतांत्रिक मौजूदगी देखी जा सकती है। इस संग्रह की सारी कहानियों में कोई पात्र ऐसा नहीं मिलेगा जिस पर पूरी कहानी निर्भर हो, बल्कि वह केन्द्रीय लगने वाला पात्र भी क्रमश: गौंड़ होने लगता हैं। और अंतत: दूसरा पात्र उसकी केंद्रीयता को धूमिल कर देता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि सत्यनारायण पटेल एक यादगार चरित्र खड़ा करने की बजाय एक सक्र्रिय समूह खड़ा करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। `भेम का भेम मांगता कुल्हाड़ी ईमान` का अंत याद कीजिये जहां कथा नायक गरम कुल्हाड़ी लेकर आगे बढ़ रहा है और पूरा समुदाय निर्णायक होता जा रहा हैं जैसे अब जो प्रतिरोध में आगे आएगा वह नायक हो जायेगा ......`पनही` का पूरण हो या `गांव और कांकड़ के बीच` का बालू ये सब अंत में सँघर्षशीलों के समूह में पर्यवसित हो जाते हंै। यही वजह है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियों में अपराजेय संधर्षशीलता दिखाई पडती हैं । ऐसा नहीं है कि इस कथाकार को हमारे समय के अंधेरे , नैराश्य, विभ्रम और पराजयों का पता नहीं है। लेकिन यह कथाकार इनके विरूद्ध प्रतिसंसार खोजने में लगता है । यही प्रतिसंसार इस कथाकार की उपलब्धि है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों में दलित और स्त्री जीवन अपने विशिष्ट स्वरूप में संघर्ष चेतना के साथ अभिव्यक्त होता है। वे समकालीन कथा जगत में दलित और स्त्रियों को विमर्शो के फार्मूले सिद्ध करने के लिये इस्तेमाल करने वाले कथाकारेा से अलग हैं। वे ब्राम्हणवाद से लड़ने के लिये नारेबाजी का सहारा नहीं लेते, बल्कि वर्गीय अर्न्तविरोध कैसे शोषकों तथा शोषितों के बीच की गुत्थियाँ नहीं सुलझने देते,शोषितों को एकजुट नहीं होने देते इसको परत दर परत उघाड़ने के लिये जीवन का तटस्थ रूपांकन करते है। इसके बावजूद जब वे दलित पृष्ठभूमि उठाते हैं तो पहले से चले आ रहे सिद्धांतो को पुष्ट करने में प्रयासरत् नहीं दिखाई देते, बल्कि दलितों के सुख-दुख, संर्घष , हार -जीत को वर्गीय चेतना के साथ प्रकट करते है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों की स्त्रियां पीराक ( पनही ), केसर ( बिरादरी मंदारी की बंदरिया) , झन्नू ( गांव और कांकड़ के बीच) , चत्तर ( बोंदा बा) , सकीना ( भेम का भेरू मांगता......) व्यक्तित्व संपन्न संघषंशील स्त़्रियाँं हंै। सकीना को छोडकर सबकी सब प्रतिरोध करती हैं, निर्णय लेती है और समय आने पर शोषण के विरूद्ध सामाजिक लाडाई के सूत्रधार की भुमिका निभाती है। इन औरतों को भारतीय ग्रामीण समाज में ढूंढ पाना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। ये उन कहानियों की स्त्रियों से भिन्न है जो सीधे कहानियों में ही अवतरित् होती है,सुंदर , बौद्धिक , कमाऊ होती है।ं अपनी आर्थिक आजादी के बल पर पुरूष सत्ता को चुनौतियां देती रहती है। चुनाव लडती है,एन.जी.ओ. चलाती है। लिव इन की संमर्थक है या अकेली रहती है, विभिन्न संगठनों के माध्यम से स्त्री चेतना का अदान-प्रदान करती है। लेकिन अंतत: खुद को शोषितों के बीच ही पाती है। इसके विपरीत ये वो स्त्रियां हैं । जो गरीबी और विरादरी के जालों को भेदने के लिये पति को शोषक माने बिना उसे लड़ने के लिये उकसाती हैं और साथ-साथ खड़ी होती है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों के संवाद विशेष महत्व रखते हैं। हालांकि वे लम्बे होते हैं, ज्यादातर पात्रों की स्थानीय बोलियों में होते हैं। जिससे कहानी का प्रवाह बाधित भी होता है। फिर भी यह उल्लेख खूबी है कि जब समकालीन हिंदी कहानी में अलग-अलग चरित्र करीब करीब एक जैसी भाषा बोलते है तब उनकी कहानियों के संवादों में चरित्रों की निजता बोलती है।

`पनही` कहानी में पूरण जब पनही गढने के बाद पटेल को देने निकलता हैं तो एक बार उसे गौर से देखता है- इस बार उसे पनहीं की नाथन पर टंके फूल पीराक ( पत्नी ) की आँंखे लगे । पनही का ऊपरी हिस्सा जिसके नीचे पांव का पंजा रहता हैं , वह पूडी सा दिखा , पनही की कमर के कटाव को देखकर वह मुग्ध हो गया और पैर की एड़ी ढकने वाला भाग देखकर , पीराक आंखों में उतर आयी । पटेल को पनही देखकर पनही की नाथन पर टंके फूल पटेलन के कानों के सुरल्ये लगे। लेकिन जब पटेल पूरण लेकिन जब पूरण को शाबासी देने के लिये आगे बढ़ता है तो उसके मुंह से जो बोल फूटते है वह सांमत आवाज है- "खींचकर किसी को मार दो तो जीव निसरी जाए।"

`पनही` संग्रह की पहली कहानी है। इसमें चमडे का जूता गढ़ने वाले पूरण का क़िस्सा है। पूरण ग्रामीण मज़दूर है। पनही बनाने का उसका हुनर इलाके भर में मशहूर है। वह हर बार पटेल के लिये नये डिजाईन की पहले से सुंदर पनही गढ़ता है। उसका पनही बनाना किसी कला की साधना जैसा है।लेकिन इस काम से मिलने वाली आमदनी इतनी कम है कि परिवार का पेट पालना मुश्किल है। एक और विडंबना देखिए पनही बनाने वाला पूरण खुद पनही नहंी पहनता। इसकी बिरादरी का कोई भी पनही नहीं पहन सकता। एक बार पूरण नयी बनायी पनही लेकर पटेल के पास जाता है। तो वह मजदूरी बढ़ाने की मिन्नत करता है जिससें पटेल इंकार कर देता है। पूरण आगे की बातचीत से गुस्से में आ जाता हैं और बोल देता है- "ढोर घीसने के काम में इतनो ही तमारे फायदो नजर आवे तो तम करो, म्हारे नी करनू् है।" पटेल आग बबूला हो जाता है। यहाँ से कहानी उस दिशा में आगे बढ़ती है। जब पूरण की मुश्किलें और उसकी बिरादरी के संघर्ष शुरू होते है। उसके साथी बिरादर एकजुट हो जाते है लेकिन वह पत्नी से कहता है - तुम लोगो के माथे कटवाओंगी । पीराक जवाब देती है -"पटेल की पनही पर घरे माथे की क्या आरती उतारें , ऐसा माथा कट जाए तो भला।" पूरण की दुविधा मिट जाती है वह लोगों के साथ इस सपने के लिये लडने को तैयार हो जाता है कि अब हमारी औलादें पढेंगी, पनही पहनेंगी और पटेलेंा की जी हुजूरी नहीं करेंगी । वह अपने लोगों से कहता है- "अब मेरा मुह क्या देख रहे हो , जाओ टापरे मे जो कुछ हो- लाठी, हाँसिया लेकर तैयार रहो पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां उबाडे पगे मत आजो कोई ।"

पूरी कहानी अपनी बनावट में अत्यंत सधन है। मुक्ति कामना की जैसी अनुगूंज कहानी में है वह अद्वितीय उदाहरण है। कहानी हमें खाली झकझोरती ही नहीं हमारी चेतना में इतिहास की भांति दर्ज हो जाती है। जैसे पूरण पीराक और उनके लोग कहानी के पात्र नहीं हमारे पीछे छूट गये संघर्षशील साथी हो , जो दूर दराज कहीं अब भी लड रहे होंगे लेकिन हमारी जिंदगी में कहानी हो गये । `पनही` महज कहानी नहीं संघर्ष चेतना का सुंदर, कल्पनाशील आख्यान है।

"बोदा बा"संंग्रह की तीसरी कहानी है। दाम्पत्य की मार्मिकताओं का जैसा यथार्थ, गहन चित्रण इस कहानी में हुआ है वह उपलब्धि है। " बोंदा बा " का दुख सार्वभौम सच्चाई है लेकिन उसका प्रतिरोध कलात्मक दृष्टि का सफलतम उदाहरण है। औलाद की क्रुरताओं और पत्नी के असहाय प्रेम मे बोंदा बा का जो चरित्र उभरता है चह दाम्पत्य की विडंबनाओं का प्रतिनिधि चरित्र है। ठंड से बेहाल बोंदा बा ठंड भगाने के लिये जिस तरह घर के कपड़े जला डालने का निर्णय लेता है उसका अपने प्रति अत्याचार के प्रतिकार की यह व्यंजना विलक्षण है।

` बिरादरी मंदारी की बंदरिया ` उस सामाजिक यथार्थ को प्रकट करती है जिसमें बिरादरी शोषक सत्ता और भ्रष्ट व्यवस्था का आचरण करती है। दबंगई कैसे रिश्तों , संबंधांे , दोस्तियों , विश्वासों का खून चूसकर बिरादरी की तैयार करती है जिसके साये में इंसान लगातार रक्तक्षीण होते जाते है यह सब कहानी में आप बिना किसी बौद्धिक ताम - झाम के देख सकते है।

`गांव और काँकड़ के बीच` कहानी के केंद्र में कभी समाप्त न होने वाले जाति संघर्ष है। इन संघषों को धर्म, प्रचलित राजनिति, स्वीकृत दलित - सवर्ण सोच के दायरे में रखकर न देखा जाना एक उपलब्धि है।
कहानी बताती है कि वर्तमान सामाजिक संरचना में जाति दरअसल संपत्ति केंद्र हैं। इस समाज में जब भी कोई इंसान जैसा सोचने लगता है तो सबसे पहले उसकी किसी कमजोरी को आधार बनाकर बिरादरी बाहर करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद जब वह नही मानता यानी जाति, वर्ण के बाहर श्रमिक की जातीयता हासिल कर लेता है, एक समूह का अंग बन जाता है, फिर शोषण को चुनोती देता हैं तो उसे मार दिया जाता है। कहानी की खूबसूरती इसमें है कि वह बताती है- अकेला आदमी मार दिया जा सकता है लेकिन समुदाय नहीं मरता ।

` भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान` सत्यनारायण पटेल की कहानी कला को एक नया आयाम देती है जिसमें भाषा और जीवन के संधान की प्रवृत्ति का उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।

" कुल मिलाकर कहना चाहूंगा सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ जीवनानुभवों की निर्मिति हैं। कोरे अनुभवों या सैद्धांतिकी के आधार पर निर्मित समझ उनकी कहानियों के भीतर धंसने में बाधक होगी। उन्हें इन कहानियों का सच्चा आस्वाद मिलेगा । जो अपने अपने द्वीपो के वासी नहीं होंगे या फिर उन्हे जो कहानियां को जिंदगियॉं बूझने का अचूक उपाय मानते है"।

शशिभूषण,हिंदी विभाग अ.प्र.सिंह वि.वि.,रीवा पिन -४८६००३,मोबाइल नं.-९९९३७१२३१०
(शशिभूषण जितने अच्छे कथाकार हैं, उतने ही अच्छे समीक्षक भी। मुझ लगता है, उनकी समीक्षा सत्यनारायण पटेल का कहानियों का समीक्षा के साथ कहानी के मुलभूत समीक्षा पर भी प्रकाश डालेगी।- सम्पादक)



(जितेन्द्र चौहान उन युवा कवियों में से हैं जिनकी उपस्थिती हिन्दी कविता मे पिछले कई दशकों से है। वे खामोशी के साथ कुछ न कुछ लिखते रहते हैं और उनकी एक पुस्तिका सामने आ जाती है। प्रेम और निज संम्बन्धों पर उनकी कविताएं अलग से ध्यान मांगतीं हैं। एक पठनीय कविता पुस्तिका टाँड से आवाज अभी-अभी हमारे हाथ में आई है। कविताएं एगले पोस्टमें. –सम्पादक)

Wednesday 1 October, 2008

ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र


(मोहल्ला पर टहल रहा था तो भाई निरंजन श्रोत्रिय और आकांक्षा से मुलाकात हो गई दोनों ईश्वर की पहेली में उलझे पड़े थे। अचानक मुझे मेरी एक कविता याद आगयी सो यहाँ रखा रहा हुँ। कुछ बातें ईश्वर के नाम पर ही। प्रदीप कांत ने एक फोटो खींचा था, उसे भी चिपका रहा हूँ। पढ़ें और बोलें- प्रदीप मिश्र)

जन्म हुआ
तब मैं हिन्दू था
इसलिए मेरी आस्था में सबसे पहले
ईश्वर को स्थापित किया गया

सर्वशक्तिमान है ईश्वर
ईश्वर की ईच्छा के विरूध
कुछ भी संभव नहीं है
ईश्वर ने ही बनाया है
नदियाँ-पेड़-पहाड़-धरती-खेत-जीव-जन्तु
इन ईश्वरी मुहावरों में
दिमाग तक डुबोकर रखा गया मुझे

विद्यालय जाने के लिए
घर के बाहर
जब रखा पहली बार कदम
सबसे पहले मंदिर ले जाया गया
मंदिर में ईश्वर के क्लोन नें
चढ़ावे के अनुपात में आशीर्वाद दिया
इसी आशीर्वाद से
मैं सीख पाया ककहरा
अतः ककहरा सीखते ही
धर्मग्रन्थों को पढ़ना मेरी नैतिक विवशता थी और
उनको कण्ठस्थ करना अनुवांशिक परम्परा
धर्म के इसी घटाटोप में हर रोज
नये-नये ईश्वरों ने मेरे दिमाग और दिल में
जगह बनाना शुरू कर दिया
इस तरह से किशोरावस्था तक
मेरी चेतना में
तैंतिस करोड़ देवी-देवताओं का वास हो गया

इतनी विशाल ईश्वरी सत्ता की चका चौंध में हतप्रभ मैं
आस्था के बिल्लौरी काँच पर हाथ घुमाते-घुमाते
निकम्मा होता जा रहा था

ईश्वर की कठपुतली होने का आभास
मन में इस तरह से घर कर गया था कि
मेरे शरीर की सारी कोशिकाओं के जीवद्रव्य
धीरे-धीरे ईश्वर के अधीन हो रहे थे

गीता से लेकर हनुमान चालिसा तक
संकट मोचक थे मेरे पास
तंत्र और सिद्धियों के तमाम चमत्कार
मेरी आँखों के पलकों पर चिपके हुए थे
सिर पर ईश्वर के क्लोनों के वरदहस्त थे
मंदिरों की कतारें बिछीं हुयीं थीं गली-गली
फिर भी ब्रह्मांड के हाशिए पर दुबका मैं
अपने संशयो में सबसे ज्यादा असुरक्षित था

बढ़ रही थी मेरी उम्र
घट रही थी सोचने-समझने की क्षमता

एक नागरिक की हैसियत से
जब दाखिल हुआ इस समाज में
देखा लोग भूखों मर रहे थे
ईश्वर टनों घी से स्नान कर रहे थे
लाखों लोगों की कत्ल हो रही थी
ईश्वर अपने अंकवारी पकड़कर बैठे हुए थे जन्मभूमि
हजारों द्रौपदियाँ, लाखों सुग्रीव और विभीषन गुहार लगा रहा थे
ईश्वर चैन की वंशी बजा रहे थे
छप्पन भोग लगा रहे थे
मगन थे देवदासियों के नृत्य में
मैं इन्तजार कर रहा था कि
अभी आसमान से उतरेंगे मुस्कराते हुए
और अपनी हथेली में समेट ले जाऐंगे दुःखों के पहाड़

कभी भी किसी वक्त प्रकट हो जाएगा सुदर्शन चक्र और
सारे अत्याचारियों के सिर धड़ से अलग कर देगा
करोड़ों-करोड़ बाण सनसनाते हुए आऐंगे और
नष्ट कर जाऐंगे सारे विध्वंसक हथियार

इन्तजार करते-करते मैं थक गया हूँ
अब बहुत कम दिन बचे हैं मेरी उम्र के
इस दुनिया से बाहर होने से पूर्व
ईश्वरी पहेली सुलझाने की गरज से
एक बार फिर पलट रहा हूँ
सारे घर्मग्रन्थों और इतिहास के पन्ने और
अपने गुणसुत्रों की अनुवांशिक प्रवृत्तियों पर
शोध कर रहा हूँ
इतिहास की दराज से निकाल रहा हूँ
लम्बे-लम्बे जुमले
अनन्त तक फैली संस्कृतियों और
पाताललोक तक जड़ फैलायी परम्पराएं

समय की सतह पर सरकते हुए
मैं जिस मुकाम पर पहुँचा हूँ
यह एक गुफा है
जिसमे अंधकार ही अंधकार है और
इसकी दीवारों पर
ब्रेल लिपि में लिखा हुआ है इतिहास

ब्रेल लिपि में लिखे हुए
इस इतिहास को पढ़ने की क्षमता हासिल किया और
मर गयीं उंगलियों की पोरों की कोशिकाएं
आखिरी कोशिका के मरने से ठीक एक क्षण पहले तक
मैंने पढ़ा जब जंगल और गुफाओं से पहली बार निकले मनुष्य

बहुत सारे मनुष्य
लग गए इस दुनिया को सजाने-संवारने में
कुछ लोग जो नहीं कर सकते थे यह काम
वे ईश्वर की रचना में लग गए

ईश्वर की रचना में ही
बने चार वर्ण

सबसे पहला वर्ण ब्राह्मणों का
ब्राह्मण ईश्वर के सबसे करीबी

ईश्वरी संरचना के सारे सूत्र इनके पास
ईश्वरीय ज्ञान के गुरू
यही इनकी रोजी-रोटी का जुगाड़
अतः ईश्वर की सबसे पहली अवधारणा
ब्राह्मणों ने दिया

क्षत्रिय धरती पर ईश्वर के पूरक
राजा-महाराजा, अन्नदाता
इन्होंने बनवाए बड़े-बड़े मंदिर
किए भव्य धार्मिक अनुष्ठान
जितनी बढ़ी महिमा ईश्वर की
उतना ही फले-फूले क्षत्रिय
अतः ईश्वरीय सत्ता के संस्थापक

तीसरा वर्ण वैश्यों का
वैश्य ठहरे पूँजीपति-व्यापारी
इन्होंने सबसे ज्यादा ईश्वर का ही व्यापार किया
अतः ईश्वरीय सत्ता समृद्ध और व्यापक हुई

अंतिम वर्ण शुद्रों का
जो जनसंख्या में बाकी वर्णो के योग से कई गुना ज्यादे
शुरू से लगे हुए थे इस दुनिया को सजाने-संवारने में
इन्होंने ही बनाया दुनिया को इतना सम्मोहक और सुन्दर
ईश्वरीय सत्ता में
ये ही रहे सबसे ज्यादा दलित-दमित

इस शोधपत्र के निष्कर्ष पर
मेरी लम्बी-चौड़ी अनुवांशिक समझ
सिकुड़कर लिजलिजी हो गयी है

इतिहास के दलदल में नाक तक धंस गया हूँ और
हवा में लहराते हुए मेरे बाल
सूरज में उलझ गए हैं

अब मैं चाहता हूँ कि
ईश्वर के भार से चपटा हुए शरीर को छोड़कर
कबूतर बन जाऊँ
मंदिर की मुंडेर पर बैठकर
गुटरगूं-गुटरगूं करूं ।


-प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर, इन्दैर-452009 (म.प्र.),भारत. 091-731-2485327, 09425314126, mishra508@yahoo.co.in

Wednesday 24 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -7

खेतों के काम करने वालो दासों को गरम लोहे से दाग दिया जाता था जिससे कि वे सदा पहचाने जा सके कि किस मालिक के हैं। रात को भेड़-बकरियों की तरह वे बाड़ों में बन्द कर दिये जाते थे और भूखे जानवरों की तरह सबरे खेतों में हाँक दिये जाते थे। युद्ध से गुलामों की कमी पूरी न होती थी तो गुलाम उड़ाने वाले डाकू उन्हें जुटाते थे। वर्षों तक ईजियन और पूर्वी भूमध्य सागर से ये डाकू लोगों को पकड़ लाते थे और उन्हें देलोस के बाजार में बेच देते थे। वहाँ से रोमन व्यापारी उन्हें इटली ले आते थे। (पृष्ठ ४३)
यह अत्याचार न सह सकने पर दासों ने कई बार विद्रोह किया। सिसिली में साठ हजार विद्रोही दासों ने अपने मालिकों को मार कर शहरों पर कब्जा कर लिया और अपना राज्य स्थापित कर लिया। रोमन फौज कई साल के संघर्ष के बाद ही उन्हें दबा पायी। इस विद्रोह के समय छोटे खेतों के मालिक, स्वाधीन किसान भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने धनी भूस्वामियों के महलों में आग लगा दी। ``इसलिए दासों के विद्रोह से न केवल दासों की वरन् स्वाधीन लोगों में निर्धन किसान वर्ग की भी घृणा प्रकट हुई।`` (ब्रेस्टेड)। धनी और निर्धन का भेद इतना तीव्र हो गया था कि दोनों वर्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गये थे। ``इटली दो बड़े सामाजिक वर्गों में बँट गया था।`` जो एक-दूसरे के खतरनाक ढंग से विरोधी था।`` (उप.)। एक और भूपतियों का वर्ग था जिनके पास दास और भूमि थी, दूसरी ओर दास और वे गरीब किसान थे जो भूपतियों की नीति से तबाह हो रहे थे। रोमन सामन्तों की युद्ध-नीति से साधारण जनता खुशहाल न हुई, वरन् और तबाह हुई। दूसरों को लूट कर वे जो सम्पदा लाते थे, उससे साधारण जनता को लाभ न था। युद्ध से लौटने पर रोमन सैनिकों को अपना खेत सुरक्षित न मिलता था। कर्ज के न चुका सकने पर अक्सर वह भूस्वामी के पास पहुँच जाता था। अगर खेत बचा भी रहा तो वह गुलामों द्वारा की जाने वाली बड़े पैमाने की खेती का मुकाबला न कर सकता था। बाहर से भी सस्ता अनाज मँगाया जाता था। आगे-पीछे खेत बेच कर किसान सर्वहारा बनकर रोम पहुँच जाता था। रोम का भव्य साम्राज्य उसके स्वाधीन किसानों ने ही कायम किया था। वहीं उससे तबाह हुए। एथेंस की तरह रोम के पतन का आंतरिक कारण ये मुफलिस बने। (पृष्ठ ४३-४४)
सबसे पहले प्रश्न यह है कि क्या वैदिक संस्कृति किसी विशेष प्रदेश की संस्कृति है। प्रदेश का सवाल भी तब उठता है, जब यह सिद्ध हो जाय कि इस संस्कृति के रचने वाले घुमन्तू जीवन न बिताते थे वरन् किसी प्रदेश में बस गये थे। श्री पुलास्कर ने भारत में आर्य बस्तियों की चर्चा करते हुए यह परिणाम निकाला है कि वैदिक ऋचाओं में जिस प्रदेश की चर्चा है, उसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध और राजस्थान के कुछ भाग, उत्तर-पश्छिमी सीमान्त प्रदेश, कश्मीर और सरयू नदी तक का पूर्वी प्रदेश आता है। (``वैदिक युग``)। पश्चिम के कुछ विद्वानों का मत रहा है कि ऋग्वेद का मुख्य क्षेत्र पंजाब है। उसके बाद का मत है कि यह प्रदेश सरस्वती नदी के आसपास और अंबाला के दक्षिण का है। कुछ लोगों का मत भी है कि अधिकांश मंत्र भारत के बाहर ही रचे गये थे। (पृष्ठ ४७)
यह वर्ण-व्यवस्था मानव समाज के भावी विकास के लिए आवश्यक थी। इससे एक वर्ग ऐसा बना जो अवकाश-भोगी था और अपना समय गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण आदि के विकास के लिए दे सकता था। वर्ण-व्यवस्था के कारण धर्म शास्त्र, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का विभाजन हुआ। ऋग्वेद में यह विभाजन नहीं है, बीजरूप में भले विद्यमान हो। भरत का नाट्यशास्त्र, कालिदास के नाटक, कपिलकणाद के दर्शन, पाणिनि का व्याकरण, आर्यभट्ट का गणित इस वर्गभेद और संपत्तिगत विभाजन से ही संभव हुए। आज वर्ण-व्यवस्था को अन्यायपूर्ण ठहराना सही है लेकिन अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्यण के समय उसे अन्यायपूर्ण ठहराना निरर्थक है, क्योंकि वह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य थी। ऐंगेल्स ने प्राचीन युग में दास-प्रथा की आलोचना करने वालों से ``ऐं टीडूयरिंग`` में कहा है, यदि यूनान में दास-प्रथा न होती तो यूरोप में सोशलिज्म भी न आता। इसी तरह भारत और विश्व के भावी विकास के लिए वर्ण-व्यवस्था आवश्यक थी। आज हम यह न मानते हैं कि ब्राह्यण और क्षत्रिय वर्गहितों से परे ईश्वर के अंश हैं, न हम यहीं मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और मानव-सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण देन न थी। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है, सभ्यता की प्रगति के साथ दुर्गति का भी एक अंश जुड़ा रहता है, उसी के अनुकूल यहाँ भी यह प्रगति समाज के लिए बाध्य करके ही हुई। स्त्रियों की शिक्षा और सार्वजनिक कार्यों से दूर रखने के लिए कड़ी व्यवस्था की गयी और शूद्र को यथाकामवध्य: कहा गया। (पृष्ठ ५७-५८)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी सातवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Monday 22 September, 2008

हमारे समय का धिनौना सच दिल्ली हदसा

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पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ उसे हम सबने खूब जाँचा-परखा। निर्णय यह लिया गया कि मुसलमानों ने तबाही मचा दी है। सिमी और न जाने क्या-क्या। लेकिन सिमी को वजूद में आने और पैदा करने में किसका हाथ है ? और भविष्य किस दिशा में है ? कहीं हम एक आँख के चश्में से पूरी पृथवी देखने की कोशिश तो नहीं कर रहै हैं ? मित्रों अगर आप मनुष्य हैं और अपने देश-समाज से प्रेम करते हैं तो समय का तकाजा है कि आप दोनों आँखों से खुद देखें और मीडिया को भयानक झूठ का पुलिंदा समझें। कुछ अपवादों को छोड़ कर। इसे भी पढ़ें और सोचें क्या दिल्ली, अहमदाबाद और दूसरी जगहों का सच ठीक वही है, जो हमे समझाया जा रहा है। मित्रों इन अमाननीय कृत्यों के पीछे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता है, जिसका धर्म है। धर्म मनुष्यता के खिलाफ संभव नहीं है। चाहे वह 1992 दिसम्बर का अयोध्या हो या आज की दिल्ली। कहीं नहीं है - धर्म। इन काम को करने वाले हिन्दू-मुसलमान नहीं हैं। सत्ता और पूँजी के आगे जीभ लपलपाते कुत्ते हैं। यह संस्कृति गुजरात में सर्वाधिक पोषित हुई है, और अब सारे देश में फैल रही है। पिछले दिनों जनसत्ता में छपा सुभाष गाताड़े का यह आलेख हमारी आँखों पर बंधी पट्टियों को खोलता है। इसे जरूर पढ़ें, और सबको पढ़वाऐं । -प्रदीप
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24 अगस्त की जन्माष्टमी के दिन कानपुर में जिस बड़ी साजिश का पर्दाफाश हुआ, उससे किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं। शिव शंकर मिश्रा नामक किन्हीं रिटायर्ड कर्मचारी द्वारा बने, एक निजी छात्रावास के एक कमरे में हुए प्रचंड बम विस्फोट में न केवल मिश्रा का अपना इकलौता बेटा राजीव तथा उसके दोस्तस भूपेंद्र सिंह की मौत हुई, बल्कि मौत का जितना सामान बरामद हुआ वह एक पुलिस अधिकारी की ज़बानी कहें तो ‘आधे कानपुर को तबाह कर सकता था’।

जैसा कि बताया जा चुका है कि इस भीषण विस्फोट में दो युवकों के चिथडे़ उड़ गये, कमरे की छत उड़ गयी और दीवारें चटख गयीं। मौके पर पुलिस ने ग्यारह जिंदा बम, इलेक्ट्रॉनिक घड़ियां, टार्च की बैटरियां और भारी मात्रा में बारूद बरामद किया। इसके अलावा वहां से बम बनाने की सामग्री के तौर पर तीन किलो लेड आक्साइड, 500 ग्राम रेड लेड, एक किलोग्राम पोटैशियम और अमोनियम नायट्रेट, 2 किलो बम की पिनें, बारह बल्ब, 50 मीटर तार मिला। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समूचे शहर में सीरियल बम धमाकों के लिए पर्याप्त सामग्री वहां थी।

गौरतलब है कि भूपेंद्र सिंह, जिसकी अपनी फोटोग्राफी की दुकान मशहूर जेके मन्दिर के पास थी, वह कुछ साल पहले बजरंग दल का नगर संयोजक था और राजीव भी बजरंग दल से जुड़ा था। आधिकारिक तौर पर बजरंग दल की तरफ से यही कहा जा रहा है कि दोनों ‘पिछले कुछ समय से सक्रिय नहीं थे।’ दूसरी तरफ पुलिस की तरफ से अभी इस बारे में कुछ कहा नहीं जा रहा है। क्या यह माना जाए कि पुलिस किन्हीं दबावों में काम कर रही है, ताकि बमकांड के असली सूत्रधारों तक पहुंचने से बचा जा सके? यह बेवजह नहीं कि इस कांड में ‘बब्बर खालसा’ का नाम भी उछाल दिया गया है। एक अग्रणी अख़बार (जागरण, 24 अगस्त 2008) ने ‘आतंकवाद विरोधी दस्ते’ के हवाले से यह ख़बर उड़ायी है कि शहर में तबाही मचाने की इस साजिश में लगभग मृतप्राय हो चुके बब्बर खालसा का नाम आया है। यह भी जोड़ा जा रहा है कि भूपेंद्र का रिश्ताप बब्बर खालसा फोर्स से था।

एक ऐसे समय में जबकि आतंकवाद के साथ समुदाय विशेष का या विशिष्ट धार्मिक मान्यतावाले तबकों का नाम जान बूझ कर उछाला जाता रहा है, यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि इस मामले की तह तक हम कभी पहुंच सकेंगे।

लोगों को याद होगा कि कुछ समय पहले ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने कई साक्षात्कारों में इस बात को दोहराया था कि ‘उनके पास इस बात के सबूत हैं कि संघ परिवार के लोग बम बनाने की घटनाओं में संलिप्त रहते हैं।’ और ऐसा नहीं कि वह यह बात पहली दफा कह रहे थे। पिछले साल भी उन्होंने मध्यप्रदेश के श्यामपुर, सिहोर आदि स्थानों से संघ परिवारी समर्थकों के घरों से बरामद बमों और अन्य विस्फोटक सामग्री के बारे में अपने साक्षात्कार में उजागर किया था। (भास्कर, 19 जुलाई 2007) ‘संघ भेजता है गुप्ती, बम तलवारें’ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में यह बात भी उजागर की गयी थी कि इसके अचानक बाद ही पास के नरसिंहपुर में साम्प्रदायिक घटनाओं में तेजी के समाचार मिले थे। इस सिलसिले में प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम भेजे अपने पत्र में उन्होंने सिहोर के पुलिस अधीक्षक के उस पत्र का भी हवाला दिया था कि पुलिस की तमाम कोशिशों के बावजूद गिरफ्तार दो व्यक्तियों ने उन स्रोतों का उल्लेख नहीं किया था जहां से उन्हें हथियार मिले थे।

कानपुर में बजरंग दल से सम्बद्ध दो लोगों के बम विस्फोट में मरने और एक बड़ी साजिश का पर्दाफाश होने से बरबस दो साल पहले महाराष्ट्र के नांदेड के उस चर्चित घटनाक्रम की याद ताजा होती है जब सिंचाई विभाग के रिटायर्ड कर्मचारी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध थे -लक्ष्मण राजकोंडवार- के यहां हुए बम विस्फोट में उनका बेटा नरेश और बजरंग दल का स्थानीय नेता हिमांशु वेंकटेश पानसे मारे गए थे और चार लोग बुरी तरह जख्मी हुए थे। इस घटना के बाद जब मृतकों के घरों पर छापा डाला गया था तब पुलिस को इलाके में मस्जिदों के नक्शे तथा क्षेत्र के मुसलमानों द्वारा पहने जानेवाले ड्रेस और नकली दाढ़ी आदि सामान मिला था। पकड़े गए लोगों ने पुलिस को बताया था कि नांदेड की औरंगाबाद मस्जिद के सामने जुम्मे की नमाज के वक्त़ बम विस्फोट करने की उनकी योजना थी। बाद में यह बात भी उजागर हुई थी कि पिछले कुछ सालों में परभरणी, जालना आदि स्थानों पर महाराष्ट्र में मस्जिदों पर जुम्मे की नमाज के वक्त जो बम हमले हुए थे, उसमें इन्हीं लोगों का हाथ था। पहले मामले की तहकीकात में पुलिस ने आनाकानी की थी, लेकिन जब दबाव पड़ा तब उन्हें सीबीआई से जांच करवानी पड़ी थी। यह बात समझ से परे लगती है कि इतने बड़े कांड में शामिल होने के बावजूद सभी अभियुक्त अभी जमानत पर हैं। उसी नांदेड में फरवरी 2007 में शास्त्रीनगर इलाके में एक दूसरा विस्फोट हुआ था, जिसमें भी हिन्दूवादी संगठनों के दो लोग मारे गए थे। पहले पुलिस ने कहा कि बिजली के शार्टसर्किट से यह हादसा हुआ, लेकिन जब मानवाधिकार संगठनों ने इस बात को उजागर किया कि इस गोदाम में कोई बिजली कनेक्शन नहीं था, तब पुलिस को अपनी जांच की दिशा बदलनी पड़ी थी।

यह बात महत्वपूर्ण है कि हर 6 अप्रैल को बजरंग दल के कार्यकर्ता नांदेड में पटाखे छोड़ कर ‘शहीद दिवस’ मनाते हैं, और एक तरह से अपने ‘शहीदों’ को याद करते हैं जो मस्जिद के बाहर रखने के लिए बम बनाने के दौरान मारे गए थे। (द मेलटुडे, 26 अगस्त 2008)

नांदेड की घटना को अगर ‘हिन्दू आतंकवाद’ का चर्चित आगाज़ कहा जा सकता है तो विगत दो सालों में ऐसी कई घटनाएं दिखती है जहां खुल्लमखुल्ला अतिवादी हिन्दू युवा आतंकी कार्रवाइयों में मुब्तिला दिखते हैं। तमिलनाडु के तेनकासी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय पर हुआ बम हमला (24 जनवरी 2008) इसकी एक नायाब मिसाल कहा जा सकता है जिसमें रवि पांडियन, ,स कुमार और वी नारायण शर्मा जैसे हिन्दू मुन्नानी के कार्यकर्ता पकड़े गए थे। ‘द हिन्दू’ (6 फरवरी 2008) के मुताबिक पुलिस ने इन लोगों से बम और विस्फोटक भी बरामद किए। हिन्दू मुन्नानी के इन कार्यकर्ताओं ने समूचे इलाके में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के मकसद से इस घटना को अंजाम दिया था।

फरवरी और मई-जून में महाराष्ट्र के पनवेल (20 फरवरी 2008) में जोधा अकबर के प्रदर्शन के दौरान और वाशी में विष्णुदास भावे आडिटोरियम (31 मई 2008) और ठाणे में गडकरी रंगायतन (4 जून 2008) में ‘आम्ही पाचपुते’ नामक चर्चित नाटक के प्रदर्शन के दौरान हुए बम विस्फोटों को इसी सिलसिले की अगली कड़ी कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने बहुत पेशेवर ढंग से काम करते हुए अंततः इन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार ‘सनातन संस्था’ और ‘हिन्दू जनजागृति समिति’ के कार्यकर्ताओं को गिरतार कर जेल भेज दिया है।

निष्कर्ष के तौर पर यह अवश्य पूछा जा सकता है कि क्या कानपुर, तेनकासी, ठाणे, नांदेड में हिदू अतिवादियों द्वारा अंजाम दी गई इन घटनाओं को एक-दूसरे के साथ जोड़ कर देख सकते हैं या नहीं ?

यह सहज ही आकलन किया जा सकता है कि हिंदू राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करने वाली इन जमातों ने अपनी रणनीति में बारीक बदलाव किया है और अब जगह-जगह ऐसी आतंकी कार्रवाइयां करने की योजना बनाई है, ताकि वह उन्हीं के बहाने अल्पसंख्यकों का दमन कर सकें।

दरअसल, अब वक्त आ गया है कि हम उत्तर-औपनिवेशिक भारत में आतंकवाद की परिघटना की नए सिरे से पड़ताल करें और समुदाय विशेषों को बदनाम करने के सिलसिले पर निगाह डालें। शायद तभी हम उस सहजबोध को खारिज कर सकेंगे, जिसके तहत आतंकवाद और धर्म-विशेष में गहरा रिश्ता ढूंढ़ लिया जाता है।

Tuesday 16 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -6

ईसा से लगभग पाँच हजार साल पहले मिस्त्र की प्राचीन संस्कृति का विकास हुआ। नील नदी की बाढ़ के कारण यहाँ की उर्वर धरती में जिस संस्कृति का विकास हुआ, उसका गहरा असर भुमध्यसागर के प्रदेशों पर पड़ा। यह प्राचीन संस्कृति बर्बर और अर्ध-बर्बर अवस्था की है। लोहे के औजार बनना अभी शुरू नहीं हुए। तांबा और कांसा मुख्य धातुएँ हैं। खेती (अर्थात् बागववनी) पहले हाथ से होती थी, फिर कुदाल को जुए से बाँधकर कर्षण द्वारा ``कृषि`` होने लगी। बागों के बदले क्षेत्रों को जोत-बो कर ``खेती`` होने लगी। जुए में बँधा हुआ कुदाल हल बना और बैल उसे खींचने लगे। इस तरह मनुष्य ने पशुओं के योग से अपने श्रम और उत्पादन की शक्ति बढ़ाई। (पृष्ठ ३२-३३)
प्राचीन संस्कृतियों में भारत की सिन्धु घाटी की सभ्यता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। ``मोहेज्जोदड़ो और सिन्धु घाटी की सभ्यता`` (१९३१) में सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि पुरातत्व की खोज से चौथी सहस्त्राब्दी ई. पू. के जीवन का ही पता चलता है ``लेकिन मोहेज्जोदड़ो में ही पहले के और कई नगर एक-दूसरे के नीचे दफनाये पड़े हैं और उन तक अभी फावड़े की पहुँच नहीं हुई।`` सिन्ध और बलूचिस्तान मंे और नगरों के मिलने की संभावना बतलाई गई है। मार्शल के अनुसार हड़प्पा और मोहेज्जोदड़ो में वैसी संस्कृति मिली हैं, वह काफी दिनों से विकसित होती रही होगी। वह ``भारत की धरती पर काफी रूढ़िगत हो चुकी थी और उसके पीछे कई हजार वर्ष का मानव- श्रम निहित होना चाहिए।`` इससे सिद्ध होता है कि सिन्धुघाटी की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है और यदि वह मिस्त्र की संस्कृति से पहले की नहीं है तो उसकी समकालीन अवश्य है। (पृष्ठ ३४-३५)
सिन्धुघाटी की संस्कृति का प्रभाव न केवल भारत पर वरन् अन्य देशों पर भी पड़ा। गॉर्डन चाइल्ड के शब्दों में यहाँ के विज्ञान का प्रभाव पश्चिम के विज्ञान पर पड़ा और इसलिए हमारे लिए वह ``ब्रौंज एज`` की संस्कृति नष्ट नहीं हुई वरन् हमारे न जानते हुए भी उसका काम आगे प्रगति का रहा है। (पृष्ठ ३७)
ऐंगेल्स के अनुसार यह बर्बर अवस्था की तीसरी और ऊँची मंजिल है जो सभ्यता के आरम्भ से घुलमिल जाती है। इस अवस्था की संस्कृति के निर्माण में एशिया की प्रमुख भूमिका है। अफ्रीका और अमरीका में यह संस्कृति विकसित हुई। यूरोप की देन अभी नगण्य है। (पृष्ठ ३७-३८)

इन प्राचीन समाजों के गर्भ में जो श्रम-विभाजन और वर्ग-विभाजन क्रमश: विकसित होता है, वह सामंती समाज की विशेषता है। हमें वर्ग-विभाजन का यह रूप नहीं मिलता कि समाज में एक ओर तो केवल दास हों और दूसरी और दासों के स्वामी हों। युद्ध आदि से दास प्राप्त होते है, उनसे उन्हीं लोगों की शक्ति बढ़ती है जो शेष समाज को यानी अपने सगोत्रियों को निर्धन बनाते जा रहे हैं और पूरे कबीले की अधिकांश भूमि अपने अधिकार में करते जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि सम्पत्तिशाली वर्ग के हित में जब राज्यसत्ता का जन्म होता है, तब वह केवल दासों का दमन करने के लिए नहीं होती वरन् समाज के ``स्वतंत्र`` किन्तु निर्धन सदस्यों के विरूद्ध भी उसका उपयोग होता है।(पृष्ठ ३८)
एथेन्स में दासों की संख्या स्वाधीन यूनानियों से बहुत ज्यादा थी। इनके श्रम के बल पर ही यूनान की सभ्यता का प्रकाश फैला था। एथेंस के कारखानों में ये दास ही काम करते थे। इसलिीए यह स्वाभाविक था कि व्यापारी और औद्योगिक वर्ग उन्हें नियंत्रण मेें रखने के लिए शक्ति का उपयोग करें। एथेंस में फी नागरिक के पीछे अठारह गुलाम थे लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हर नागरिक के पास गुलाम थे और समाज से धनी-निर्धन का तीव्र वर्ग-भेद मिट गया था। ऐंगेल्स ने लिखा है, ``व्यापार और उद्योगधन्धों की प्रगति से थोड़े से लोगों में सम्पत्ति एकत्र और कंेद्रित हुई। आम स्वाधीन नागरिक गरीब थे। उनके सामने दो ही रास्ते थे - या तो वे दस्तकारी में दास श्रमिकों से होड़ करें जिसे घृणित और त्याज्य समझा जाता था, इसके सिवा जिसमें सफलता की आशा भी बहुत कम थी - या पूरी तरह मुफलिस हो जाएँ। उस समय की परिस्थितियों में दूसरी बात ही हुई।`` इस मुफलिसी ने ही एथेन्स को तबाह किया। (पृष्ठ ४१-४२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी छठी कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Monday 1 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -5

अंग्रेज पहले भारत में व्यापार करने आये थे, यहाँ का माल अपने वहाँ बेचकर मुनाफा कमाने आये थे। लेकिन अपने यहाँ की औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ उन्होंने भारत के उद्योग-धंधों का नाश किया। १८ वीं सदी के अन्त तक भारत के रेशमी और सूती कपड़े अंग्रेजी बाजार में वहाँ के कपड़ों के मुकाबले में ५०-६० फीसदी सस्ते बेचे जा सकते थे। इससे साबित होता है कि इंगलैण्ड अभी औद्योगिक दृष्टि से कमजोर था। अपने माल की खपत के लिए उसने भारतीय माल पर ७०-८० फीसदी कर लगाया जिसका अर्थ था, माल आने पर एकदम रोक लगा देना। इससे पहले एलिजाबेथ ने लोगों को बाध्य किया था कि वे इतवार और त्यौहार के दिन इंगलैंड की बनी हुई टोपी लगाया करें। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में चार्ल्स द्वितीय ने कानून बनाया था कि लोगों को दफनाने के लिए स्वदेशी कफन ही काम में लाया जाय। इससे इंगलैंड की औद्योगिक प्रगति का अनुमान किया जा सकता है। एलिजाबेथ के समय में फ्लैडर्स के बुनकर भागकर इंगलैंड आये थे और वहाँ के नगरों में बस गये थे। ``इस नये अपनाये हुए देश को उन्होंने इस योग्य बनाया कि ऊनी उद्योग में वह सिरमौर हो।`` अंग्रेजों ने भारतीय माल पर जो भारी कर लगाने की नीति अपनायी थी, वह १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक जारी रही। १८४० की पार्लियामेंट कमेटी की जाँच से पता चलता है कि भारत में आने वाले अँग्रेजी माल पर साढ़े तीन फीसदी (सूती और रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी कपड़ों पर) कर लगता था लेकिन यहाँ से जो माल विलायत जाता था, उस पर दस फीसदी (सूती माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और तीन फीसदी (ऊनी माल पर) कर लगता था। देखने की बात है कि ऊनी माल पर सबसे ज्यादा कर था, यानी इसकी होड़ से अंग्रेज उद्योगपति सबसे ज्यादा बचना चाहते थे और यह उस समय जब इंगलैंड में मशीनों का चलन हो गया था। (पृष्ठ १२०)
भारत में अंग्रेजों की लूट के फलस्वरूप यहाँ के औद्योगिक केन्द्र तबाह हो गये। ढाका और मुर्शिदाबाद के लिए क्लाइव ने कहा था कि ये नगर उतने ही समृद्ध है जितना कि लंदन (और जैसा शहर इंगलैंड में दूसरा न था)। लेकिन १९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ढाका की आबादी डेढ़ लाख से घट कर तीस-चालीस हजार ही रह गई। सर चाल्स्र ट्रेवेलियन के अनुसार ढाका जो भारत का मैंचेस्टर था वीरान होकर जंगल बनता जा रहा था और मलेरिया का शिकार होने जा रहा था। मोंटगोमरी मार्टिन ने अंग्रेजों द्वारा सूरत, ढाका और मुर्शिदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों के नाश को बहुत ही दुखद घटना बतलाया था। १८१७ में उसका निर्यात बन्द हो गया था। बाहर से सस्ता लोहा मँगाने की अंग्रेजी नीति के कारण भारत का अपना लोहे का कारोबार चौपट हो गया। अर्थशास्त्री बकनन ने लिखा है कि जैसी आधुनिक युग के पहले यूरोप में थीं। (आज का भारत अध्याय ५)। यहीं दशा जहाजों के कारबार की हुई। अंग्रेजी राज में भारतीय उद्योग-धंधों की तबाही पर अपनी पुस्तक में वामनदास बसु ने लिखा है कि पूरब का काफी व्यापार पहले भारतीय जहाजों द्वारा होता था। चीन, ईरान, लालसागर तक भारत के जहाज माल पहुँचाते थे। १७९५ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को यह आज्ञा मिली थी कि वह भारत में बने हुए जहाजों द्वारा लंदन माल ला सकती है। सर टामस मनरो ने भारतीय उद्योग-धंधों की दशा देखकर कहा था, ``औद्योगिक रूप में हम लोग उनसे (भारतवासियों से) बहुत पिछड़े हुए हैं।`` रजनी पाम दत्त ने लिखा है कि १८ वीं सदी के मध्य तक इंगलैंड कृषिप्रधान देश था। उन्होंने बैंस का हवाला दिया है जिसने लिखा है कि १७६० तक सूती कपड़र बनाने के लिए इंगलैंड में जो मशीनें इस्तेमाल की जाती थी, वे प्राय: वैसी ही साधारण थी जैसी भारत की। एक तो उन्होंने अपने औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक पूँजी बटोरी, दूसरे अपने माल के लिए भारत को खेतिहर देश बनाकर उन्होंने एक बाजार कायम किया। इंगलैंड मेमं भारत की लूट के फलस्वरूप बैंकिंग का कारोबार चमका। प्लासी के युद्ध के बाद इंगलैंड की हालत बदल गई। वहाँ जिन यंत्रों का आविष्कार किया गया था, उन्हें काम में लाने की सुविधा पैदा हो गई। ``इस तरह भारत की लूट पूँजी के एकत्रीकरण का वह गुप्त स्त्रोत थी जिसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका के कारण इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति संभव हुई।`` (पृष्ठ १२०-१२१)
हेगेल एक भाववादी विचारक था, लेकिन इसी कारण मार्क्स और ऐंगेल्स ने उसकी विचारधारा से किनाराकशी नहीं कर ली। उन्होंने उसके चिन्तन के क्रांतिकारी तत्व को पहचाना और उसे विकसित किया। यह पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है जिससे हम पुराने विचारकों का सही मूल्यांकन करना सीखते हैं। मार्क्स ने लिखा है कि उन्होंने ``पूँजी`` के प्रकाशन से तीस साल पहले ही हेगेल के द्वन्द्ववाद के रहस्यमय पक्ष की आलोचना की थी। हेगेल से अपनी पद्धति का भेद बतलाते हुए उन्होंने लिखा है, ``मेरी द्वन्द्वात्मक पद्धति हेगेल पद्धति से भिन्न ही नहीं है वरन् ठीक उसकी उल्टी है।`` हेगेल के लिए मनुष्य की चिंतनक्रिया वास्तविक संसार की मूल प्रेरक शक्ति है और यथार्थ जगत् ``विचार`` का बाह्म रूप है। इसके विपरित मार्क्स के लिए मनुष्य का विचार-जगत् उसके मन में भौतिक जगत् का ही प्रतिबिम्ब है और वह विचारों का रूप धारण करता है। ``हेगेल में द्वन्द्ववाद रहस्यमय बन जाता है। लेकिन इससे इस बात में रूकावट नहीं पड़ी की हेगेल ने सबसे पहले व्यापक और सचेत ढंग से उसकी क्रिया का आम रूप पेश किया था। हेगेल का द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा है। रहस्यमय रूप के भीतर उसके तर्क-संगत तत्व को जाना है तो उसे फिर से सीधे खड़ा करना होगा।``(पृष्ठ १४३)
मनुष्य ने युगों गों तक अपार यातनाएँ सहकर आज की सभ्यता को जन्म दिया है। यातना अधिकांश जनता के भाग्य में पड़ी, उस यातना से सुख उठाना थोड़े-से सम्पत्तिशाली लोगों के हाथ में रहा। यह युग मानव-समाज के विकास में एक विराट परिवर्तन का युग है। शोषण और ध्वंस की शक्तियाँ अपना विनाश सामने देख रही हैं। वे संसार की बहुसंख्यक जनता का नाश करके उस घड़ी को टालना चाहती हैं। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील के सिद्धांत उन्हें प्रिय नहीं लगते, व्यवहार में प्रतिदिन वे इन सिद्धांतों को तोड़ती हैं। साथ ही स्थायी शांति और शोषणहीन व्यवस्था कायम करने वाली शक्तियाँ अदम्य वेग से आगे बढ़ रही हैं। विजय इन्हीं प्रगतिशील शक्तियों की होगी। वह देश जो दो सौ वर्ष पहले संसार के किसी भी देश से पिछड़ा हुआ न था, शीघ्र ही अपना ऐतिहासिक स्थान प्राप्त करेगा और मानव-सभ्यता के विकास में अपने इतिहास के अनुरूप ही योग देगा। यह विश्वास सामाजिक विकास के वैज्ञानिक अध्ययन से पुष्ट होता है।(पृष्ठ ११)
एक अर्थ में मनुष्य श्रम द्वारा ही पशु से मनुष्य बना है। पशु-अवस्था से निकले हुए मनुष्य को लाखों वर्ष हो चुके और उस अवस्था का ठीक काल-निर्णय करना सम्भव नहीं है। लेकिन पशु-जीवन से निकलते-निकलते उसे लाखों वर्ष लगे होंगे, इसमें संदेह नहीं। उसकी सभ्यता का इतिहास उसके पशुजीवन के इतिहास के समय को देखते हुए बहुत छोटा है। (पृष्ठ १५)

मानव चेतना बाह्य जगत की वस्तुगत सत्ता को ठीक-ठीक नहीं समझती, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि वह जादू-टोने से, जंतर-मंतर सेऱ्या आगे चलकर योग-बल से।-उसे इच्छानुसार बदल लेगा। (पृष्ठ २२)
मातृसत्ताक गोत्रों में किसी व्यक्ति की अपनी वस्तुएँ उसके न रहने पर उसके मामा, भांजे और भाई पाते हैं। उसकी अपनी संतान उन्हें नहीं पाती। नारी की वारिस उसकी अपनी संतान, उसकी बहने और उसकी बहनों की सन्तान होती है। इस तरह गोत्र की उत्पत्ति गोत्र में ही रहती है। मातृसत्ताक विरासत का यह ढंग बहुत दिनों तक प्राचीन मिस्त्र में चलता रहा जहाँ राज परिवार में बहन-भाई इसलिए शादी करते थे कि अपने गोत्र की सम्पत्ति बाहर न जाय।(पृष्ठ २३)
इस संस्कृति के विनाश का श्रेय यूरोप की ``सभ्यता`` को है। अमरीकी आदिवासियों के विनाश का इतिहास अच्छी तरह प्रकट करता है कि यूरोप के लुटेरे वहाँ किस तरह की सभ्यता फैलाने गये थे। इसमें सन्देह नहीं कि यूरोप निवासी वहाँ न पहुँचते तो पेरू और मेक्सिको के लोग सभ्यता की अगल मंजिलों की तरफ बढ़ते। फॉस्टर ने ठीक लिखा है कि इनमें शासक वर्ग और राज्यसत्ता के निर्माण के लक्षण मिलते हैं। अज्तेक और इंका लोगों ने दूसरे कबीलों को जीत कर अपना राज्य-विस्तार किया था और उन कबीलों से दास, सैनिक, नरमेध के लिए बलि प्राप्त करते थे। फॉस्टर ने लिखा है, ``जब स्पेन के लोग अमरीका पहुँचें, तब दिखता है कि इंका और अज्तेक लोग वैसे ही समाज का विकास करने में लगे हुए थे, जैसे प्राचीन ग्रीस और रोम के लोग।`` इससे सिद्ध होता है कि सामाजिक विकास के नियम अमरीकी आदिवासियों पर वैसे ही लागू होते हैं जैसे यूरोप के ``सभ्य आर्यों`` पर। (पृष्ठ ३२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी पांचवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Thursday 21 August, 2008

मानव सभ्यता का विकास -4

यह वर्ण-व्यवस्था मानव समाज के भावी विकास के लिए आवश्यक थी। इससे एक वर्ग ऐसा बना जो अवकाश-भोगी था और अपना समय गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण आदि के विकास के लिए दे सकता था। वर्ण-व्यवस्था के कारण धर्म शास्त्र, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का विभाजन हुआ। ऋग्वेद में यह विभाजन नहीं है, बीजरूप में भले विद्यमान हो। भरत का नाट्यशास्त्र, कालिदास के नाटक, कपिलकणाद के दर्शन, पाणिनि का व्याकरण, आर्यभट्ट का गणित इस वर्गभेद और संपत्तिगत विभाजन से ही संभव हुए। आज वर्ण-व्यवस्था को अन्यायपूर्ण ठहराना सही है लेकिन अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्यण के समय उसे अन्यायपूर्ण ठहराना निरर्थक है, क्योंकि वह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य थी। ऐंगेल्स ने प्राचीन युग में दास-प्रथा की आलोचना करने वालों से ``ऐं टीडूयरिंग`` में कहा है, यदि यूनान में दास-प्रथा न होती तो यूरोप में सोशलिज्म भी न आता। इसी तरह भारत और विश्व के भावी विकास के लिए वर्ण-व्यवस्था आवश्यक थी। आज हम यह न मानते हैं कि ब्राह्यण और क्षत्रिय वर्गहितों से परे ईश्वर के अंश हैं, न हम यहीं मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और मानव-सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण देन न थी। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है, सभ्यता की प्रगति के साथ दुर्गति का भी एक अंश जुड़ा रहता है, उसी के अनुकूल यहाँ भी यह प्रगति समाज के लिए बाध्य करके ही हुई। स्त्रियों की शिक्षा और सार्वजनिक कार्यों से दूर रखने के लिए कड़ी व्यवस्था की गयी और शूद्र को यथाकामवध्य: कहा गया। (पृष्ठ ५७-५८)
डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल ने पहले महायुद्ध के बाद अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ ``हिन्दू राज्यतंत्र`` लिखा था। अंग्रेज शासक और उनके समर्थक इतिहासकार भारतवासियों को यह कहकर नीचा दिखाते थे कि भारत और एशिया के लोग सदा से निरंकुश राजतन्त्र के आदी रहे हैं। जनतंत्र का उद्भव यूनान में हुआ और इंग्लैण्ड में उसका विकास हुआ। भारतवासियों को जनतंत्र की शिक्षा देने का श्रेय अंग्रेजों को है। डॉ. जायसवाल ने भारत के प्राचीन गणराज्यों का अध्ययन करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जनतंत्र का उद्भव यहाँ बहुत पहले हो चुका था, इसलिए अंग्रेजों का यह आरोप कि यहाँ के लोग कभी जनतंत्र से परिचित नहीं रहे झूठा है। हम जनतंत्र दिखाने का दावा दंभ मात्र है। डॉ. जायवाल ने जो सामग्री यहाँ एकत्र की, उससे एक बीते युग की जानकारी बढ़ी। उन्होंने न केवल जनतंत्र वरन् भारतीय राज्यतंत्र के अन्य रूपों के बारे में भी यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य दिये। उनका यह दावा कि प्राचीन गण राज्यों में जनतांत्रिक व्यवस्था थी, बिल्कुल सहीं है। सत्ता जनता से भिन्न किसी शासक वर्ग के हाथ में न थी। सैन्य शक्ति जनता से भिन्न कोई अलग सशस्त्र दल न थी जो शासक वर्ग की आज्ञापालन के लिए हो। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि यूरोप के प्राचीन समाजों में जनतांत्रिक व्यवस्था का विकास हुआ था तो यह विकास भारत में भी हो चुका था। इसलिए अंग्रेजों का दावा झूठा था, विशेषकर जब उनका पूंजीवादी जनतंत्र मजदूरों के शोषण और भारत जैसे उपनिवेशों की लूट के लिए था। (पृष्ठ ६०)
छठीं शताब्दी ई. पू. में बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उत्तर भारत में सोलह महा-जनपद थे। डॉ. बी.सी. लॉ के अनुसार ये स्वायत्त शासन वाले जन थे। अंग राज्य आज के भागलपुर के पास गंगा नदी के किनारे था और चम्पा नगर उसकी राजधानी था। अंग और काशी के राज्यों में स्पर्धा चलती थी। कोसल राज्य की सीमाएँ आज के अवध से मिलती-जुलती थीं। कोसल ने काशी को जीतकर उसे अपने राज्य में मिला लिया था। बाद को कपिलवस्तु के शाक्यों पर भी कोसल का आधिपत्य हो गया था। कोसल के राजा प्रसेनजित और मगध के राजा अजातशत्रु में लम्बा संघर्ष चला। यह दिलचस्प बात है कि कोसल का राजा प्रसेनजित गौतम बुद्ध का प्रशंसक था। वज्जि (वृजि) संघ में विदेह, लिच्छवि, वज्जि आदि अनेक गण शामिल थे। कोसल से लिच्छवियों की मैत्री थी। बौद्ध काल में विभिन्न गण अनेक संघ बनाने लगे थे। आगे चलकर उनके परस्पर मिलने और मिलकर एक जाति (नैशनैलिटी) का रूप लेने में यह कार्य सहायक हुआ। मल्लों के मुख्य नगर पावा और कुशीनारा थै। चेदिजन आज के बुन्देलखण्ड में रहता था। वत्सजन का मुख्य नगर जमुना के किनारे कोशाम्बी था। गुरूजन का मुख्य नगर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ था और पञ्चाल बदायूँ और फर्रूखाबाद के आसपास के प्रदेश में रहते थे। मत्स्य प्रदेश में आज के अलवर, भरतपुर और जयपुर शामिल थे। शूरसेन जन की राजधानी मधुरा या मथुरा थी। अवन्ति जन का प्रदेश वर्तमान मालवा था और उज्जयिनी उनकी प्रमुख नगरी थी। इन प्राचीन जनों के प्रदेश की सीमाएँ महत्वपूर्ण हैं। डॉ. लॉ के आधार पर दिये हुए उपर्युक्त विवरण से मालूम होता है कि बौद्ध ग्रंथों में जिन राज्यों का उल्लेख हैं, वे अधिकतर वर्तमान हिंदी-भाषी प्रदेश के अन्तर्गत है। वैदिक समाज की चर्चा करते हुए हम देख चुके हैं कि मुख्य वैदिक जन इसी प्रदेश के थे। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित जनों, गणों या राज्यों के प्रदेश पर ध्यान देने से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इनमें अधिकांश और विशेषकर शक्तिशाली मगध और कोसल के राज्य हिंदी-भाषी प्रदेश के अंतर्गत थे। इस तरह वैदिक और बौद्ध साहित्य द्वारा जितना क्रमबद्ध प्राचीन इतिहास हमें हिन्दी-भाषी जाति का मिलता है, उतना भारत की अन्य जातियों का नहीं। इन प्राचीन जनों और राज्यों में परस्पर संपर्क था, वे एक-दूसरे से मिलती-जुलती भाषाएँ बोलते थे, विभिन्न गणों ने मिलकर संघ बनाये थे, मगध सम्राटों के राज्यों में ये प्राय: सभी शामिल थे, ये तथ्य हिन्दी-भाषी जाति के निर्माण में सहायक हुए। लेकिन हिन्दी-भाषी जाति का गठन बाद का है। इससे पहले वे छोटी-छोटी जातियाँ बनीं जो आज के विशाल हिन्दी-भाषी प्रदेश के विभिन्न इलाकों में बहुत कुछ सुरक्षित हैं। इन्हें हम लोग जनपद कहते हैं जैसे ब्रज, अवध, बुंदेलखंड के जनपद। ये जनपद उन्हीं क्षेत्रों में बने जहाँ प्राचीन शूरसेन, कोसल, चेदि आदि जन रहते थे। प्राचीन जन रक्तसंबंध पर आधिारित थे लेकिन बाद के जनपदों में जनता के संगठन का आधार वर्ण-धर्म था। वर्णों के संगठन में प्राचीन रक्तसंबंधों, गोत्रों आदि की रक्षा की गई, लेकिन ये संबंध अब मुख्य न थे। मुख्य संबंध श्रम के विभाजन के अनुसार आर्थिक थे। अब भूमि पर भूस्वामियों का शासन था और किसानों का काम उन्हें अपने श्रमफल से शासक और शोषक के रूप मे जीवित रखना था। (पृष्ठ ६६-६७)
मार्क्स या ऐंगेल्स की किसी स्थापना को आँख मूँद कर दोहराने के पहले इस सम्बन्ध में जो सामग्री सामने आये, उस पर ध्यान देना मार्क्सवादी पद्धति के ज्यादा अनुकूल होगा। (पृष्ठ ६२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी चौथी कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Monday 4 August, 2008

मानव सभ्यता का विकास -3



एथेन्स में दासों की संख्या स्वाधीन यूनानियों से बहुत ज्यादा थी। इनके श्रम के बल पर ही यूनान की सभ्यता का प्रकाश फैला था। एथेंस के कारखानों में ये दास ही काम करते थे। इसलिीए यह स्वाभाविक था कि व्यापारी और औद्योगिक वर्ग उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए शक्ति का उपयोग करें। एथेंस में फी नागरिक के पीछे अठारह गुलाम थे लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हर नागरिक के पास गुलाम थे और समाज से धनी-निर्धन का तीव्र वर्ग-भेद मिट गया था। ऐंगेल्स ने लिखा है, ``व्यापार और उद्योगधन्धों की प्रगति से थोड़े से लोगों में सम्पत्ति एकत्र और केंद्रित हुई। आम स्वाधीन नागरिक गरीब थे। उनके सामने दो ही रास्ते थे - या तो वे दस्तकारी में दास श्रमिकों से होड़ करें जिसे घृणित और त्याज्य समझा जाता था, इसके सिवा जिसमें सफलता की आशा भी बहुत कम थी - या पूरी तरह मुफलिस हो जाएँ। उस समय की परिस्थितियों में दूसरी बात ही हुई।`` इस मुफलिसी ने ही एथेन्स को तबाह किया। (पृष्ठ ४१-४२)
खेतों के काम करने वालो दासों को गरम लोहे से दाग दिया जाता था जिससे कि वे सदा पहचाने जा सके कि किस मालिक के हैं। रात को भेड़-बकरियों की तरह वे बाड़ों में बन्द कर दिये जाते थे और भूखे जानवरों की तरह सबरे खेतों में हाँक दिये जाते थे। युद्ध से गुलामों की कमी पूरी न होती थी तो गुलाम उड़ाने वाले डाकू उन्हें जुटाते थे। वर्षों तक ईजिप्टियन और पूर्वी भूमध्य सागर से ये डाकू लोगों को पकड़ लाते थे और उन्हें देलोस के बाजार में बेच देते थे। वहाँ से रोमन व्यापारी उन्हें इटली ले आते थे। (पृष्ठ ४३)
यह अत्याचार न सह सकने पर दासों ने कई बार विद्रोह किया। सिसिली में साठ हजार विद्रोही दासों ने अपने मालिकों को मार कर शहरों पर कब्जा कर लिया और अपना राज्य स्थापित कर लिया। रोमन फौज कई साल के संघर्ष के बाद ही उन्हें दबा पायी। इस विद्रोह के समय छोटे खेतों के मालिक, स्वाधीन किसान भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने धनी भूस्वामियों के महलों में आग लगा दी। ``इसलिए दासों के विद्रोह से न केवल दासों की वरन् स्वाधीन लोगों में निर्धन किसान वर्ग की भी घृणा प्रकट हुई।`` (ब्रेस्टेड)। धनी और निर्धन का भेद इतना तीव्र हो गया था कि दोनों वर्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गये थे। ``इटली दो बड़े सामाजिक वर्गों में बँट गया था।`` जो एक-दूसरे के खतरनाक ढंग से विरोधी था।`` (उप.)। एक और भूपतियों का वर्ग था जिनके पास दास और भूमि थी, दूसरी ओर दास और वे गरीब किसान थे जो भूपतियों की नीति से तबाह हो रहे थे। रोमन सामन्तों की युद्ध-नीति से साधारण जनता खुशहाल न हुई, वरन् और तबाह हुई। दूसरों को लूट कर वे जो सम्पदा लाते थे, उससे साधारण जनता को लाभ न था। युद्ध से लौटने पर रोमन सैनिकों को अपना खेत सुरक्षित न मिलता था। कर्ज के न चुका सकने पर अक्सर वह भूस्वामी के पास पहुँच जाता था। अगर खेत बचा भी रहा तो वह गुलामों द्वारा की जाने वाली बड़े पैमाने की खेती का मुकाबला न कर सकता था। बाहर से भी सस्ता अनाज मँगाया जाता था। आगे-पीछे खेत बेच कर किसान सर्वहारा बनकर रोम पहुँच जाता था। रोम का भव्य साम्राज्य उसके स्वाधीन किसानों ने ही कायम किया था। वहीं उससे तबाह हुए। एथेंस की तरह रोम के पतन का आंतरिक कारण ये मुफलिस बने। (पृष्ठ ४३-४४)
सबसे पहले प्रश्न यह है कि क्या वैदिक संस्कृति किसी विशेष प्रदेश की संस्कृति है। प्रदेश का सवाल भी तब उठता है, जब यह सिद्ध हो जाय कि इस संस्कृति के रचने वाले घुमन्तू जीवन न बिताते थे वरन् किसी प्रदेश में बस गये थे। श्री पुलास्कर ने भारत में आर्य बस्तियों की चर्चा करते हुए यह परिणाम निकाला है कि वैदिक ऋचाओं में जिस प्रदेश की चर्चा है, उसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध और राजस्थान के कुछ भाग, उत्तर-पश्छिमी सीमान्त प्रदेश, कश्मीर और सरयू नदी तक का पूर्वी प्रदेश आता है। (``वैदिक युग``)। पश्चिम के कुछ विद्वानों का मत रहा है कि ऋग्वेद का मुख्य क्षेत्र पंजाब है। दूसार और उसके बाद का मत है कि यह प्रदेश सरस्वती नदी के आसपास और अंबाला के दक्षिण का है।
कुछ लोगों का मत भी है कि अधिकांश मंत्र भारत के बाहर ही रचे गये थे। (पृष्ठ ४७)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी दूसरी कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। फोटो प्रदीप कांत के कैमरे से। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

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