Thursday 12 June, 2008

देवेन्द्र कुमार बंगाली का गीत



एक पेड़ चांदनी

एक पेड़ चांदनी
लगाया है आंगने

फूले तो आ जाना
एक फूल मांगने

ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोता है
बिजली शरमा रही
मेरा घर छाया है
तेरे सुहागने

तन कातिक
मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो यह हिसाब
कर लेना बाद में

नदी झील सागर के
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहां-वहां छोड़ना
मुझको पहुंचाया है
तुम तक अनुराग ने

एक पेड़ चांदनी
लगाया है आंगने

फूले तो आ जाना
एक फूल मांगने ।


( देवेन्द्र कुमार बंगाली का यह गीत आज से 20-22 वर्ष पूर्व जब मैंने सुना था, तब यह भी नहीं जानता था कि इस दुबली – पतली काया मे छिपा हुआ गीतकार हमारे समय के कैनवास का सबसे चमकदार रंग है। फिर मुलाकात हुई और गोरखपुर रेलवे कार्यालय में कार्यरत बंगाली जी से मिलने के लालच में, विद्यालय से छूटने के बाद उनकी साइकिल के पास जाकर खड़ा रहता था। जब वे कार्यालय से निकलते और मुझे देखते तो उनके चेहरे पर फैली मुस्कान से, मैं गीतों को झरते हुए महसूस करता। फिर साइकिल हाथ में पकड़े-पकड़े पैदल चलते-चलते उनके साथ उनके घर तक की यात्रा होती। इस यात्रा के दौरान ही पहली बार जाना कविता-गीत, प्रतीक-विधान, रंगों के अर्थ और नाजुक की ताकत और न जाने कितना ज्ञान उनके मुँह से झरता और मैं बटोरता – बटोरता उनके घर पहुँचता। मुझे नहीं याद है कि कभी बिना चाय पिए उनके घर से लौटा हूँ। एक तरफ मैं डिप्लोमा का छात्र और वे हिन्दी नवगीत के आधार स्तम्भ। फिर भी उनकी सहृदयता और प्रेम ने मेरे ऊपर जादू कर दिया था। उनसे आखिरी मुलाकात जब हुई तो वे रेलवे अस्पताल में थे। डाक्टरों ने बोलने से मनाकर दिया था। मुझे देखते ही उनकी आँखों ने बहुत कुछ कहना शुरू कर दिया। पहली बार अनुभव हुआ कि जुबान से ज्यादा आँखें बोलतीं हैं। मेरे हाथ को पकड़े रहे, जैसे वे अभी जाना नहीं चाहता हैं। अभी बहुत काम बाकी है। खैर उसके बाद मैं राजस्थान नैकरी पर लौट गया। बाद में डा. वशिष्ठ अनूप से सूचना मिली वे नहीं रहे। उनके हाथ की गरमी अभी भी सुरक्षित है मेरे हाथों में। मैंने साहित्य में जो कुछ जाना समझा है, उसका बहुत बड़ी हिस्सा उनका ही दिया हुआ है। उनकी किताब का शीर्षक था - बहस जरूरी है । मैंने इसे अपने जीवन का सूत्र बना रखा। सिर्फ याद .......शायद श्रद्धांजली भी। - प्रदीप)

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