Monday 30 November, 2009

भाषा की लड़ाई की आड़ में


कांग्रेस को नये नये दैत्य पैदा करने और उनसे खेलने का पुराना शोक है। ये दैत्य पहले तो उसके अपने अंदर की कलह से पैदा होते और उन्हीं से निपटने के काम आते थे। चाहे भिण्डरांवाले हों या बाल ठाकरे। लेकिन इस बार मनसे का नया दैत्य उसने शिवसेना की काट के लिए पैदा किया है। महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में इस कार्ड से कांग्रेस ने शिवसेना को किनारे लगा दिया है। लेकिन हर दैत्य हमेशा अपने मालिक का कहा नहीं मानता। एक दिन वह मालिक से आजाद होने लगता है और तब वह अपने ही मालिक को खाने लगता है। मालिक जब पकड़ में नहीं आता तो वह मालिक के चमचों का शिकार करता है और जब उनसे भी पेट नहीं भरता तो वह निर्दोष जनता का खून बहाने लगता है। इस बार के महाराष्ट्र चुनाव में मनसे की आड़ में कांग्रेस ने शिवसेना को किनारे लगा दिया है। लेकिन राज ठाकरे की म न से अब अपने मास्टर से अलग होने को कसमसा रही है। उसे पता है कि शिवसेना का शेर बूढ़ा हो चुका है और जिस शावक को जंगल का राज सौंपा गया है वह गीदड़ों का दूध पीकर पला है। राज ठाकरे सिर्फ मुंबई में कुछ सीट प्राप्त करने से संतुष्ट होने वाले नहीं है। उन्हें महाराष्ट्र की सत्ता चाहिये। इसके लिए वह वे सारे हथकण्डे अपनायेंगे जो कभी शिवसेना ने अपनाये थे। पहला ट्रेलर दिखाया जा चुका है। पूरी फिल्म दिखाई जाना बाकी है। जिस समय महाराष्ट्र निर्माण सेना के नव निर्वाचित बांके अबु आजमी को हिन्दी में शपथ लेने से रोकने के लिए उनका माइक तोड़ रहे थे, उन पर प्रहार कर रहे थे तब शिवसेना और भाजपा चुप थी। इस चुप्पी ने खेल को थोड़ा और अधिक दिलचस्प बना दिया है। भाजपा और शिवसेना कांग्रेस के खेल को जानती है। कांग्रेस को एक न एक दिन राज ठाकरे से अपने हाथ खींचना ही पड़ेंगे और उस दिन राज ठाकरे को अपने लिए नये सहोदरों की जरूरत होगी। भाजपा ने संघ के फासिस्ट सोच से धैर्य का पाठ तो पढ़ा ही है।

राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नव निर्वाचित बाहुबलियों की हरकत ने हिन्दी भाषा समाज के स्वाभिमान को बहुत आहत किया है। यह सब इस बात से भी आहत हुआ है कि म न से ने अंग्रेजी में शपथ लेने वालों को नहीं रोका। सिर्फ हिन्दी में शपथ लेने का विरोध किया। आहत स्वाभिमान हिन्दी क्षेत्र में भी उपद्रव की राजनीति को जन्म देगा। छुटपुट घटनाएं प्रतिक्रिया स्वरूप उत्तरप्रदेश में हुई भी हैं। लेकिन भाषा की राजनीति की मूल गड़बड़ कहां है, इस पर आज भी कोई बात करने को तैयार नहीं है, और अगर बात कर भी रहा है तो उसको सुधारने को कोई तैयार नहीं है। सोचा जाना चाहिए कि हमेशा हिन्दी का ही विरोध क्यों होता है? हिन्दी की स्थिति स्वयं हिन्दी प्रदेश में कोई बहुत अच्छी नहीं है। हिन्दी प्रदेश में भी हिन्दी का नहीं अंग्रेजी का ही वर्चस्व कायम है। चाहे तमिलनाडु हो, बंगाल हो, पंजाब हो या अब महाराष्ट्र हर जगह हिन्दी का विरोध होता है। छत्तीसगढ़ जब मध्यप्रदेश से अलग हुआ तो उसने भी हिन्दी की जगह छत्तीसगढ़ी को प्रमुखता देने का आग्रह किया। पिछले दिनों तो हिन्दी क्षेत्र के दलितों तक ने यह कहा कि दलितों को अपनी मुक्ति के लिए अंग्रेजी-माता को अपनाना चाहिए। हिन्दी दिवस की जगह अंग्रेजी माता का दिवस मनाया जाना चाहिए। राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दी क्षेत्र का वर्चस्व हिन्दी भाषा के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में एक भय पैदा करता है। हिन्दी उसे एक साम्राज्यवादी-विस्तारवादी-भाषा की तरह नजर आती है, जो मौका मिलते ही उनके अस्तित्व को नष्ट कर देगी। यह भय बहुत हवाई नहीं है। इसके कुछ ठोस कारण है। स्वयं हिन्दी क्षेत्र ने अपने इलाकों की बोलियों को बचाने और विकसित करने के लिए कोई बहुत ठोस कदम नहीं उठाये। मध्यप्रदेश में ही पांच सौ से अधिक जनबोलियां दम तोड़ चुकी है। बोलियों के साथ जुड़ी संस्कृतियों के संरक्षण की कोशिशें भी नाकाफी ही कहीं जायेंगी। और इन सबके मूल में है हिन्दी क्षेत्र की शिक्षा प्रणाली में त्रिभाषा के साथ किया गया व्यवहार। हिन्दी क्षेत्र ने बहुत मक्कारी के साथ तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को अपने यहां लागू कर दिया। उसने अपने क्षेत्र के स्कूलों में किसी प्रांतीय भाषा को सीखने का प्रावाधान पैदा नहीं किया। अगर हिन्दी क्षेत्र चाहता तो वह अपने सारे स्कूलों को बाईस भागों में बांटकर भारत की सारी भाषाये तीसरी भाषा के रूप में पढ़ा सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। आज आपको हिन्दी के ऐसे अनेक विद्वान मिल जायेंगे जो तमिल भाषी या बंगला और मराठी भाषी हों या अन्य किसी भारतीय भाषा के हों, पर क्या हम एक ऐसे विद्वान का नाम पता कर सकते हैं जो मूलतः हिन्दी भाषी हो पर वह किसी अन्य भारतीय भाषा का विद्वान हो? अपने अहंकार से बाहर आये बिना हम महाराष्ट्र विधानसभा में हुई घटना की पुनरावृत्ति को नहीं रोक पाएंगे। समय आ गया है जब प्रदेश की शिक्षा नीति में भाषा के सवाल पर आमूल चूल परिवर्तन किया जाना जरूरी है।

राजेश जोशी

( यह आलेख हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी ने लिखा है, जो पाक्षिक लोकजतन में अंकः इक्कीस, 16 से 30 नवम्बर 2009 में छपा है। जनवादी लेखक संघ, इन्दौर के ब्लाग पर मैंने देखा और चुरा लिया। आप सब पढ़े और चर्चा करें। - प्रदीप मिश्र)

3 comments:

Arun Aditya said...

achchha lekh hai. joshiji ne gambhir sawal uthaye hain.

प्रदीप कांत said...

Arun sahi kah rahe hain.

Lekin bhai churane ki baat to main bhi soch raha tha par soch ki ye achchhi baat nahin hai isliye nahin churaya. Par tumane to chura hi liya.

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

अरूण, प्रदीप कांत, प्रदीप भाई। सिर्फ छोटी टिप्पणीयों से काम नहीं चलेगा, अगर सवाल गंभीर है तो बहस भी गंभीर ही होना चाहिए।
माथापच्ची के लिये जलेस पर एक लेख और लगाया है, पढे और चिरफाड करे।
बहस के इंतजार में...

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