Wednesday 1 September, 2010

‘भाषा की भद्रता’ को मसखरी में बदला जा रहा है



 प्रभु जोशी
जन्म: 12 दिसंबर, 1950 देवास (मध्य प्रदेश) के गाँव राँवा में।
शिक्षा: जीवविज्ञान में स्नातक तथा रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर के उपरांत अंग्रेज़ी साहित्य में भी प्रथम श्रेणी में एम.ए.। अंग्रेज़ी की कविता स्ट्रक्चरल ग्रामर पर विशेष अध्ययन।
कार्यक्षेत्र: पहली कहानी 1973 में धर्मयुग में प्रकाशित। 'किस हाथ से', 'प्रभु जोशी की लंबी कहानियाँ' तथा उत्तम पुरुष' कथा संग्रह प्रकाशित। नई दुनिया के संपादकीय तथा फ़ीचर पृष्ठों का पाँच वर्ष तक संपादन। पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में कहानियों, लेखों का प्रकाशन। चित्रकारी बचपन से। जलरंग में विशेष रुचि।
लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट में आस्ट्रेलिया के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित। गैलरी फॉर केलिफोर्निया (यू.एस.ए.) का जलरंग हेतु थामस मोरान अवार्ड। ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चरी गैलरी, न्यूयार्क के टॉप सेवैंटी में शामिल। भारत भवन का चित्रकला तथा म. प्र. साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए अखिल भारतीय सम्मान। साहित्य के लिए म. प्र. संस्कृति विभाग द्वारा गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप। 
बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ पर केंद्रित रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार। 'इम्पैक्ट ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी' विषय पर किए गए अध्ययन को 'आडियंस रिसर्च विंग' का राष्ट्रीय पुरस्कार।संप्रति: स्वतंत्र लेखन एवं पेंटिंग। पिछले दिनों लगातार जयपुर और मुम्बई में कला प्रदर्शनी आयोजित किया। इनके चित्रों को हिन्दुस्तान तथा विदेश के लोगों ने केवल पसंद किया, बल्कि खरीदा भी। आजकल एक उपन्यास लिख रहे हैं।
संपर्क : prabhu.joshi@gmail.com 

( आज से हिन्दी सप्ताह शुरू हो रहा है। इसे सरकारी औपचारिकता की तरह से मना लिया जाएगा। जैसा हर वर्ष होता है। देश के तमाम सरकारी कार्यालय हिन्दी की डंका पीटेंगे और आर्थिक रूप से खर्चा की सूची नियंत्रक को सौंपकर, अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो जाऐंगे। खैर इस विडम्बना में, प्रभुजोशी जी का एक आलेख हाथ लग गया, जो पिछले दिनों हिन्दी के स्वनाम धन्य वरिष्ठ और गरिष्ठ लेखकों के विवाद के माध्यम से हिन्दी भाषा के वर्तमान और भविष्य पर कुछ जरूरी सवाल खड़ा करता है। इस तरह के सवालों से दो-चार होने की जरूरत देश के हर नागरिक को है। वेसे तो इस विषय पर हिन्दी में खुब लिखा-पढ़ा गया, लेकिन प्रभु जी के विचार अलग हैं। तो आइए कम से कम इस बार के हिन्दी सप्ताह से अपने अन्दर हिन्दी के प्रति एक कशिश जगा लें और दिल खोलकर जिरह करें- प्रदीप मिश्र) 
 
सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिकानया ज्ञानोदयमें प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार मेंसमकालीन स्त्री विमर्शके केन्द्र में चल रहीवैचारिकीपर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ाछिनालसाबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चैंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्तसांस्कृतिक-ठेसनहीं लगनी चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉकका वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है। उत्तर औपनिवेशिक समय ने हमारी भाषा केसांस्कृतिक स्वरूपको इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है किसम्पटही नहीं बैठ पा रही है कि कहाँ, कब क्या और कौन-सा शब्द बात कोहिटबनाने की भूमिका में जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वालेमनोरंजन के कारोबारमें भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है।भीड़ू’, ‘भड़वेऔरकमीनेशब्दनितान्त’ ‘स्वागत योग्यबन गये हैं।इश्क-कमीनेशीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादाहिटसिद्ध होती है। संवादों में गालियाँ संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिएछिनालयाछिनालेंशब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह--बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि जिस विस्मृति के दौर मेंभाषा की भद्रताको मसखरी में बदला जा रहा है, वहाँ ऐसे शब्दों को लेकरबहसहमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुँहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहाँ हमस्लैंगके लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो वहाँ फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियाँ क्यों आती हैं ?



चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन मेंहेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस काअलंकरणबन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखानस्त्री की स्वतंत्रताका प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है।

क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों मेंएकनिष्ठताको स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है किउत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी माँ को दूसरे प्रेमी के लिए काँच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे माँ के एकअन्य पुरूषसे होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एकनई स्त्री की खोजबन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य मेंनिष्ठाएक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री कोमॉरल फोबियासे ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूँगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रमसच का सामना  जिसमें मूलतःसेक्सको लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे को भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे हीपेश्टिचकहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद’  की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सुरक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एकमहामिक्सरकी तरह है, जो सबको फेंट करएकमेककर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है।

समाज में एक नयापारदर्शीपनगढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ीसांस्कृतिक अवसादमें गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बँध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घीभाषा के भदेसपनपर बँधी हुई है। अंतरंग कोबहिरंगबनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछज्ञान के अत्यधिक मारे लोगभाषा कीफ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफकह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।

दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्स्ना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछहिट’  मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए।सूअरके बजायेवराहके प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे,  तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी

लेखक का पताः 4, संवाद नगर, इन्दौर-452001

3 comments:

प्रदीप कांत said...

‘सूअर’ के बजाये ‘वराह’ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे, तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी.

_______शत प्रतिशत सत्य ____

mohan said...

hindi ko bigaad ne walon ko jute maaro..

amanshukla said...

waah pyare mohan.toone baat takai ki kahi hai re..hindi ko koi raaj thakare chahiye.jo sab se pahle akhbar malikon ki phad de...kyonki haraami pan yeh kar rahe hai..kaam karne wale patrakaar nahin..

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