Friday 15 August, 2014





पुस्तक का नाम- बेअदब साँसें
कवि – राहुल वर्मा
मूल्य – 150 रूपए
प्रकाशक – हिन्द यूग्म, 1 जिया सराय, हौज खास, नई दिल्ली -100032



 
बेअदब साँसों में रचा-बसा जीवन राग


इस दौड़ती-भागती जिन्दगी में, ठहर कर सोचने की फुरसत किसी के पास नहीं है। ऐसे में कविता, गीत, ग़ज़ल और साहित्य की बात करना गैर प्रासंगिक है। क्योंकि हम जब भी किसी सृजनात्मक विधा के करीब जाते हैं, तो वह दादी अम्मा की तरह बुलाकर पास बैठा लेती है और कोई न कोई कहानी-किस्सा चिपका देती है। जिसके भाव में हमें मुख्यधारा से निकल कर हाशिए पर ठहरना होता है। इस ठहराव में हमें जो जिंदगी मिलती है, वह जिंदगी का यथार्थ होता है। मित्रों जिंदगी के इस यथार्थ को समझने की तमीज आते ही हम दौड़ती-भागती जिंदगी के मूल्यों में निहित अंधकार दिखाई देने लगता है। यानि हमें एक दृष्टि मिलती है। इस दृष्टि की तलाश में ही हम हमारे समय के अदब के पास जाते हैं, और बहुत कुछ गवांकर भी बादशाह की तरह जिंदगी से मिलते हैं। राहुल वर्मा अपने पहले त्रिवेणी संग्रह बेअदब सांसें के माध्यम से हमें यह सोहबत उपलब्ध करवाते हैं -
शुक्रिया किस तरह करूँ मैं तेरी सोहबत का
कि तूने मेरा साथ, मेरी गुरबत में भी दिया है
और गुरबत फ़कत, पैसों की ही तो नहीं थी।

कवि ने कविता के इस सर्वथा कम प्रचलित विधा त्रिवेणी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम क्यों बनाया इसके तर्क में वे लिखते हैं – आज के मौजूदा दौर में जिन्दगी जितनी तेजी से आगे बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से हमारे पास वक्त की तंगी भी होती जा रही है।.............इस तारतम्य में मेरा परिचय त्रिवेणी विधा से हुआ।यह परिचय इतना गहरा हुआ कि कवि ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम त्रिवेणी को चुन लिया। परिणाम स्वरूप एक सौ बारह पृष्ठों की यह पुस्तक हमारे हाथ में है, जिसका शीर्षक है – बेअदब सांसें। त्रिवेणी का अविष्कार हमारे समय के सूप्रसिद्ध अदीब गुलजार ने किया है। 1972-73 के वर्षों में इस विधा का निर्माण किया और नियमितरूप से उस समय की सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक पत्रिका सारिका में छपने लगे। कमलेश्वर जैसा सम्पादक इस देखन में छोटी लगे पर घाव करे गम्भीर जैसी विधा को पूरा सम्मान दिया। त्रिवेणी में तीन मिसरों में अपनी बात कही जाती है। पहले दो मिसरे अपने-आप में मुकम्मल होते हैं, बिल्कुल किसी शेर की तरह। तीसरा मिसरा या तो पहले दो मिसरों के अर्थ को और व्यापक कर देता है, या फिर एकदम नया और विपरीत अर्थ को जन्म दे देता है। यहाँ पर मात्रा या किसी छेद आदि का कोई निश्चित व्याकरण नहीं होता है। इस तरह से हमारे समय की जरूरत के अनुकूल इस विधा में राहूल वर्मा के इस पुस्तक में शीर्षक त्रिवेणी रचना है -  
पहली आई थी बिना मेरी मर्जी के
आखरी भी बिन बताये आ जायेगी
बड़ी बेअदब होतीं हैं ये सांसे।
मृत्यू को बड़ी सहजता से रेखांकित करती हुई इस रचना में साँसों के माध्यम से बात कही गयी है। इस अनजाने सांस में जानी समझी पूरी जिन्दगी का ताप ज़ज्ब़ है। इन बेअदब साँसों में जीवन के राग का आक्सीजन उफन रहा है। राहुल एक सामान्य मनुष्य की तरह से जिन्दगी को देखते हैं और कवि की तरह अभिव्यक्त होते हैं। उनके रचना सेसार में घर-परिवार, शहर, दर्द, प्रेम, संघर्ष, दिनचर्या, डर, दोस्त तथा निज में रची-बसी सारी संवेदनाएं उपस्थित हैं। उनके यहाँ प्रेम सर्वाधिक है, एक रचना देखें -
कसक-सी, हूक सी उठती है दिलमें, रंज होता है
मेरा ये कामयाब चेहरा, अकेले में बहुत रोया
काश उस दिन मुहब्बत को चुन लिया होता।

वे अपने अंतस को टटोलते हैं और एक रचना प्राप्त कर लेते हैं, जो सीधा-साध उनके निज अनुभवों से निकलती है -
कौन दे जाता है हर रोज इनकी जड़ों को पानी
कौन है जो किसी भी सूरत इन्हें मरने नहीं देता
जख्म ये मेरे अब तक किसकी रसद से जिंदा है।

इन जख्मों की रसद किंचित वे स्मृतियाँ और मानवीय रिश्ते है। इस तरह के रसद ही उनके काव्य कौशल को विशिष्ट बनाते हैं। राहुल के यहाँ रोमांटिक दुनिया का एक ऐसा काल्पनिक संसार है, जहाँ सिर्फ अपने अंदर और अपने से जुड़े चुनिंदे लोग ही शामिल हैं। यह एक ऐसी अनुभूतियों का संग्रह है जिससे हर नौजवान गुजरता है और स्वंय के जीवन में ही सिमट कर सबकुछ पाता-खोता रहता है। ये रचनाऐं नौजवानों को बहुत आकर्षित करेंगी और पाठक को एक ऐसी रोमांटिक दुनिया में ले जाकर छोड़ देगीं। जहाँ प्रेम-मनुहार और शिकवे-शिकायत की गहनता में सहज अध्यात्मिक अनुबंध व्याप्त होते हैं। यहाँ पर सरोकार, समाज और राजनीति का कोई अक्स नहीं है। इस तरह की शैली में यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। हमें पूरी उम्मीद है कि अगले संग्रह में राहूल और भी विकसित हो कर हमारे सामने आऐगे और एक रचनाकार के सरोकारों के छांव में अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाएंगे। फिलहाल शुभकामनाओं के साथ उनकी ही एक रचना के साथ मैं अपनी बात पूरी कर रहा हूँ।

तुम्हारा नाम अब भी सुनते ही
चाह इक आह से गुजरती है
प्यार चुपचाप दर्द सहता है।
 
प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, इन्दौर – 452009 (म.प्र.)

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