याद नहीं आता
जैसे याद नहीं आता
कि कब पहनी थी
अपनी सबसे प्यारी कमीज
आखिरी बार
कि क्या हुआ उसका हश्र
सायकल पोंछने का कपड़ा बनी
छीजती रही मसौता बन
किसी चौके में
कि टंगी हुई है
किसी काक भगोड़े की खपच्चियों पर
याद यह भी नहीं आता
कि पसीने में सनी कमाज की तरह
कई काम भी गर्द फांक रहे हैं
किसी कोने में।
(लगभग दो माह की अनुपस्थिती के बाद इस कविता के साथ हाजिर हूँ। आप लब की शिकायतें और सजा सिर माथे। आईए फिर शुरू करें लफ्फाजी। देवेन्द्र रिणवा हमारे समय के संभावनाशील युवा कवि हैं। इनकी कविताओं में जीवन के छोटे-छोटे प्रतीक बड़ी अर्थवत्ता के साथ रेखांकित होते हैं। कथाबिंब जनवरी-मार्च 2008 के अंक में प्रकाशित हुई है। -प्रदीप मिश्र)