Saturday 4 October, 2014

मंगलयान की मंगलमय यात्रा
                                                                  -प्रदीप मिश्र

भारत नें मंगलयान को सफलता पूर्वक प्रक्षेपित करके पूरी दुनिया को अपनी वैज्ञानिक क्षमता के सामने हतप्रभ कर दिया है। आज हम इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले मंगल ग्रह का एक संक्षिप्त परिचय जान लेते हैं। जिसके बारे संस्कृत शास्त्रों में कहा गया है।
धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम् |
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम्||
अर्थात
धरती के गर्भ से जन्म लेनेवाले,
जो विद्युत के समान कांन्तिवान हैं,
जो युवा हैं और हाथ में भाला लिए हुए हैं
ऐसे मंगल को मैं प्रणाम करता हूँ।
मंगल ग्रह के बारे में इस तरह के बहुत सारे श्लोक भारतीय जीवन के दैनंदिनी में प्रचलित हैं। भारतीय जनमानस में मंगल ग्रह वैदिक काल से ही चिह्नित है। सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में मंगल चिर परिचित है।
भारतीय मंगलयान यात्रा पर चर्चा करने से पहले आइए मंगल के बारे में पूर्व में हुए खोजों, अभियानों और तथ्यों पर एक नजर डाल लेते हैं। खगोल अध्ययनों के अनुसार मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखाई देती है, जिस वजह से इसे "लाल ग्रह" के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल में ग्रह दो प्रकार के होते हैं – एक "स्थलीय ग्रह" जिनमें ज़मीन होती है और दूसरे "गैसीय ग्रह" जिनमें अधिकतर गैस ही गैस होती है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह की बनावट पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और ध्रुवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊँचा पर्वत, ओलम्पस मोन्स मंगल पर ही स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र भी पृथ्वी के समान हैं। यहाँ पर गुरूत्वाकर्षण बल 3.71 मीटर प्रति सेकण्ड स्क्वायर है। इसके सतह का क्षेत्रफल 14.48 करोड़ किलोमीटर स्केवायर है। इसकी त्रिच्या 3390 किलोमीटर है। सूर्य से इसकी दूरी लगभग 22.79 करोड़ किलोमीटर है तथा पृथ्वी से यह लगभग 65 करोड़ किलोमीटर है। आज तक के प्रमुख मंगल अभियानों को संक्षिप्त रूप से देखें तो-
मंगल ग्रह की पहली सफल उड़ान १४-१५ जुलाई १९६५ को नासा द्वारा भेजी गई मेरिनर ४ थी। १४ नवम्बर १९७१ को मेरिनर ९, पहला अंतरिक्ष यान बना जिसने परिक्रमा के लिए मंगल की कक्षा में प्रवेश किया। दो सोवियत यान, २७ नवम्बर 1971 को मार्स २ और ३ दिसम्बर 1971 को मार्स ३ ने मंगल की सतह पर सर्वप्रथम सफलतापूर्वक कदम रखा, परन्तु उतरने के चंद सेकंडों के भीतर ही दोनों का संचार बंद हो गए। १९७५ में नासा ने वाइकिंग कार्यक्रम की शुरूआत की, जिसमें दो कक्षीय यान शामिल थे, प्रत्येक में एक एक लैंडर थे और दोनों लैंडर १९७६ में सफलतापूर्वक मंगल का धरती पर उतरे थे। वाइकिंग १ छः वर्ष के लिए औरवाइकिंग २ तीन वर्ष के लिए परिचालक बने रहे। वाइकिंग लैंडरों ने मंगल के जीवंत परिदृश्य प्रसारित किये जिनके चित्र आज भी वैज्ञानिकों को मंगल ग्रह के बारे में शोध हेतु सहायता प्रदान कर रहे हैं।
मंगल पर प्रक्षेपित अंतरिक्ष यानों में ज्यादातर या तो दो-तिहाई अभियान पूरा होने या फिर शुरुआत में ही किसी ना किसी तरीके से विफल हो गए। अभियान की विफलता के लिए आमतौर पर तकनीकी समस्याओं को जिम्मेदार माना जाता है । 

 इतनी सारी असफलाताओं के बाद धरती पर बैठे वैज्ञानिकों को यह तो समझ में आ गया कि मंगल और धरती में बहुत समानता है और वहाँ पर भी जीवन होने की पूरी संभावना है। साथ ही यह भी प्रमाणित हुआ कि यह कार्य अत्यंत कठिन है। जिसमें हाथ डालना यानि असफलता को आमंत्रित करना है। लेकिन भारत सरकार को अपने वैज्ञानिकों पर पूरा भरोसा था अतः 3 अगस्त 2012 को (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र) जिसे संक्षिप्त में इसरो कहते है की मंगलयान परियोजना को स्वीकृति दे दी गयी। इसके लिये 2011-12 के बजट में ही धन का आवंटन भी किया गया । भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिक अपने लक्ष्य को साधने में लग गए। उनके सामने एक चुनौती तो मंगल पर पहुँचने की तकनीकी जटिलता की थी ही, साथ ही उनको यह भी अहसास था कि वे एक विकासशील देश के नागरिक हैं। जहाँ आर्थिक सीमाएं भी हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने देशी तकनीक विकसित करके और गुरूत्वाकर्ष बल का उपयोग करके अपेक्षाकृत कम ईंधन के खर्च पर चलने वाली योजना का निर्माण किया। इसे कहना जितना आसान है, वास्तव में घटित करना उतना ही कठिन। आखिर वह दिन भी आया जब भारतीय वैज्ञानिकों ने मंगलयान के 300 दिन का यात्रा की घोषणा कर दी।
5 नवंबर 2013 को मंगलवार के दिन में दोपहर भारतीय समय अनुसार 2:38 पर श्रीहरिकोटा (आंध्र प्रदेश) के सतीश धवन अन्तरिक्ष केन्द्र से ध्रुवीय प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी-25 द्वारा मंगलयान को प्रक्षेपित किया गया। 3:20 अपराह्न के निर्धारित समय पर पीएसएलवी-सी 25 के चौथे चरण से अलग होने के उपरांत यान पृथ्वी की कक्षा में पहुँच गया और इसके सोलर पैनलों और डिश आकार के एंटीना ने कामयाबी से काम करना शुरू कर दिया था।
5 नवम्बर से 01 दिसम्बर 2013 तक यह पृथ्वी की कक्षा में घूमता रहा तथा कक्षा (ऑर्बिट) सामंजस्य से जुड़े 6 महत्वपूर्ण प्रचालन या ऑपरेशनों को पूरा किया। इसरो की योजना पृथ्वी की गुरुत्वीय क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करके मंगलयान को पलायन वेग देने की थी। यह काफी धैर्य का काम था और इसे छह किस्तों में 01 दिसम्बर 2013 तक सफलता पूर्वक पूरा कर लिया गया। आइए इस क्रम को थोड़ा विस्तार से जाने।
7 नवंबर 2013 को भारतीय समयानुसार एक बजकर 17 मिनट पर मंगलयान की कक्षा को ऊँचा किया गया। इसके लिए बैंगलुरू के पी‍न्‍या स्थित इसरो के अंतरिक्ष यान नियंत्रण केंद्र से अंतरिक्ष यान के 440 न्‍यूटन लिक्विड इंजन को 416 सेकेंडों तक चलाया गया जिसके परिणामस्वरूप पृथ्‍वी से मंगलयान का शिरोबिन्‍दु (पृथ्‍वी से अधिकतम दूरी पर‍ स्थित बिन्‍दु) 28,825 किलोमीटर तक ऊँचा हो गया, जबकि पृथ्‍वी से उसका निकटतम बिन्‍दु 252 किलोमीटर हो गया।
11 नवंबर 2013 को नियोजित चौथे चरण में शिरोबिन्‍दु को 130 मीटर प्रति सेकंड की गति देकर लगभग 1 लाख किलोमीटर तक ऊँचा करने की योजना थी, किंतु लिक्विड इंजिन में खराबी आ गई। परिणामतः इसे मात्र 35 मीटर प्रति सेकंड की गति देकर 71,623 से 78,276 किलोमीटर ही किया जा सका। इस चरण को पूरा करने के लिए एक पूरक प्रक्रिया 12 नवम्बर को सुबह 0500 बजे पुनः दोहराई गई। और 12 नवंबर 2013 को एक बार फिर मंगलवार मंगलयान के लिए मंगलमय सिद्ध हुआ। सुबह 05 बजकर 03 मिनट पर 303.8 सेकंड तक इंजन दागकर यान को 78,276 से 118,642 किलोमीटर शिरोबिन्‍दु की कक्षा पर सफलतापूर्वक पहुंचा दिया गया।
16 नवम्बर 2013 को पांचवीं और अंतिम प्रक्रिया में सुबह 01:27 पर 243.5 सेकंड तक इंजन चालूकर के यान को 1,92,874 किलोमीटर के शिरोबिंदु तक उठा दिया। इस प्रकार यह चरण भी पूरा हुआ।
30 नवंबर की रात एवं 1 दिसंबर की मध्यरात्रि को 00:49 पर मंगलयान को मार्स ट्रांसफर ट्रेजेक्‍टरी में प्रविष्‍ट करा दिया गया, इस प्रक्रिया को ट्रांस मार्स इंजेक्शन (टीएमआई) ऑपरेशन का नाम दिया गया।
यह इसकी 20 करोड़ किलोमीटर से ज्यादा लम्बी यात्रा शुरूआत थी जिसमें नौ महीने से भी ज्यादा का समय लगना था और वैज्ञानिकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसके अन्तिम चरण में यान को बिल्कुल सटीक तौर पर धीमा करने की थी ताकि मंगल ग्रह अपने छोटे गुरुत्व बल के जरिये इसे अपने उपग्रह के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो जाये। इसरो प्रमुख डॉ० के राधाकृष्णन ने कहा कि मंगल अभियान की परीक्षा में हम पास हुए या फेल, यह 24 सितम्बर को ही पता चलेगा।
22 सितम्बर 2014 को एमओएम या मार्स आर्बिटल मिशन को मंगलयान ने मंगल के गुरुत्वीय क्षेत्र में प्रवेश किया । लगभग 300 दिन की संपूर्ण यात्रा के दौरान सुषुप्ति में पड़े रहने के बाद मंगलयान के मुख्य इंजन 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर को 4 सेकंड्स तक चलाकर अंतिम परीक्षण एवं अंतिम पथ संशोधन का कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया गया। और भारतीय वैज्ञानिक आस्वस्त हो गए की अब सफलता उनका कदम चूमनेवाली है।
24 सितम्बर 2014 की  सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर (एलएएम) यान को मंगल की कक्षा में प्रवेश कराने वाले थ्रस्टर्स के साथ सक्रिय किया गया जिससे यान की गति को 22.1 किमी प्रति सेकंड से घटा कर 4.4 किमी प्रति सेकंड करके मंगल ग्रह की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रविष्ट कर दिया गया । जिस समय यान मंगल की कक्षा में प्रविष्ट हुआ उस समय पृथ्वी तक इसके संकेतों को पहुंचने में लगभग 12 मिनट 28 सेकंड का समय लगा। ये संकेत नासा के कैनबरा और गोल्डस्टोन स्थित डीप स्पेस नेटवर्क स्टेशनों ने ग्रहण किए और आंकड़े रीयल टाइम पर यहां इसरो स्टेशन पर भेजे गए।
यह कार्य संपन्न होते ही सभी वैज्ञानिक खुशी से झूम उठे। भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने पहले ही प्रयास में अपना मंगल अभियान पूरा कर लिया। इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री बैंगलोर के इसरो केंद्र में मौजूद रहे। उनकी मौजूदगी और संबल ने भी भारतीय वैज्ञानिकों को उत्साह से भर दिया था और वे इस इस असम्भव जैसे लगनेवाले कार्य को सम्भव कर दिखाए। इसरो के वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए माननीय प्रधानमंत्री जी ने कहा, "आज इतिहास बना है। हमने लगभग असंभव कर दिखाया है। मैं सभी भारतीयों और इसरो वैज्ञानिकों को मुबारक देता हूं। कम साधनों के बावजूद ये कामयाबी वैज्ञानिकों के पुरुषार्थ के कारण मिली है।"
अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी ट्विटर पर इसरो को बधाई दी है.
भारत ने इस मिशन पर करीब 450 करोड़ रुपए खर्च किए है, जो बाकी देशों के अभियानों की तुलना में सबसे बहुत ज्यादा कम है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने सही तुलना की है कि आज हमें आटो से यात्रा करने में 10 रूपए प्रति किलोमीटर खर्च करने पड़ते हैं, जबकि मंगलयान पर प्रति किलोमीटर यात्रा का खर्च सिर्फ 7 रूपए आया।
अब सवाल उठता है कि इस अभियान से क्या प्राप्त होगा।
अगर सब ठीक रहा तो मंगलयान छह महीनों तक मंगल ग्रह के वातावरण का अध्ययन करेगा।
ये मीथेन गैस का पता लगाएगा, साथ ही रहस्य बने हुए ब्रह्मांड के उस सवाल का भी पता लगाएगा कि क्या हम इस ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस मिशन से मंगल ग्रह के बारे में ढेरों अन्य जानकारियां हासिल होंगी ।  यह भी  पता चल पाएगा कि क्या  इस ग्रह के गर्भ में खनिज छिपे हैं, क्या यहां बैक्टीरिया का भी वास है।
कक्षा में स्थापित होने के कुछ ही घंटों में यान ने मंगल ग्रह की ली गई तस्वीरें भेजनी शुरू कर दी है। एक संयोग ही कहिए कि इस मंगल यात्रा में मंगलवार दिन का भी योगदान रहा। यानि मंगलवार ने मंगलयान की यात्रा को मंगलमय कर दिया।


प्रदीप मिश्र
दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा नगर, पोस्ट- सुदामानगर, इन्दौर – 452009 (म.प्र.)

मो. 09425314126

Friday 15 August, 2014




पुस्तक: क़िस्साग़ोई करती आंखें (अगस्त 2012)
कवि:   प्रदीप कांत
मूल्य   चालीस रूपए
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, एफ-77, करतारपुरा
औद्योगिक क्षेत्र, बाईसगोदाम, जयपुर

क़िस्साग़ोई करती आँखों में समय की करवटें दर्ज हैं                                                                    
      किसी भी किताब को हाथ में लेते हुए, सबसे पहले एक हरा-भरा पेड़ दिखाई देता है। किताब के हर पृष्ठ पर पेड़ की टहनियों के छाप होते हैं और दिमाग में एक सवाल उपजता है कि क्या यह किताब उस पेड़ से ज्यादा उपयोगी है, जिसको काट कर इसके पन्नों का निर्माण किया गया होगा ? यदि किताब में संकलित रचनाएं आश्वस्त करती हैं कि हाँ हमारी सृजनात्मकता उस पेड़ के समकक्ष है, तो किताब एक सार्थक कृति के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। समीक्षा के इस सर्वथा नए औजार को रेखांकित करना हमारे इस तकनीकी युग की पहली जरूरत है। अन्यथा विकास के इस अंधे दौड़ में हम सबकुछ मशीनों में बदलने में लगे हैं और प्रकृति तथा धरती का चीत्कार गुंजायमान है। इन विचारों की छाया में जब हम प्रदीपकांत की पहली कृति "क़िस्साग़ोई करती आँखें" को पढ़ते हैं, तो जिस पेड़ की कुर्बानी ने इसको स्वरूप दिया है वह खिलखिलाता हुआ दिखाई देता है। "फूल, पत्ती, पेड़, बगीचे/अब सारा वन बस्तों में  सिवा छाँव की ममता के/सारे पल छिन बस्तों में।" प्रदीप यहाँ पर कटाक्ष कर रहे हैं कि आज की शिक्षा व्यवस्था में छपी किताबें ज्ञानात्मक विवेक तो दूर अपनी एवज़ में कटे पेड़ों की ममतामयी छांव को समकक्ष भी कुछ नहीं दे पा रहीं है। इस 80 पृष्ठों के किताब में कुल 67 ग़ज़लें संकलित हैं जो लगभग दो दशक की रचनायात्रा में लिखी गयी रचनाऐं हैं। अतः इन में हमारे समय की सारी करवटें और सिलवटें दर्ज हैं। जब हम पढ़ते हैं - "लोग  बेसुरे समझाते हैं / नवयुग का सुर-ताल नया है, " तो हमारे समय का यथार्थ नग्नरूप में सामने खड़ा हो जाता है।  

       रचनाप्रक्रिया में सबसे पहला सवाल उठता है - रचना क्यों ? इसके जवाब में रचनाकार अपनी भाषा, कहन, विचार और पक्षधरता की तलाश करता है। इस तलाश में ही उसकी भेंट सर्वे भवन्तु सुखिनः से होती है और तुलसी के शब्दों में स्वान्तः सुखाय का आस्वाद मिलता है। यहाँ पर स्पष्ट कर लेना चाहिए कि यह स्वान्तः सर्वे भवन्तु सुखिनः से प्राप्त होता है जिसमें समाज के अंतिम मनुष्य का सुख भी शामिल है, तभी प्रदीप लिखते हैं - "वो जो बेघर सा लगे है / क्यों हमसफ़र सा लगे है।" इस बेघर को अपना सा माननेवाला कवि समाज के निचले पायदान पर खड़ा होकर अपने समय को देख रहा है, इसलिए उसके अनुभव संसार में समग्र जीवन है। आगे कवि को समाज का स्वभाव समझ में आता है और लिखता है - "उनकी दुश्मन क्या हो सियाही / रोशनी कभी जिनके घर न थी।" यह कवि के विवेक की अनुभूति है, जो रेखांकित कर रही है कि किस तरह से विपरीत स्थितियों में रहते-रहते उसे स्वीकार करने की आदत पड़ जाती है। भारतीय समाज के दलित वर्ग के संदर्भ में यह अत्यंत प्रासंगिक है। यहीं पर इन पंक्तियों पर भी ध्यान देना होगा, जहाँ कवि कहता है - "मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे / रोकर कभी भी  हँसाने की बातें।" रोकर हँसाने की बात में विरोधाभास के माध्यम से रचनाकार फ़रिश्ते को कटघरे में खड़े नज़र आते हैं। ठीक इसी जगह से अगली ग़ज़ल निकल कर आती है कि - "क्या अजब ये हो रहा है रामजी / मोम अग्नि बो  रहा है रामजी।" यानि एक तरफ तो मानवीय संवेदना और उसकी सीमा रेखांकित हो रही है, दूसरी तरफ मोम अग्नि बो रहा है, यहाँ पर आज के जटिल विध्वंसक परिस्थितियों की तरफ भी इशारा किया जा रहा है। जहाँ मनुष्य स्वयं को नष्ट करने की स्थितियाँ निर्मित कर रहा होता है और उसे इसका पता भी नहीं चलता है। संग्रह का पाठ करते समय ऐसा लगता पूरा समय रचनाकार के सामने स्वतः खुलता चला जा रहा है और वह धीरे-धीरे अपनी चेतना और जीवन विवेक के आधार पर कथ्यों को उठाता चला जा रहा है। इसी क्रम में इन पंक्तियों को भी देखा जा सकता है, जहाँ यथार्थ बोध स्पष्ट दिखाई देता - "पत्थर हैं पागल के हाथ में / शरीफ़ों की खुराफ़ात होगी।"
      हमारे समय के रचनाकार की पहली जरूरत है कि वह राजनीतिक चेतना से भरपूर हो और उसकी कविता में समसामयिक राजनितिक मूल्य प्रखरता से उदघाटित हों। यह राजनीति संसद से लेकर चूल्हे तक की या पुस्तक से लेकर मनःस्थिति तक की हो सकती है। जब हम पढ़ते हैं - "अन्तिम सहमति कुर्सी पर / रहा सफल गठजोड़ बहुत।" तो स्पष्ट हो जाता है कि इस किताब के रचनाकार ने अपने परिवेश की राजनीति को ठीक से समझा है और आगे चलकर हमें ये पंक्तियाँ मिलतीं हैं - "उल्टी सीधी मुखमुद्राएँ / धनी हुऐ छिछोर बहुत।" अब कोई संशय नहीं रह जाता है कि कवि की आवाज में हमारे समय के आमजन की आवाज प्रमुखता से शामिल है। दरअसल अपने समय में व्याप्त हो जाना और उसमें रच-बस जाना फिर अपनी चेतना के तहत अभिव्यक्त होना किसी भी रचनाकार की पहली योग्यता होती है। यहाँ पर प्रदीप खरा उतरते हैं। स्त्री-विमर्श और स्त्री-स्वतंत्रता के युग में व्यवस्था लगातार ढोल पीट रही है कि स्त्रियों ने खूब विकास किया है और पुरूषों के समकक्ष खड़ी हो गयी हैं। यहीं पर बेहद सहज विन्यास में प्रदीप लिखते हैं - "अक्सर चुप चुप ही रहती है / बिटिया जब से  हुई सयानी।" अब आगे इसकी व्याख्या की कोई जरूरत नहीं है। प्रदीप की रचनाएँ एकदम आम भाषा और सरल रूप में पाठक के सामने प्रस्तुत होतीं हैं। जब पाठक उन रचनाओं से होकर गुजरता है तो उसे महसूस होता है कि कितनी जटिल और समझ को चुनौती देनेवाली समस्या की बारीकियों को वह अच्छी तरह से समझ गया -  "गढ़ना था ईश्वर / गुण  पत्थर में थे।" अगर हम प्रगतिशील साहित्य को खंगालें तो हजारों पन्नों में फैली बातें इन दो पंक्तियों में समाहित हैं और सम्प्रेषित भी हो रहीं हैं। पत्थर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज नहीं करा सकता है। संवेदना विहीन यह पत्थर धर्म का व्यवसाय करनेवालों के एकदम अनुकूल है।
      आज हिन्दी ग़ज़ल को अपनी विधा चुनना एक जोखिम भरा काम है। ऊपर से यदि आप ग़ज़ल को रचनात्मक सरोकारों और प्रगतिशील मानसिकता के साथ अपनाते हैं तो फिर आपकी खैर नहीं है। बहुत सारे उस्तादभीरू और जड़ मनःस्थिति के लोग आपके पीछे पड़ जाऐंगे। जब लोगों ने उर्दू में ग़ालिब जैसे बड़े शायर को नहीं छोड़ा और हिन्दी में ग़ज़ल को स्वीकृति दिलानेवाले दुष्यंतकुमार को खारिज करते रहे तो प्रदीपकांत किस खेत की मूली हैं। सो यह सब प्रदीप से साथ होता रहा है और होता रहेगा। बड़े-बड़े ग़ज़ल योद्धा इस संग्रह में तमाम तकनीकी खामियाँ निकाल देंगे। मैं भी अपनी छोटी समझ के साथ कुछ खामियाँ गिना सकता हूँ। लेकिन यहाँ पर हमें देखना होगा कि कवि अगर तकनीक से समझौता कर रहा है तो किसलिए। अगर रदीफ-काफिए और मात्राओं के चक्कर में हमारे कथ्य की धार मर रही है तो बेहतर है कि एक सीमा तक तकनीक में छूट ले लेनी चाहिए, क्योंकि रचनाकार का मूल उद्देश्य उस कथ्य को पाठकों तक पहुँचाना होता है। प्रदीप ने भी संभवतः इस विचार के तईं छूट लिया है। दूसरी एक जरूरी बहस है कि अगर कवि हिन्दी भाषा के संस्कार में ग़ज़ल लिख रहा है तो मात्राओं की तमीज हिन्दी की होगी। उसे उर्दू या फारसी की परम्परा में मूल्यांकित करना नासमझी कहलाऐगी। खैर छंद में इस तरह की बहस और खारिज-स्वीकृति चलती रहती है। रचनाकार इनसे परे रचता रहता है। उसे चिन्ता अपने पाठकों की होती है, समीक्षकों की नहीं। यदि वह समीक्षकों की चिंता करने लग जाए तो कोई रचना नहीं कर पाऐगा। पूरे संग्रह से गुजरने के बाद दो बातें निकलतीं हैं, जिनके प्रति रचनाकार को सावधान होना चाहिए, पहली कथ्य में दुहराव और दूसरी प्रखरता के तापमान में कमी। पहले संग्रह में यह कमी नगण्य है। हमें पूरी उम्मीद है कि प्रदीप कांत की अगली कृतियों में हम और ज्यादा परिपक्वता और प्रखरता से रूबरू होंगे। किताब के आमुख में यश मलवीय ने ठीक लिखा कि इनमें समकालीन कविता के कथ्य हैं और वरिष्ठ शायर नईम की याद आती है। छोटी बहर में ग़ज़ल कहना कठिन है। प्रदीप ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और उसकी यह कृति प्रदीप की सफलता का प्रमाण है। जीवन की गाँठों को खोलती ग़ज़लों से सुसज्जित इस महत्वपूर्ण संग्रह के लिए बहुत बधाई। अंत में हमारे समय का मिज़ाज को प्रस्तुत करती इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात पूरी कर रहा हूँ - "नहीं सहेगा मार दुबारा /गाँधी जी का गाल नया है।"

प्रदीप मिश्र
दिव्याँश 72ओ सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड
पो.-सुदामानगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
                                                                                                   मो- 0919425314126

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