Monday 10 December, 2012

उंगलियाँ उम्र की कट गयी हिसाबों में

हिन्दी गीत की विकास यात्रा में नवगीत की परम्परा ने गीत को एक नया स्वरूप दिया है। जो ज्यादा जनोन्मुख है और यथार्थ के तश्वीर को पूरी सम्प्रेषणीयता के साथ अंकित करने में समर्थ भी। इसलिए शुरू से ही इसकी भूमिका गम्भीर रही। नवगीत की इस परम्परा को और भी सम़ृद्ध करने वाले गीतकार प्रमोद उपाध्याय का गीत संग्रह खिड़कियाँ झाँक रहीं कमरे के पार हमारे सामने है। शीर्षक गीत कवि के संवेदनात्मक वरीयता में आम आदमी का चित्र खिंचता है – खिड़कियाँ झाँक रहीं कमरे के पार/छत के मुँह उखड़े से, आंगन बीमार / उंगलियाँ उम्र की कट गयी हिसाबों में / परिचय की केंचुली बंद है किताबों में / कंधा तक देने के नहीं मिले चार। इसके अलावा जब हम पढ़ते हैं – देह हुई बर्तन दिन हुआ ठठेरा या लोग सरौते बीच सुपारी जैसे जीते हैं तो हमें हमारे समय का दृश्य कुछ और साफ दिखाई देने लगता है। दरअसल एक कवि जब अपनी संवेदना को शब्दरूप दे रहा होता है तो उसकी राजनीतिक चेतना कविता में द़ष्टि की तरह से समाहित होती है। जिसकी व्यंजना अर्थ ध्वनियों के रूप में पाठक के मन में अंकित होती है। यह अंकन ही कवि का सर्थकता है। ऐसी सर्थकता इस संग्रह में संग्रहित अधिकतर गीतों के परिणति में मिलती है जैसे – गिद्ध जैसे दिन हुए हैं/साँप जैसी रात/किसको सुनाएं किस तरह/आज मन की बात या  उन्माद का अनुवाद करती ये हवाएँ/लिख रही भूगोल की काली कथाएँ या अय्यारों के हाथ में सूरज/हुई तिलिस्मी रातें/हारूत-मारूत नए करिश्में आपस में दिखलाते।
      कवि कार्बन होते दिन, सुनामी और लातूर का प्रयोग करके जहाँ समसामयिक प्रंसगों को कविता में शामिल करता है, वहीं पर स्पाइल, ड्राइंग रूम, फाइल, वाइन बार, क़ॉफी हाउस और सेनेटरी पेड जैसे शब्दों का प्रयोग करके वर्तमान भाषा संस्कार को भी रेखांकित करता है। संग्रहित काव्य संसार में शकुंतला, पांचाली, कबीर, सूरदास, रसखान, पिकासो, मोपासाँ, वाजिश्रवा और नचिकेता आदि चरित्रों का प्रयोग हमारे समय की जटिलता को सरल तरीके से सम्प्रेषित करता है। कवि कुछ खदबद सा बेसन रोटी ज्वार की/बिन बघारी भाषा प्यार की और बदल रही मुट्ठी में याचक हथेलियाँ/आ बैठी आंखों पर सूर्य की सहेलियाँ जैसी पंक्तियों से साक्षात्कार करा कर यह एहसास दिला देता है कि काव्य कौशल में भी उसे महारथ हासिल है। मालव भूमि की उर्वरा से जन्मा यह कवि मालवी के शब्दों का सटीक प्रयोग करता है। देवास जैसे कस्बे में कर्मस्थली होने का प्रमाण उसकी कविता में समाहित कस्बाई संवेदना प्रमाणित करती है। फ्लैप पर प्रतिष्ठित कथाकार प्रकाश कांत ने ठीक ही लिखा है – प्रमोद बुनियादी तौर पर कस्बाई मन के रचनाकार रहे हैं। साथ ही उनका रचनाकार किसी हद तक ग्रामीण संवेदना का रचनाकार भी है, जो नागर जीवन के तनाव, दबाव तथा नकलीपन में खुद को घिरा और घायल पाता है। इस तरह उसके यहाँ आदिम ग्रमीण संवेदना, कस्बाई मन की सहजता और नागर जीवन का संष्लिशटता एक साथ देखने को मिलती हैं। इन विचारों के पक्ष में बहुत सारे उदाहरण संग्रह में मौजूद हैं, यहां पर निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है – शहरी से देहाती मानुस, अब भी अच्छा है /अनुभव से है प्रौढ़ मगर मन से बच्चा है।
प्रमोद जी इस दुनिया में अब नहीं हैं। उनकी पत्नी रेखा उपाध्याय ने इस संग्रह को संकलित करके प्रकाशित करवाया है। पुस्तक मे अपनी बात शीर्षक से उन्होंने जो लिखा है वह भी एक कविता ही है। यहाँ पर मैं रेखा जी के शब्दों का भी उल्लेख करना चाहूँगा, जो इस संग्रह को मुकम्ल करते हैं – उनके इन गीतों में मालवा का जो लोक और कस्बाई जीवन है, वह खुद भी मालवा की होने से मुझे हमेशा बहुत आत्मीय लगता रहा। मेरा अपना अनुभव संसार उसी का हिस्सा रहा था। पिछले कुछ सालों में जब उनकी आंखों की रोशनी बहुत कम हो गयी थी और खुद लिखना उनके लिए सम्भव नहीं रह गया था, तब इन गीतों को उनसे सुनकर कागज पर उतारने के दौरान यह अनुभव और गहरा हो गया।
वस्तुतः प्रगतिशील-जनवादी मूल्यों का सर्जक कवि पूरी तरह से इन गीतों में व्याप्त है। जिसके सरोकारों में हमारा-समाज, हमारा-समय अपने वैज्ञानिक स्वरूप में विकसित होने को आतुर है। पाठ के बाद अपने इस स्वप्न को पाठकों में संचित करने में कवि सफल है और उसकी सर्जना हिन्दी कविता जगत को समृद्ध करती है। मैं अपनी बात उनके गीतो के साथ पूरी कर रहा हूँ- सईं साँझ से मरे हुओं को/रोएँ तो रोएँ कब तक/रीति-रिवाजों की ये लाशें/ढोंएँ तो ढोएँ कब तक।

समीक्षक - प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, पोस्ट-सुदामा नगर, इन्दौर-452009(म.प्र), मो. 09425314126

पुस्तक का नाम - खिड़कियाँ झाँक रहीँ कमरे के पार
कवि का नाम – प्रमोद उपाध्याय
मूल्य – 200 रूपए
प्रकाशक – अंतिका प्रकाशन, सी-56, यूजीएफ-4, शालीमार गार्डेन, एक्सटेंशन-II ,गाजियाबाद-5 (उ.प्र.)          

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