Friday 29 July, 2011


अंधेरे के खिलाफ सूरज -  डा. कमला प्रसाद

                                                                                                                                    -प्रदीप मिश्र


हिन्दी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में बहुत कम ऐसे व्यक्तित्व उपस्थित हैं। जो लेखन के साथ-साथ संगठन के स्तर पर भी उतनी ही मजबूती से जुटे हों। कमलाप्रसाद जी का नाम इस तर ह के व्यक्तित्वों पहली पंक्ति में रखा जा सकता है। इन्दौर आने के बाद उनसे पहचान हुई।

            उन दिनों मैं और अरूण आदित्य मिलकर भोरसृजन संवाद नामक पत्रिका निकालने की योजना बना रहे थे। सम्पादक मंडल में उनको रखना चाहते थे। इस संदर्भ में उनको पत्र लिखा। यह पत्र ही संभवतः हमारे नाम का पहला परिचय था। एकदम से नए नाम के युवा सम्पादकों के पत्र के जवाब में,उन्होंने न केवल हमारे प्रस्ताव को स्वीकार किया, बल्की जवाब मे एक लंबा पत्र लिखा। इस घटना ने उनके प्रति हमारे मन में सम्मान को और भी बढ़ा दिया। जहाँ बड़े-बड़े लेखकों की प्रतिक्रियाऐं संशय भरी और हतोत्साहित करनेवाली थीं। वहाँ पर कमला प्रसाद जी ने संबल दिया। उसके बाद  खूब खतोकिताबत हुए और उन्होंने बहुत सारा मार्ग निर्देशन दिया।  हमलोगों ने पत्रिका निकाली उसके जो भी अंक निकले, हिन्दी साहित्य के जनपद में उनका स्वागत हुआ।


            अचानक एक दिन उनका बच्चों के शादी निमन्त्रण पत्र आया। यह भी हमारे लिए सामान्य बात नहीं थी। जिससे अभी तक रूबरू मुलाकात भी नहीं हुई, उन्होंने आमन्त्रण भेजा। जब शादी में सम्मिलित होने गया तो देखा हिन्दी पट्टी के सभी तरह का साहित्यकार उपस्थित थे। न केवल साहित्यकार बल्की जो लोग मैदानों में उतकर सीधा-सीधा उपेक्षित वर्ग के उत्थान के सक्रिय थे, उनकी फौज वहाँ उपस्थित थी। यहीं पर पहलीबार मामा बलेश्वर और कुमार अंबुज से मुलाकात हुई। पूरा आयोजन शादी का कम एक बड़ा साहित्यिक आयोजन ज्यादा लग रहा था। वहाँ पर दिन भर साहित्य के और समाज के मूल्यों पर खूब चर्चा होती रही। इतनी सार्थक चर्चाऐं कई बार औपचारिक साहित्यिक गोष्ठियों में भी नहीं होतां हैं। यहाँ तक कि शाम को रसरंजन भी हुआ और साहित्यकारों का रसरंजन  जैसा होता है वैसा ही हुआ। ये पूरी जमात शादी कम साहित्यिक गोष्ठी के तमीज में ज्यादा थी।  खैर शाम को हम उनसे मिलने गए। सब में मैं सबसे छोटा था। अतः थोड़ा संकुचित और दूर -दूर था । समला प्रसाद जी सामने आए, अच्छा खासा कद। ऊपर की तरफ काढ़े गए ज्यादातर सफेद और कुछ काले बाल। बड़ी आँखें जिनमें बेहतर दुनिया के स्वप्न के लिए पर्याप्त जगह। आवज में बुलंदगी। उनको देखकर मेरे दिमाग में सबसे पहले निराला का ख्याल आया। सोचा निराला ऐसे ही दिखते रहे होंगे। हम सबमें ज्यादातर उनके शिष्य थे। शिष्यों के साथ  उनका पुत्रवत प्रेम साफ झलक रहा था । हम सब लोगों से चर्चा में वे मसगूल हो गए। वहाँ पर भी प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों और संगठनात्मक मजबूती पर चर्चा जारी हो गयी। वे भूल गए की उनके यहाँ शादी है। फिर किसी बहुत जरूरी काम के लिए उनके परिवार का कोई सदस्य आया और उनको ले गया।
            उन दिमों वे कला परिषद में थे वसुधा का पुनर्प्रकाशन शुरू हो गया था। कड़ी दोपहरी में हम उनसे मिलने कलापरिषद गए । पहुँचते ही चाय पानी की व्यवस्था के बाद वसुधा की बात हुई। मैंने आग्रह किया कि पाँच कापी मुझे भेज दें। भेजना क्या उन्होंने तुरंत सारी व्यवस्था करके वसुधा की प्रतियों का एक बंडल मेरे साथ लगा दिया। कुछ महीनों तक मैं वसुधा बेचता रहा फिर मेरी अपनी व्यस्तता और लोगों की अरूचि के कारण। वेचना मुश्किल हो गया। मैंने वसुधा के नए अंक न भेजने का निवेदन भी किया लेकिन अंक आने बंद नहीं हुए। वसुधा के बहुत सारे अंक मेरे पास जमा हो गए। जिनका पैसा भी नहीं भेज पाया। इस दौरान एक कार्यक्रम में कमला जी से मुलाकात हो गयी। तो उन्होंने टोका कि तुमने बहुत दिनों से पैसा भी नहीं भिजवाया और मेरे पोस्टकार्ड का जवाब भी नहीं दिया। मैने सच -सच बता दिया कि लोग खरीदना नहीं चाहते हैं और मेरे पास समय नहीं है कि उनको दे कर दस बार पैसा मांगने जाउँ।  मेरी बात उनको अच्छी नहीं लगी। उनकी मेरी बहस हो गयी। उसके बाद वे बोले ठीक है , वसुधा की जितनी प्रतियाँ बची हैं और जी हिसाब बाकी है करके भेज दो। मैंने उनके निर्देशानुसार काम कर दिया और मानकर चल रहा था कि अब उनसे बातचीत बंद ही हो गयी। लेकिन एक कार्यक्रम के दौरान भोपाल में मुलाकात हुई तो फिर वे उसी पुरानी आत्मियता से मिले। एक बार फिर मैं उनके व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक हुआ।

            इस तरह से बहुत सारी मुलाकतों की स्मृतियाँ हैं। लेकिन पिछले दो तीन वर्षों से प्रलेश का जो छिछालेदर चल रहा था, उससे वे बहुत आहत थे। हर मुलाकात में वैचारिक आंदोलनों कमजोर पड़ने पर वे चिन्ता व्यक्त कर रहे थे।  अंतिम बार मैं उनसे भोपाल के चिरायु हास्पिटल में  मिला था। वह कद्दावर शरीर पिछले बीस वर्षों की मुलाकात में पहली बार कमजोर और खामोश दिखाई दिए। इस खमोशी को तोड़ती हुई उनकी स्वप्निल आँखों में बहुत सारे स्वप्न अभी भी तैर रहे थे, और पूछ रहे थे कि क्या मेरी मौत के साथ मेरे सपने भी मर जाऐंगे। मर जाएंगी वे सारी उम्मीदें ? हर मिलनेवालों से वे इन सवालों को साझा कर रहे थे। संगठन और वैचारिक आंदोलन  के कार्कर्ता की तरह से उन्होने अपना  पूरा जीवन झोंक दिया और अंतिम समय तक पूरी पीढ़ी तैयार कर गए। जो उनके सपनों को साकार करने में सक्षम है। इसलिए वे हमारे बीच में हमेशा बने रहेंगे। उनका मूर्त सभी युवा साथियों में विधटित हो गया है। अब हम सब के क्रिया कलापों और संधर्षों में कमला प्रसाद जी जीवित हैं। ुनका जीवन और विस्तृत और अमूर्त हो गया है। इस अंधेरे के खिलाफ सूरज में तब्दील हो चुके कमला प्रसाद जी को याद करना, एक वैज्ञानिक समाज के स्वप्न जैसा है।


प्रदीप मिश्र, दिव्याँश ७२ए  सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा नगर, इन्दैर-४५२००९  .प्र
मो. -  ९४२५३१४१२६

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...