Wednesday 24 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -7

खेतों के काम करने वालो दासों को गरम लोहे से दाग दिया जाता था जिससे कि वे सदा पहचाने जा सके कि किस मालिक के हैं। रात को भेड़-बकरियों की तरह वे बाड़ों में बन्द कर दिये जाते थे और भूखे जानवरों की तरह सबरे खेतों में हाँक दिये जाते थे। युद्ध से गुलामों की कमी पूरी न होती थी तो गुलाम उड़ाने वाले डाकू उन्हें जुटाते थे। वर्षों तक ईजियन और पूर्वी भूमध्य सागर से ये डाकू लोगों को पकड़ लाते थे और उन्हें देलोस के बाजार में बेच देते थे। वहाँ से रोमन व्यापारी उन्हें इटली ले आते थे। (पृष्ठ ४३)
यह अत्याचार न सह सकने पर दासों ने कई बार विद्रोह किया। सिसिली में साठ हजार विद्रोही दासों ने अपने मालिकों को मार कर शहरों पर कब्जा कर लिया और अपना राज्य स्थापित कर लिया। रोमन फौज कई साल के संघर्ष के बाद ही उन्हें दबा पायी। इस विद्रोह के समय छोटे खेतों के मालिक, स्वाधीन किसान भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने धनी भूस्वामियों के महलों में आग लगा दी। ``इसलिए दासों के विद्रोह से न केवल दासों की वरन् स्वाधीन लोगों में निर्धन किसान वर्ग की भी घृणा प्रकट हुई।`` (ब्रेस्टेड)। धनी और निर्धन का भेद इतना तीव्र हो गया था कि दोनों वर्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गये थे। ``इटली दो बड़े सामाजिक वर्गों में बँट गया था।`` जो एक-दूसरे के खतरनाक ढंग से विरोधी था।`` (उप.)। एक और भूपतियों का वर्ग था जिनके पास दास और भूमि थी, दूसरी ओर दास और वे गरीब किसान थे जो भूपतियों की नीति से तबाह हो रहे थे। रोमन सामन्तों की युद्ध-नीति से साधारण जनता खुशहाल न हुई, वरन् और तबाह हुई। दूसरों को लूट कर वे जो सम्पदा लाते थे, उससे साधारण जनता को लाभ न था। युद्ध से लौटने पर रोमन सैनिकों को अपना खेत सुरक्षित न मिलता था। कर्ज के न चुका सकने पर अक्सर वह भूस्वामी के पास पहुँच जाता था। अगर खेत बचा भी रहा तो वह गुलामों द्वारा की जाने वाली बड़े पैमाने की खेती का मुकाबला न कर सकता था। बाहर से भी सस्ता अनाज मँगाया जाता था। आगे-पीछे खेत बेच कर किसान सर्वहारा बनकर रोम पहुँच जाता था। रोम का भव्य साम्राज्य उसके स्वाधीन किसानों ने ही कायम किया था। वहीं उससे तबाह हुए। एथेंस की तरह रोम के पतन का आंतरिक कारण ये मुफलिस बने। (पृष्ठ ४३-४४)
सबसे पहले प्रश्न यह है कि क्या वैदिक संस्कृति किसी विशेष प्रदेश की संस्कृति है। प्रदेश का सवाल भी तब उठता है, जब यह सिद्ध हो जाय कि इस संस्कृति के रचने वाले घुमन्तू जीवन न बिताते थे वरन् किसी प्रदेश में बस गये थे। श्री पुलास्कर ने भारत में आर्य बस्तियों की चर्चा करते हुए यह परिणाम निकाला है कि वैदिक ऋचाओं में जिस प्रदेश की चर्चा है, उसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध और राजस्थान के कुछ भाग, उत्तर-पश्छिमी सीमान्त प्रदेश, कश्मीर और सरयू नदी तक का पूर्वी प्रदेश आता है। (``वैदिक युग``)। पश्चिम के कुछ विद्वानों का मत रहा है कि ऋग्वेद का मुख्य क्षेत्र पंजाब है। उसके बाद का मत है कि यह प्रदेश सरस्वती नदी के आसपास और अंबाला के दक्षिण का है। कुछ लोगों का मत भी है कि अधिकांश मंत्र भारत के बाहर ही रचे गये थे। (पृष्ठ ४७)
यह वर्ण-व्यवस्था मानव समाज के भावी विकास के लिए आवश्यक थी। इससे एक वर्ग ऐसा बना जो अवकाश-भोगी था और अपना समय गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण आदि के विकास के लिए दे सकता था। वर्ण-व्यवस्था के कारण धर्म शास्त्र, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का विभाजन हुआ। ऋग्वेद में यह विभाजन नहीं है, बीजरूप में भले विद्यमान हो। भरत का नाट्यशास्त्र, कालिदास के नाटक, कपिलकणाद के दर्शन, पाणिनि का व्याकरण, आर्यभट्ट का गणित इस वर्गभेद और संपत्तिगत विभाजन से ही संभव हुए। आज वर्ण-व्यवस्था को अन्यायपूर्ण ठहराना सही है लेकिन अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्यण के समय उसे अन्यायपूर्ण ठहराना निरर्थक है, क्योंकि वह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य थी। ऐंगेल्स ने प्राचीन युग में दास-प्रथा की आलोचना करने वालों से ``ऐं टीडूयरिंग`` में कहा है, यदि यूनान में दास-प्रथा न होती तो यूरोप में सोशलिज्म भी न आता। इसी तरह भारत और विश्व के भावी विकास के लिए वर्ण-व्यवस्था आवश्यक थी। आज हम यह न मानते हैं कि ब्राह्यण और क्षत्रिय वर्गहितों से परे ईश्वर के अंश हैं, न हम यहीं मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और मानव-सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण देन न थी। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है, सभ्यता की प्रगति के साथ दुर्गति का भी एक अंश जुड़ा रहता है, उसी के अनुकूल यहाँ भी यह प्रगति समाज के लिए बाध्य करके ही हुई। स्त्रियों की शिक्षा और सार्वजनिक कार्यों से दूर रखने के लिए कड़ी व्यवस्था की गयी और शूद्र को यथाकामवध्य: कहा गया। (पृष्ठ ५७-५८)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी सातवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Monday 22 September, 2008

हमारे समय का धिनौना सच दिल्ली हदसा

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पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ उसे हम सबने खूब जाँचा-परखा। निर्णय यह लिया गया कि मुसलमानों ने तबाही मचा दी है। सिमी और न जाने क्या-क्या। लेकिन सिमी को वजूद में आने और पैदा करने में किसका हाथ है ? और भविष्य किस दिशा में है ? कहीं हम एक आँख के चश्में से पूरी पृथवी देखने की कोशिश तो नहीं कर रहै हैं ? मित्रों अगर आप मनुष्य हैं और अपने देश-समाज से प्रेम करते हैं तो समय का तकाजा है कि आप दोनों आँखों से खुद देखें और मीडिया को भयानक झूठ का पुलिंदा समझें। कुछ अपवादों को छोड़ कर। इसे भी पढ़ें और सोचें क्या दिल्ली, अहमदाबाद और दूसरी जगहों का सच ठीक वही है, जो हमे समझाया जा रहा है। मित्रों इन अमाननीय कृत्यों के पीछे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता है, जिसका धर्म है। धर्म मनुष्यता के खिलाफ संभव नहीं है। चाहे वह 1992 दिसम्बर का अयोध्या हो या आज की दिल्ली। कहीं नहीं है - धर्म। इन काम को करने वाले हिन्दू-मुसलमान नहीं हैं। सत्ता और पूँजी के आगे जीभ लपलपाते कुत्ते हैं। यह संस्कृति गुजरात में सर्वाधिक पोषित हुई है, और अब सारे देश में फैल रही है। पिछले दिनों जनसत्ता में छपा सुभाष गाताड़े का यह आलेख हमारी आँखों पर बंधी पट्टियों को खोलता है। इसे जरूर पढ़ें, और सबको पढ़वाऐं । -प्रदीप
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24 अगस्त की जन्माष्टमी के दिन कानपुर में जिस बड़ी साजिश का पर्दाफाश हुआ, उससे किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं। शिव शंकर मिश्रा नामक किन्हीं रिटायर्ड कर्मचारी द्वारा बने, एक निजी छात्रावास के एक कमरे में हुए प्रचंड बम विस्फोट में न केवल मिश्रा का अपना इकलौता बेटा राजीव तथा उसके दोस्तस भूपेंद्र सिंह की मौत हुई, बल्कि मौत का जितना सामान बरामद हुआ वह एक पुलिस अधिकारी की ज़बानी कहें तो ‘आधे कानपुर को तबाह कर सकता था’।

जैसा कि बताया जा चुका है कि इस भीषण विस्फोट में दो युवकों के चिथडे़ उड़ गये, कमरे की छत उड़ गयी और दीवारें चटख गयीं। मौके पर पुलिस ने ग्यारह जिंदा बम, इलेक्ट्रॉनिक घड़ियां, टार्च की बैटरियां और भारी मात्रा में बारूद बरामद किया। इसके अलावा वहां से बम बनाने की सामग्री के तौर पर तीन किलो लेड आक्साइड, 500 ग्राम रेड लेड, एक किलोग्राम पोटैशियम और अमोनियम नायट्रेट, 2 किलो बम की पिनें, बारह बल्ब, 50 मीटर तार मिला। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समूचे शहर में सीरियल बम धमाकों के लिए पर्याप्त सामग्री वहां थी।

गौरतलब है कि भूपेंद्र सिंह, जिसकी अपनी फोटोग्राफी की दुकान मशहूर जेके मन्दिर के पास थी, वह कुछ साल पहले बजरंग दल का नगर संयोजक था और राजीव भी बजरंग दल से जुड़ा था। आधिकारिक तौर पर बजरंग दल की तरफ से यही कहा जा रहा है कि दोनों ‘पिछले कुछ समय से सक्रिय नहीं थे।’ दूसरी तरफ पुलिस की तरफ से अभी इस बारे में कुछ कहा नहीं जा रहा है। क्या यह माना जाए कि पुलिस किन्हीं दबावों में काम कर रही है, ताकि बमकांड के असली सूत्रधारों तक पहुंचने से बचा जा सके? यह बेवजह नहीं कि इस कांड में ‘बब्बर खालसा’ का नाम भी उछाल दिया गया है। एक अग्रणी अख़बार (जागरण, 24 अगस्त 2008) ने ‘आतंकवाद विरोधी दस्ते’ के हवाले से यह ख़बर उड़ायी है कि शहर में तबाही मचाने की इस साजिश में लगभग मृतप्राय हो चुके बब्बर खालसा का नाम आया है। यह भी जोड़ा जा रहा है कि भूपेंद्र का रिश्ताप बब्बर खालसा फोर्स से था।

एक ऐसे समय में जबकि आतंकवाद के साथ समुदाय विशेष का या विशिष्ट धार्मिक मान्यतावाले तबकों का नाम जान बूझ कर उछाला जाता रहा है, यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि इस मामले की तह तक हम कभी पहुंच सकेंगे।

लोगों को याद होगा कि कुछ समय पहले ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने कई साक्षात्कारों में इस बात को दोहराया था कि ‘उनके पास इस बात के सबूत हैं कि संघ परिवार के लोग बम बनाने की घटनाओं में संलिप्त रहते हैं।’ और ऐसा नहीं कि वह यह बात पहली दफा कह रहे थे। पिछले साल भी उन्होंने मध्यप्रदेश के श्यामपुर, सिहोर आदि स्थानों से संघ परिवारी समर्थकों के घरों से बरामद बमों और अन्य विस्फोटक सामग्री के बारे में अपने साक्षात्कार में उजागर किया था। (भास्कर, 19 जुलाई 2007) ‘संघ भेजता है गुप्ती, बम तलवारें’ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में यह बात भी उजागर की गयी थी कि इसके अचानक बाद ही पास के नरसिंहपुर में साम्प्रदायिक घटनाओं में तेजी के समाचार मिले थे। इस सिलसिले में प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम भेजे अपने पत्र में उन्होंने सिहोर के पुलिस अधीक्षक के उस पत्र का भी हवाला दिया था कि पुलिस की तमाम कोशिशों के बावजूद गिरफ्तार दो व्यक्तियों ने उन स्रोतों का उल्लेख नहीं किया था जहां से उन्हें हथियार मिले थे।

कानपुर में बजरंग दल से सम्बद्ध दो लोगों के बम विस्फोट में मरने और एक बड़ी साजिश का पर्दाफाश होने से बरबस दो साल पहले महाराष्ट्र के नांदेड के उस चर्चित घटनाक्रम की याद ताजा होती है जब सिंचाई विभाग के रिटायर्ड कर्मचारी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध थे -लक्ष्मण राजकोंडवार- के यहां हुए बम विस्फोट में उनका बेटा नरेश और बजरंग दल का स्थानीय नेता हिमांशु वेंकटेश पानसे मारे गए थे और चार लोग बुरी तरह जख्मी हुए थे। इस घटना के बाद जब मृतकों के घरों पर छापा डाला गया था तब पुलिस को इलाके में मस्जिदों के नक्शे तथा क्षेत्र के मुसलमानों द्वारा पहने जानेवाले ड्रेस और नकली दाढ़ी आदि सामान मिला था। पकड़े गए लोगों ने पुलिस को बताया था कि नांदेड की औरंगाबाद मस्जिद के सामने जुम्मे की नमाज के वक्त़ बम विस्फोट करने की उनकी योजना थी। बाद में यह बात भी उजागर हुई थी कि पिछले कुछ सालों में परभरणी, जालना आदि स्थानों पर महाराष्ट्र में मस्जिदों पर जुम्मे की नमाज के वक्त जो बम हमले हुए थे, उसमें इन्हीं लोगों का हाथ था। पहले मामले की तहकीकात में पुलिस ने आनाकानी की थी, लेकिन जब दबाव पड़ा तब उन्हें सीबीआई से जांच करवानी पड़ी थी। यह बात समझ से परे लगती है कि इतने बड़े कांड में शामिल होने के बावजूद सभी अभियुक्त अभी जमानत पर हैं। उसी नांदेड में फरवरी 2007 में शास्त्रीनगर इलाके में एक दूसरा विस्फोट हुआ था, जिसमें भी हिन्दूवादी संगठनों के दो लोग मारे गए थे। पहले पुलिस ने कहा कि बिजली के शार्टसर्किट से यह हादसा हुआ, लेकिन जब मानवाधिकार संगठनों ने इस बात को उजागर किया कि इस गोदाम में कोई बिजली कनेक्शन नहीं था, तब पुलिस को अपनी जांच की दिशा बदलनी पड़ी थी।

यह बात महत्वपूर्ण है कि हर 6 अप्रैल को बजरंग दल के कार्यकर्ता नांदेड में पटाखे छोड़ कर ‘शहीद दिवस’ मनाते हैं, और एक तरह से अपने ‘शहीदों’ को याद करते हैं जो मस्जिद के बाहर रखने के लिए बम बनाने के दौरान मारे गए थे। (द मेलटुडे, 26 अगस्त 2008)

नांदेड की घटना को अगर ‘हिन्दू आतंकवाद’ का चर्चित आगाज़ कहा जा सकता है तो विगत दो सालों में ऐसी कई घटनाएं दिखती है जहां खुल्लमखुल्ला अतिवादी हिन्दू युवा आतंकी कार्रवाइयों में मुब्तिला दिखते हैं। तमिलनाडु के तेनकासी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय पर हुआ बम हमला (24 जनवरी 2008) इसकी एक नायाब मिसाल कहा जा सकता है जिसमें रवि पांडियन, ,स कुमार और वी नारायण शर्मा जैसे हिन्दू मुन्नानी के कार्यकर्ता पकड़े गए थे। ‘द हिन्दू’ (6 फरवरी 2008) के मुताबिक पुलिस ने इन लोगों से बम और विस्फोटक भी बरामद किए। हिन्दू मुन्नानी के इन कार्यकर्ताओं ने समूचे इलाके में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के मकसद से इस घटना को अंजाम दिया था।

फरवरी और मई-जून में महाराष्ट्र के पनवेल (20 फरवरी 2008) में जोधा अकबर के प्रदर्शन के दौरान और वाशी में विष्णुदास भावे आडिटोरियम (31 मई 2008) और ठाणे में गडकरी रंगायतन (4 जून 2008) में ‘आम्ही पाचपुते’ नामक चर्चित नाटक के प्रदर्शन के दौरान हुए बम विस्फोटों को इसी सिलसिले की अगली कड़ी कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने बहुत पेशेवर ढंग से काम करते हुए अंततः इन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार ‘सनातन संस्था’ और ‘हिन्दू जनजागृति समिति’ के कार्यकर्ताओं को गिरतार कर जेल भेज दिया है।

निष्कर्ष के तौर पर यह अवश्य पूछा जा सकता है कि क्या कानपुर, तेनकासी, ठाणे, नांदेड में हिदू अतिवादियों द्वारा अंजाम दी गई इन घटनाओं को एक-दूसरे के साथ जोड़ कर देख सकते हैं या नहीं ?

यह सहज ही आकलन किया जा सकता है कि हिंदू राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करने वाली इन जमातों ने अपनी रणनीति में बारीक बदलाव किया है और अब जगह-जगह ऐसी आतंकी कार्रवाइयां करने की योजना बनाई है, ताकि वह उन्हीं के बहाने अल्पसंख्यकों का दमन कर सकें।

दरअसल, अब वक्त आ गया है कि हम उत्तर-औपनिवेशिक भारत में आतंकवाद की परिघटना की नए सिरे से पड़ताल करें और समुदाय विशेषों को बदनाम करने के सिलसिले पर निगाह डालें। शायद तभी हम उस सहजबोध को खारिज कर सकेंगे, जिसके तहत आतंकवाद और धर्म-विशेष में गहरा रिश्ता ढूंढ़ लिया जाता है।

Tuesday 16 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -6

ईसा से लगभग पाँच हजार साल पहले मिस्त्र की प्राचीन संस्कृति का विकास हुआ। नील नदी की बाढ़ के कारण यहाँ की उर्वर धरती में जिस संस्कृति का विकास हुआ, उसका गहरा असर भुमध्यसागर के प्रदेशों पर पड़ा। यह प्राचीन संस्कृति बर्बर और अर्ध-बर्बर अवस्था की है। लोहे के औजार बनना अभी शुरू नहीं हुए। तांबा और कांसा मुख्य धातुएँ हैं। खेती (अर्थात् बागववनी) पहले हाथ से होती थी, फिर कुदाल को जुए से बाँधकर कर्षण द्वारा ``कृषि`` होने लगी। बागों के बदले क्षेत्रों को जोत-बो कर ``खेती`` होने लगी। जुए में बँधा हुआ कुदाल हल बना और बैल उसे खींचने लगे। इस तरह मनुष्य ने पशुओं के योग से अपने श्रम और उत्पादन की शक्ति बढ़ाई। (पृष्ठ ३२-३३)
प्राचीन संस्कृतियों में भारत की सिन्धु घाटी की सभ्यता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। ``मोहेज्जोदड़ो और सिन्धु घाटी की सभ्यता`` (१९३१) में सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि पुरातत्व की खोज से चौथी सहस्त्राब्दी ई. पू. के जीवन का ही पता चलता है ``लेकिन मोहेज्जोदड़ो में ही पहले के और कई नगर एक-दूसरे के नीचे दफनाये पड़े हैं और उन तक अभी फावड़े की पहुँच नहीं हुई।`` सिन्ध और बलूचिस्तान मंे और नगरों के मिलने की संभावना बतलाई गई है। मार्शल के अनुसार हड़प्पा और मोहेज्जोदड़ो में वैसी संस्कृति मिली हैं, वह काफी दिनों से विकसित होती रही होगी। वह ``भारत की धरती पर काफी रूढ़िगत हो चुकी थी और उसके पीछे कई हजार वर्ष का मानव- श्रम निहित होना चाहिए।`` इससे सिद्ध होता है कि सिन्धुघाटी की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है और यदि वह मिस्त्र की संस्कृति से पहले की नहीं है तो उसकी समकालीन अवश्य है। (पृष्ठ ३४-३५)
सिन्धुघाटी की संस्कृति का प्रभाव न केवल भारत पर वरन् अन्य देशों पर भी पड़ा। गॉर्डन चाइल्ड के शब्दों में यहाँ के विज्ञान का प्रभाव पश्चिम के विज्ञान पर पड़ा और इसलिए हमारे लिए वह ``ब्रौंज एज`` की संस्कृति नष्ट नहीं हुई वरन् हमारे न जानते हुए भी उसका काम आगे प्रगति का रहा है। (पृष्ठ ३७)
ऐंगेल्स के अनुसार यह बर्बर अवस्था की तीसरी और ऊँची मंजिल है जो सभ्यता के आरम्भ से घुलमिल जाती है। इस अवस्था की संस्कृति के निर्माण में एशिया की प्रमुख भूमिका है। अफ्रीका और अमरीका में यह संस्कृति विकसित हुई। यूरोप की देन अभी नगण्य है। (पृष्ठ ३७-३८)

इन प्राचीन समाजों के गर्भ में जो श्रम-विभाजन और वर्ग-विभाजन क्रमश: विकसित होता है, वह सामंती समाज की विशेषता है। हमें वर्ग-विभाजन का यह रूप नहीं मिलता कि समाज में एक ओर तो केवल दास हों और दूसरी और दासों के स्वामी हों। युद्ध आदि से दास प्राप्त होते है, उनसे उन्हीं लोगों की शक्ति बढ़ती है जो शेष समाज को यानी अपने सगोत्रियों को निर्धन बनाते जा रहे हैं और पूरे कबीले की अधिकांश भूमि अपने अधिकार में करते जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि सम्पत्तिशाली वर्ग के हित में जब राज्यसत्ता का जन्म होता है, तब वह केवल दासों का दमन करने के लिए नहीं होती वरन् समाज के ``स्वतंत्र`` किन्तु निर्धन सदस्यों के विरूद्ध भी उसका उपयोग होता है।(पृष्ठ ३८)
एथेन्स में दासों की संख्या स्वाधीन यूनानियों से बहुत ज्यादा थी। इनके श्रम के बल पर ही यूनान की सभ्यता का प्रकाश फैला था। एथेंस के कारखानों में ये दास ही काम करते थे। इसलिीए यह स्वाभाविक था कि व्यापारी और औद्योगिक वर्ग उन्हें नियंत्रण मेें रखने के लिए शक्ति का उपयोग करें। एथेंस में फी नागरिक के पीछे अठारह गुलाम थे लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हर नागरिक के पास गुलाम थे और समाज से धनी-निर्धन का तीव्र वर्ग-भेद मिट गया था। ऐंगेल्स ने लिखा है, ``व्यापार और उद्योगधन्धों की प्रगति से थोड़े से लोगों में सम्पत्ति एकत्र और कंेद्रित हुई। आम स्वाधीन नागरिक गरीब थे। उनके सामने दो ही रास्ते थे - या तो वे दस्तकारी में दास श्रमिकों से होड़ करें जिसे घृणित और त्याज्य समझा जाता था, इसके सिवा जिसमें सफलता की आशा भी बहुत कम थी - या पूरी तरह मुफलिस हो जाएँ। उस समय की परिस्थितियों में दूसरी बात ही हुई।`` इस मुफलिसी ने ही एथेन्स को तबाह किया। (पृष्ठ ४१-४२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी छठी कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

Monday 1 September, 2008

मानव सभ्यता का विकास -5

अंग्रेज पहले भारत में व्यापार करने आये थे, यहाँ का माल अपने वहाँ बेचकर मुनाफा कमाने आये थे। लेकिन अपने यहाँ की औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ उन्होंने भारत के उद्योग-धंधों का नाश किया। १८ वीं सदी के अन्त तक भारत के रेशमी और सूती कपड़े अंग्रेजी बाजार में वहाँ के कपड़ों के मुकाबले में ५०-६० फीसदी सस्ते बेचे जा सकते थे। इससे साबित होता है कि इंगलैण्ड अभी औद्योगिक दृष्टि से कमजोर था। अपने माल की खपत के लिए उसने भारतीय माल पर ७०-८० फीसदी कर लगाया जिसका अर्थ था, माल आने पर एकदम रोक लगा देना। इससे पहले एलिजाबेथ ने लोगों को बाध्य किया था कि वे इतवार और त्यौहार के दिन इंगलैंड की बनी हुई टोपी लगाया करें। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में चार्ल्स द्वितीय ने कानून बनाया था कि लोगों को दफनाने के लिए स्वदेशी कफन ही काम में लाया जाय। इससे इंगलैंड की औद्योगिक प्रगति का अनुमान किया जा सकता है। एलिजाबेथ के समय में फ्लैडर्स के बुनकर भागकर इंगलैंड आये थे और वहाँ के नगरों में बस गये थे। ``इस नये अपनाये हुए देश को उन्होंने इस योग्य बनाया कि ऊनी उद्योग में वह सिरमौर हो।`` अंग्रेजों ने भारतीय माल पर जो भारी कर लगाने की नीति अपनायी थी, वह १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक जारी रही। १८४० की पार्लियामेंट कमेटी की जाँच से पता चलता है कि भारत में आने वाले अँग्रेजी माल पर साढ़े तीन फीसदी (सूती और रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी कपड़ों पर) कर लगता था लेकिन यहाँ से जो माल विलायत जाता था, उस पर दस फीसदी (सूती माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और तीन फीसदी (ऊनी माल पर) कर लगता था। देखने की बात है कि ऊनी माल पर सबसे ज्यादा कर था, यानी इसकी होड़ से अंग्रेज उद्योगपति सबसे ज्यादा बचना चाहते थे और यह उस समय जब इंगलैंड में मशीनों का चलन हो गया था। (पृष्ठ १२०)
भारत में अंग्रेजों की लूट के फलस्वरूप यहाँ के औद्योगिक केन्द्र तबाह हो गये। ढाका और मुर्शिदाबाद के लिए क्लाइव ने कहा था कि ये नगर उतने ही समृद्ध है जितना कि लंदन (और जैसा शहर इंगलैंड में दूसरा न था)। लेकिन १९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ढाका की आबादी डेढ़ लाख से घट कर तीस-चालीस हजार ही रह गई। सर चाल्स्र ट्रेवेलियन के अनुसार ढाका जो भारत का मैंचेस्टर था वीरान होकर जंगल बनता जा रहा था और मलेरिया का शिकार होने जा रहा था। मोंटगोमरी मार्टिन ने अंग्रेजों द्वारा सूरत, ढाका और मुर्शिदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों के नाश को बहुत ही दुखद घटना बतलाया था। १८१७ में उसका निर्यात बन्द हो गया था। बाहर से सस्ता लोहा मँगाने की अंग्रेजी नीति के कारण भारत का अपना लोहे का कारोबार चौपट हो गया। अर्थशास्त्री बकनन ने लिखा है कि जैसी आधुनिक युग के पहले यूरोप में थीं। (आज का भारत अध्याय ५)। यहीं दशा जहाजों के कारबार की हुई। अंग्रेजी राज में भारतीय उद्योग-धंधों की तबाही पर अपनी पुस्तक में वामनदास बसु ने लिखा है कि पूरब का काफी व्यापार पहले भारतीय जहाजों द्वारा होता था। चीन, ईरान, लालसागर तक भारत के जहाज माल पहुँचाते थे। १७९५ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को यह आज्ञा मिली थी कि वह भारत में बने हुए जहाजों द्वारा लंदन माल ला सकती है। सर टामस मनरो ने भारतीय उद्योग-धंधों की दशा देखकर कहा था, ``औद्योगिक रूप में हम लोग उनसे (भारतवासियों से) बहुत पिछड़े हुए हैं।`` रजनी पाम दत्त ने लिखा है कि १८ वीं सदी के मध्य तक इंगलैंड कृषिप्रधान देश था। उन्होंने बैंस का हवाला दिया है जिसने लिखा है कि १७६० तक सूती कपड़र बनाने के लिए इंगलैंड में जो मशीनें इस्तेमाल की जाती थी, वे प्राय: वैसी ही साधारण थी जैसी भारत की। एक तो उन्होंने अपने औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक पूँजी बटोरी, दूसरे अपने माल के लिए भारत को खेतिहर देश बनाकर उन्होंने एक बाजार कायम किया। इंगलैंड मेमं भारत की लूट के फलस्वरूप बैंकिंग का कारोबार चमका। प्लासी के युद्ध के बाद इंगलैंड की हालत बदल गई। वहाँ जिन यंत्रों का आविष्कार किया गया था, उन्हें काम में लाने की सुविधा पैदा हो गई। ``इस तरह भारत की लूट पूँजी के एकत्रीकरण का वह गुप्त स्त्रोत थी जिसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका के कारण इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति संभव हुई।`` (पृष्ठ १२०-१२१)
हेगेल एक भाववादी विचारक था, लेकिन इसी कारण मार्क्स और ऐंगेल्स ने उसकी विचारधारा से किनाराकशी नहीं कर ली। उन्होंने उसके चिन्तन के क्रांतिकारी तत्व को पहचाना और उसे विकसित किया। यह पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है जिससे हम पुराने विचारकों का सही मूल्यांकन करना सीखते हैं। मार्क्स ने लिखा है कि उन्होंने ``पूँजी`` के प्रकाशन से तीस साल पहले ही हेगेल के द्वन्द्ववाद के रहस्यमय पक्ष की आलोचना की थी। हेगेल से अपनी पद्धति का भेद बतलाते हुए उन्होंने लिखा है, ``मेरी द्वन्द्वात्मक पद्धति हेगेल पद्धति से भिन्न ही नहीं है वरन् ठीक उसकी उल्टी है।`` हेगेल के लिए मनुष्य की चिंतनक्रिया वास्तविक संसार की मूल प्रेरक शक्ति है और यथार्थ जगत् ``विचार`` का बाह्म रूप है। इसके विपरित मार्क्स के लिए मनुष्य का विचार-जगत् उसके मन में भौतिक जगत् का ही प्रतिबिम्ब है और वह विचारों का रूप धारण करता है। ``हेगेल में द्वन्द्ववाद रहस्यमय बन जाता है। लेकिन इससे इस बात में रूकावट नहीं पड़ी की हेगेल ने सबसे पहले व्यापक और सचेत ढंग से उसकी क्रिया का आम रूप पेश किया था। हेगेल का द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा है। रहस्यमय रूप के भीतर उसके तर्क-संगत तत्व को जाना है तो उसे फिर से सीधे खड़ा करना होगा।``(पृष्ठ १४३)
मनुष्य ने युगों गों तक अपार यातनाएँ सहकर आज की सभ्यता को जन्म दिया है। यातना अधिकांश जनता के भाग्य में पड़ी, उस यातना से सुख उठाना थोड़े-से सम्पत्तिशाली लोगों के हाथ में रहा। यह युग मानव-समाज के विकास में एक विराट परिवर्तन का युग है। शोषण और ध्वंस की शक्तियाँ अपना विनाश सामने देख रही हैं। वे संसार की बहुसंख्यक जनता का नाश करके उस घड़ी को टालना चाहती हैं। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील के सिद्धांत उन्हें प्रिय नहीं लगते, व्यवहार में प्रतिदिन वे इन सिद्धांतों को तोड़ती हैं। साथ ही स्थायी शांति और शोषणहीन व्यवस्था कायम करने वाली शक्तियाँ अदम्य वेग से आगे बढ़ रही हैं। विजय इन्हीं प्रगतिशील शक्तियों की होगी। वह देश जो दो सौ वर्ष पहले संसार के किसी भी देश से पिछड़ा हुआ न था, शीघ्र ही अपना ऐतिहासिक स्थान प्राप्त करेगा और मानव-सभ्यता के विकास में अपने इतिहास के अनुरूप ही योग देगा। यह विश्वास सामाजिक विकास के वैज्ञानिक अध्ययन से पुष्ट होता है।(पृष्ठ ११)
एक अर्थ में मनुष्य श्रम द्वारा ही पशु से मनुष्य बना है। पशु-अवस्था से निकले हुए मनुष्य को लाखों वर्ष हो चुके और उस अवस्था का ठीक काल-निर्णय करना सम्भव नहीं है। लेकिन पशु-जीवन से निकलते-निकलते उसे लाखों वर्ष लगे होंगे, इसमें संदेह नहीं। उसकी सभ्यता का इतिहास उसके पशुजीवन के इतिहास के समय को देखते हुए बहुत छोटा है। (पृष्ठ १५)

मानव चेतना बाह्य जगत की वस्तुगत सत्ता को ठीक-ठीक नहीं समझती, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि वह जादू-टोने से, जंतर-मंतर सेऱ्या आगे चलकर योग-बल से।-उसे इच्छानुसार बदल लेगा। (पृष्ठ २२)
मातृसत्ताक गोत्रों में किसी व्यक्ति की अपनी वस्तुएँ उसके न रहने पर उसके मामा, भांजे और भाई पाते हैं। उसकी अपनी संतान उन्हें नहीं पाती। नारी की वारिस उसकी अपनी संतान, उसकी बहने और उसकी बहनों की सन्तान होती है। इस तरह गोत्र की उत्पत्ति गोत्र में ही रहती है। मातृसत्ताक विरासत का यह ढंग बहुत दिनों तक प्राचीन मिस्त्र में चलता रहा जहाँ राज परिवार में बहन-भाई इसलिए शादी करते थे कि अपने गोत्र की सम्पत्ति बाहर न जाय।(पृष्ठ २३)
इस संस्कृति के विनाश का श्रेय यूरोप की ``सभ्यता`` को है। अमरीकी आदिवासियों के विनाश का इतिहास अच्छी तरह प्रकट करता है कि यूरोप के लुटेरे वहाँ किस तरह की सभ्यता फैलाने गये थे। इसमें सन्देह नहीं कि यूरोप निवासी वहाँ न पहुँचते तो पेरू और मेक्सिको के लोग सभ्यता की अगल मंजिलों की तरफ बढ़ते। फॉस्टर ने ठीक लिखा है कि इनमें शासक वर्ग और राज्यसत्ता के निर्माण के लक्षण मिलते हैं। अज्तेक और इंका लोगों ने दूसरे कबीलों को जीत कर अपना राज्य-विस्तार किया था और उन कबीलों से दास, सैनिक, नरमेध के लिए बलि प्राप्त करते थे। फॉस्टर ने लिखा है, ``जब स्पेन के लोग अमरीका पहुँचें, तब दिखता है कि इंका और अज्तेक लोग वैसे ही समाज का विकास करने में लगे हुए थे, जैसे प्राचीन ग्रीस और रोम के लोग।`` इससे सिद्ध होता है कि सामाजिक विकास के नियम अमरीकी आदिवासियों पर वैसे ही लागू होते हैं जैसे यूरोप के ``सभ्य आर्यों`` पर। (पृष्ठ ३२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी पांचवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

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