Monday 21 January, 2008

"डर के पीछे जो कैडर है"

(अरूण की यह कविता हरियाणा साहित्य अकादेमी की
पत्रिका हरिगंधा में प्रकाशित हुई है।)

यह केसरिया करो थोड़ा और गहरा
और यह हरा बिल्कुल हल्का
यह लाल रंग हटाओ यहाँ से
इसकी जगह कर दो काला
हमें तस्वीर के बड़े हिस्से में चाहिए काला



यह देवता जैसा क्या बना दिया जनाब
इसके बजाय बनाओ कोई सुंदर भूदृश्य
कोई पहाड़, कोई नदी



अब नदी को स्त्री जैसी क्यों बना रहे हो तुम
अरे, यह तो गंगा मैया हैं
इन्हें ठीक से कपड़े क्यों नहीं पहनाये
कर्पूर धवल करो इनकी साड़ी का रंग


कहाँ से आ रही है ये आवाज
इधर-उधर देखता है चित्रकार
कहीं कोई तो नहीं है
कहीं मेरा मन ही तो नहीं दे रहा ये निर्देश



पर मन के पीछे जो डर है
और डर के पीछे जो कैडर है
जो सीधे-सीधे नहीं दे रहा है मुझे धमकी या हिदायत
उसके खिलाफ कैसे करूं शिक़ायत?

Saturday 19 January, 2008

भारत का अतीत


भईया ये फोटो जो बोलता है, उसे सुनो, और अपने गिरेबान में झांककर देखो कि नौ प्रतिशत जीडीपी को बावजूद,ग्सोबलाइजेशन के चमचे होने के बावजूद, जी हजूरी करने के बावजूद, तूम कितने विकसित हुए हो। कितना होना चहिए। रूक कर, कपार पकड़कर बैठो, थोड़ा सोस्ता भी लोगे और समझ में भी आ जाएगा कि जिस सड़क पर दौड़ रहे हो। वह इस्ट इंडिया कम्पनी की बनवायी हुई है। इसलिए वहीं से निकलती है और वहीं जाती है। इस पर जन्म जन्मान्तर के गुलाम दौड़ते रहते हैं। और अंग्रज लोग इस घुड़दौड़ पर जूआ खेलते है।

Tuesday 15 January, 2008

बहस

बोल कि लब आजाद है
मित्रों ! तुम्हारे अन्दर एक कशिश है, जिसकी जरूरत हमारे समय को है। इस कशिश को अब शब्द देना ही होगा। तुम्हारे शब्द ही हर ना पसंद को पसंदीदा में बदल सकते हैं। फिर चुप क्यों हो ? बोलो जम कर बोलो, यह समय जिरह का है। अगर किसी शक्तिशाली से हम लड़ नहीं सकते हैं तो असहयोग तो कर ही सकते है। विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है, असहयोग। जैसे आजकल अखबारों में फ्रंटपेज पर खबर से ज्यादा वरियता विज्ञापनों को है। क्योंकि विज्ञापन से पैसा आता है। लेकिन ये विज्ञापन किस के लिए छापते हैं ? तुम्हारे लिए, फिर भी तुम मजबूर हो ? कल्पना करो अचानक एक शहर के सारे नागरिक अखबार लेना बन्द कर दें, तो क्या होगा ? तुम जीत जाओगे। बन्द हो जाऐंगे वे सारे प्रेस और अखबार जो तुम्हारे लिए निकलते हैं, तुमसे जीवित हैं और तुमको ही गुलाम समझते हैं। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा ज्यादा से, कुछ महीने तुमको देश-दुनिया की खबरें नहीं मिलेंगी। अन्त में वे आऐंगे तुम्हारे पास और तुम्हारी शर्तों पर काम करेंगे। यूँ नहीं दुष्यन्त ने लिखा है – सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं । मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चहिए। तो आइए एक शुरूआत करें, आपने दिल की बात करें और बेखौफ होकर करें। करें हम आत्मालोचन भी, देखें कि जीवन के किस क्षण में हम विरोध कर सकते लेकिन नहीं किए। देखें कि अपने टुच्चे से स्वार्थ के लिए दूसरों का कितना नुकसान किया। खैर यह भी नहीं तो लफ्फाजी ही सही। कुछ तो करो ऐसा कि लगे कि तुम एक लोकतंत्र को सक्रीय नागरिक हो। इस समय देशप्रेम का इससे बड़ा कोई मीटर नहीं है। अगर अपने देश से प्रेम करते हो तो पूछो – कि इस ग्लोबलाइजेशन में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत कितनी सही है ? आपको यह भी अच्छी तरह से पता होना चहिए कि आज के परिदृश्य में जितने भी स्टार किस्म के बुद्धिजीवी हैं, विशेषरूप से वे जो अखबारों या लोकप्रय पत्रिकाओं में कालम लिखते हैं। वे सब आप के खिलाफ लिखते हैं। उनको इस देश से, इस देश के नागरिकों और मनुष्यता से कोई लेना देना नहीं है। वे किसी महानगर में रहते हैं, एसी कारों में घुमते हैं और विदेशी दारू पीते हुए कालम लिखते हैं। तो सबसे पहला असहयोग यहीं से शुरू कर सकते हैं, कि उनको पढ़ना और नोटिस लेना बन्द कर दें। उनकी बातें नशे की तरह हैं । उनको पढ़ते हुए आप अनायास ही उनसे सहमत हो जाऐंगे। धीरे-धीरे उनकी तरह सोचने लग जाऐंगे। आप भूल जाऐंगे कि वो बातें सिर्फ पाँच-दस प्रतिशत जनसंख्या के हित में है। खैर यह कुछ बातें हैं जिनसे मैंने शुरूआत की। बातें बहुत सारी हैं। हम इस बलाग पर लगातार जिरह जारी रखेंगे। हमारी बातें सुनियोजित हों, हमारा मत साफ और प्रतिबद्ध हो तथा हम जो कहें उसके पीछे हमारे देश के अंतिम आदमी की भी आवाज हो। इसलिए क्रम से विषयों पर चर्चा करेंगे। इसबार का विषय है –

पूँजी और हमारी सांस्कृतिक विरासत के बीच आजकल जो समीकरण बनाए जा रहे हैं, वे हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं ?
अगर आपको कोई असुविधा हो रही हो, अपने विचार निम्न पते पर भेजने की कृपा करें। हम टाइप करके ब्लाग पर डालने का यथासंभव प्रयास करेंगे।
प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर इन्दौर – 452009 (म.प्र.) मो. 09425314126

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