Saturday 26 January, 2013

जयपुर साहित्‍य उत्‍सव - 2013 में बांग्‍ला कथाकार महाश्‍वेता देवी का उद्बोधन

जयपुर साहित्‍य उत्‍सव - 2013 में बांग्‍ला कथाकार महाश्‍वेता देवी ने अपनी लोकछवि के अनुरूप बेहतरीन उदघाटन उदबोधन के माध्‍यम से हमारी सामाजिक विरासत और समय के संवेदनशील सच में को खुले शब्‍दों में बयान किया। जयपुर लिटरेचर की निदेशक नमिता गोखले ने इस भाषण का हिन्‍दी अनुवाद करके अपने फेसबुक वॉल पर उपलब्‍ध करा दिया। वहीं से मार कर मैं इस यहाँ रखा रहा हूँ। मुझे लगता गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर महाश्‍वेता देवी के इस उदबोधन वक्‍तव्‍य का पाठ ज्यादा सार्थक है -

"ओ! फिर से जीना"
- महाश्वेता देवी

शब्द। मैं नहीं जानती कि कहाँ से। एक लेखिका जो वेदना में है? शायद, इस अवस्था में पुनः जीने की इच्छा एक शरारतभरी इच्छा है। अपने नब्बेवें वर्ष से बस थोड़ी ही दूर पहुँचकर मुझे मानना पड़ेगा कि यह इच्छा एक सन्तुष्टि देती है, एक गाना है न ‘आश्चर्य के जाल से तितलियाँ पकड़ना’।इस के अतिरिक्त उस ‘नुकसान’ पर नजर दौड़ाइए जो मैं आशा से अधिक जीकर पहुँचा चुकी हूँ।
अट्ठासी या सत्तासी साल की अवस्था में मैं प्रायः छायाओं में लौटते हुए आगे बढ़ती हूँ। कभी-कभी मुझ में इतना साहस भी होता है कि फिर से प्रकाश में चली जाऊँ। जब मैं युवती थी, एक माँ थी, तब मैं प्रायः अपनी वृद्धावस्था में चली जाती थी। अपने बेटे को यह बहाना करते हुए बहलाती थी कि मुझे कुछ सुनाई या दिखाई नहीं दे रहा है। अपने हाथों से वैसे टटोलती थी, जैसा अन्धों के खेल में होता है या याददाश्त का मजाक उड़ाती थी। महत्त्वपूर्ण बातें भूल जाना,वे बातें जो एक ही क्षण पहले घटी थीं। ये खेल मजेदार थे। लेकिन अब ये मजेदार नहीं है। मेरा जीवन आगे बढ़ चुका है और अपने को दुहरा रहा है। मैं स्वयं को दुहरा रही हूँ। जो हो चुका है, उसे आप के लिए फिर से याद कर रही हूँ। जो है, जो हो सकता था, हुआ होगा।

अब स्मृति की बारी है कि वह मेरी खिल्ली उड़ाए।

मेरी मुलाकात कई लेखकों, मेरी कहानियों के चरित्रों, उन लोगों के प्रेतों से होती है जिन्हें मैं ने ‘जिया’ है, प्यार किया है और खोया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा पुराना घर हूँ जो अपने वासियों की बातचीत का सहभागी है। लेकिन हमेशा यह कोई वरदान जैसा नहीं होता है! लेकिन ‘यदि कोई व्यक्ति अपनी शक्ति के अन्त पर पहुँच जाए तब क्या होगा’? शक्ति का अन्त कोई पूर्णविराम नहीं है। न ही यह वह अन्तिम पड़ाव है जहाँ आप की यात्रा समाप्त होती है। यह केवल धीमा पड़ना है, जीवनशक्ति का ह्रास। वह सोच जिस से मैंने प्रारम्भ किया था वह है ‘आप अकेले हैं ’।

उस परिवेश से जहाँ से मैं आयी हूँ, मेरा ऐसा बन जाना अप्रत्याशित था। मैं घर में सब से बड़ी थी। मैं नहीं जानती कि आप के भी वही अनुभव हैं कि नहीं, लेकिन उस समय प्रत्येक स्त्री का पहला यौन अनुभव परिवार से ही आता था। और युवावस्था से ही मुझ में प्रबल शारीरिक आकर्षण था, मैं इसे जानती थी, इसे अनुभव करती थी और ऐसा ही मुझे कहा गया था। उस समय हम सभी टैगोर से काफी प्रभावित थे। शांतिनिकेतन में थी, प्रेम में पड़ी, जो कुछ भी किया बड़े उत्साह से किया। तेरह से अठारह वर्ष की अवस्था तक मैं अपने एक दूर के भाई से बहुत प्रेम करती थी। उस के परिवार में आत्मघात की प्रवृत्ति थी,और उस ने भी आत्महत्या कर ली। सभी मुझे दोष देने लगे, कहने लगे कि वह मुझे प्यार करता था और मुझे न पा सका इसीलिए उस ने आत्मघात कर लिया। यह सही नहीं था। उस समय तक मैं कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आ चुकी थी, और सोचती थी कि ऐसी छोटी अवस्था में यह कितना घटिया काम था। मुझे लगता था कि उस ने ऐसा क्यों किया। मैं टूट गयी थी। पूरा परिवार मुझे दोष देता था। जब मैं सोलह साल की हुई, तभी से मेरे माता-पिता विशेषकर मेरे सम्बन्धी मुझे कोसते थे कि इस लड़की का क्या किया जाए। यह इतना ज्यादा बाहर घूमती है, अपने शारीरिक आकर्षण को नहीं समझती है। तब इसे बुरा समझा जाता था।

मध्यवर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है। सब कुछ दबा रहता है।

लेखन मेरा वास्तविक संसार हो गया, वह संसार जिस में मैं जीती थी और संघर्ष करती थी। समग्रतः।
मेरी लेखन प्रक्रिया पूरी तरह बिखरी हुई है। लिखने से पहले मैं बहुत सोचती हूँ, विचार करती हूँ, जब तक कि मेरे मस्तिष्क में एक स्पष्ट प्रारूप न बन जाए। जो कुछ मेरे लिए जरूरी है वह पहले करती हूँ। लोगों से बात करती हूँ, पता लगाती हूँ। तब मैं इसे फैलाना आरम्भ करती हूँ। इस के बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं होती है, कहानी मेरी पकड़ में आ चुकी होती है। जब मैं लिखती हूँ, मेरा सारा पढ़ा हुआ, स्मृति, प्रत्यक्ष अनुभव, संगृहीत जानकारियाँ सभी इस में आ जाते हैं।

जहाँ भी मैं जाती हूँ, मैं चीजों को लिख लेती हूँ। मन जगा रहता है पर मैं भूल भी जाती हूँ। मैं वस्तुतः जीवन से बहुत खुश हूँ। मैं किसी के प्रति देनदार नहीं हूँ, मैं समाज के नियमों का पालन नहीं करती, मैं जो चाहती हूँ करती हूँ, जहाँ चाहती हूँ जाती हूँ, जो चाहती हूँ लिखती हूँ।
वह हवा जिस में मैं साँस लेती है, शब्दों से भरी हुई है। जैसे कि पर्णनर। पलाश के पत्तों से बना हुआ। इस का सम्बन्ध एक विचित्र प्रथा से है। मान लीजिए कि एक आदमी गाड़ी की दुर्घटना में मर गया है। उस का शरीर घर नहीं लाया जा सका है। तब उस के सम्बन्धी पुआल या किसी दूसरी चीज से आदमी बनाते हैं। मैं जिस जगह की बात कर रही हूँ, वह पलाश से भरी हुई है। इसलिए वे इस के पत्तों का उपयोग करते हैं एक आदमी बनाने के लिए।
पाप पुरुष। लोक विश्वास की उपज। शाश्वत जीवन के लिए नियुक्त। वह दूसरे लोगों के पापों पर नजर रखता है। वह कभी प्रकट होता है, कभी नहीं। उस ने स्वयं पाप नहीं किया है। वह अन्य सभी के अतिचारों का लेखा-जोखा रखता है। उन के पापों का। अनवरत। और इसीलिए वह धरती पर आता है। छोटी-से-छोटी बातों को लिपिबद्ध करते हुए। एक बकरा। दण्डित। दहकते सूरज के नीचे अपने खूँटे से बँधा हुआ। पानी या छाया तक पहुँचने में असमर्थ। तब पाप पुरुष बोलता है –‘यह एक पाप है। तुम ने जो किया है वह गलत है। तुइ जा कोरली ता पाप।’
वस्तुतः यह एक मनुष्य नहीं है। केवल एक विचार की अभिव्यक्ति है।
यह एक दण्ड हो सकता है। उस ने कोई भीषण अपराध किया होगा। शे होयतो कोनो पाप कोरेछिलो। कोई अक्षम्य पाप। और अब वह कल्पान्त तक पाप पुरुष बनने के लिए अभिशप्त है। वस्तुतः केवल एक ही पाप पुरुष नहीं है, कई हैं। उसी तरह जैसे कि इस कथा को मानने वाले प्रदेश भी कई हैं।
इस से भी सुन्दर कई शब्द हैं। बंगाली शब्द। चोरट अर्थात् तख्ता। और फिर डाक संक्रान्ति। इस का सम्बन्ध चैत्र संक्रान्ति से है। डाक माने डेके डेके जाय। जो आत्माएँ अत्यन्त जागरुक और चैतन्य हैं, वे ही इस पुकार को सुन सकती हैं। पुराने साल की पुकार, जो जा रहा है, प्रश्न करते हुए। पुराना साल आज समाप्त हो रहा है। और नया साल कल प्रारम्भ हो रहा है। क्या है जो तुम ने नहीं किया है ? क्या है, जो अभी तुम्हें करना है ? उसे अभी पूरा कर दो।
गर्भदान। यह बड़ा रोचक है। एक स्त्री गर्भवती है। कोई उसे वचन देता है कि यदि बेटी का जन्म होता है, उसे यह-वह मिलेगा। यदि बेटा होता है तो कुछ और मिलेगा। गर्भ थाकते देन कोरछे। दान हो चुका है जब कि बच्चा अभी गर्भ में ही है। इस कथा का कहना है कि अजात शिशु इस वचन को सुन सकता है, इसे याद कर सकता है, और इसे अपनी स्मृति में सहेज सकता है। बाद में वह शिशु उस व्यक्ति से उस वचन के बारे में उस गर्भदान के बारे में पूछ सकता है जो अभी हुआ नहीं है।
हमारा भारत बड़ा विचित्र है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के परधी समुदाय को लें। एक विमुक्त समुदाय। चूँकि वे आदिवासी समुदाय हैं, बच्चियों की बड़ी माँग है। किसी गर्भवती स्त्री का पति आसानी से अजन्मे बच्चे की नीलामी करा सकता है या बेच सकता है। पेट की भाजी, पेटे जा आछे। जो अभी गर्भ में ही है। नीलाम कोरे दीछे। गर्भ के फल को नीलाम कर देता है।
नरक के कई नाम हैं। नरकेर अनेक गुलो नाम आछे। एक नाम जो मुझे विशेष पसन्द है, वह है ओशि पत्र वन। नरक के कई प्रकार हैं। ओशि का अर्थ तलवार है। और पत्र अर्थात एक पौधा जिस के तलवार सरीखे पत्ते हों। ऐसे पौधों से भरा हुआ जंगल। और आप की आत्मा को इस जंगल से गुजरना होता है। तलवार सरीखे पत्ते उस में बिंध जाते हैं। आखिर आप नरक में अपने पापों के कारण ही तो हैं। इसलिए आप की आत्मा को इस कष्ट को सहना ही है।
जब भी मुझे कोई रोचक शब्द मिलता है, मैं उसे लिख लेती हूँ। ये सारी कापियाँ, कोटो कथा। इतने सारे शब्द, इतनी सारी ध्वनियाँ। जब भी उन से मिलती हूँ, मैं उन्हें बटोर लेती हूँ।
अन्त में मैं उस विचार के बारे में बताऊँगी जिस पर मैं आराम से समय मिलने पर लिखूँगी। मैं अरसे से इस पर सोचती रही हूँ। वैश्वीकरण को रोकने का एक ही मार्ग है। किसी जगह पर जमीन का एक टुकड़ा है। उसे घास से पूरी तरह ढँक जाने दें। और उस पर केवल एक पेड़ लगाइए, भले ही वह जंगली पेड़ हो। अपने बच्चे की तिपहिया साइकिल वहाँ छोड़ दीजिए। किसी गरीब बच्चे को वहाँ आकर उस से खेलने दीजिए, किसी चिड़िया को उस पेड़ पर रहने दीजिए। छोटी बातें, छोटे सपने। आखिर आप के भी तो अपने छोटे-छोटे सपने हैं।
कहीं पर मैँ ने ‘दमितों की संस्कृति’ पर लिखने का दावा किया है। यह दावा कितना बड़ा या छोटा, सच्चा या झूठा है ? जितना अधिक मैं सोचती और लिखती हूँ, किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उतना ही कठिन होता जाता है। मैं झिझकती हूँ, हिचकिचाती हूँ। मैं इस विश्वास पर अडिग हूँ कि समय के पार जीनेवाली हमारे जैसी किसी प्राचीन संस्कृतिके लिए एक ही स्वीकार्य मौलिक विश्वास हो सकता है वह है सहृदयता। सम्मान के साथ मनुष्य की तरह जीने केसभी के अधिकार को स्वीकार करना।
लोगों के पास देखनेवाली आँखें नहीं हैं। अपने पूरे जीवन में मैं ने छोटे लोगों और उन के छोटे सपनों को ही देखा है। मुझे लगता है कि वे अपने सारे सपनों को तालों में बन्द कर देना चाहते थे, लेकिन किसी तरह कुछ सपने बच गये। कुछ सपने मुक्त हो गये। जैसे गाड़ी को देखती दुर्गा (पाथेर पांचाली उपन्यास में), एक बूढ़ी औरत, जो नींद के लिए तरसती है, एक बूढ़ा आदमी जो किसी तरह अपनी पेंशन पा सका। जंगल से बेदखल किये गये लोग, वे कहाँ जाएँगे। साधारण आदमी और उन के छोटे-छोटे सपने। जैसे कि नक्सली। उन का अपराध यही था कि उन्होंने सपने देखने का साहस किया। उन्हें सपने देखने की भी अनुमति क्यों नहीं है?
जैसा कि मैं सालों से बार-बार कहती आ रही हूँ, सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए। हाँ, सपने देखने का अधिकार।
यही मेरी लड़ाई है, मेरा स्वप्न है। मेरे जीवन और मेरे साहित्य में।


प्रस्तुति- प्रदीप मिश्र

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