Wednesday 10 December, 2008

भोर सृजनसंवाद अंक छः

जनता ने अपना फैसला खुद किया


लेखक - डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाँच राज्यों के चुनाव-परिणामों ने यह सिद्ध किया है कि भारत का लोकतंत्र काफी परिपक्व होता जा रहा है। किसी भी लोकतंत्र को कमजोर करनेवाले जितने भी तत्व हो सकते हैं, इन चुनावों ने उनको पराजित किया है। सबसे पहली बात तो यह कि लगभग सभी राज्यों में मतदान का प्रतिषत बढ़ा है। यह जनता की जागृति का प्रमाण है। दूसरी बात यह कि चुनावों में धांधली, हिंसा और पैसे का खेल भी अपेक्षाकृत कम ही हुआ है। इन पाँच राज्यों के अलावा जम्मू-कष्मीर में भी चुनाव हुए हैं और उन्होंने भी उक्त निष्कर्षों पर मुहर लगाई है।
मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के कारण चुनाव की चौपड़ उलट सकती थी। देष की प्रमुख पार्टियाँ मानकर चल रही थीं कि मुंबई की घटनाएँ मतदाताओं पर गहरा असर डालेंगी। काँग्रेस का सूँपड़ा साफ़ हो जाएगा और भाजपा की झोलियाँ भर जाएँगी। दोनों पार्टियों ने मतदान की वेला में अजीबो-गरीब विज्ञापन भी छपवाए लेकिन लगता है कि भारत की जनता ने गज+ब की गहराई का परिचय दिया। भावनाओं की लहर में वह बही नहीं। उसने आतंकवाद को राजनीतिक नहीं, राष्ट्रीय मुद्दा माना। उसे राष्ट्रीय विपत्ति मानकर उसने किसी भी दल को दोषी नहीं ठहराया। अगर वह दोषी ठहराना चाहती तो भी कैसे ठहराती ? अगर वह मुंबई को याद करती तो संसद और अक्षरधाम को कैसे भूल जाती ? इस तथ्य से क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि अगले लोकसभा-चुनाव में भी आतंकवाद कोई खास मुद्दा नहीं बनेगा ? यह कहना कठिन है, क्योंकि हमारे राजनीतिक दल आतंकवाद को मुद्दा बनाए बिना नहीं रहेंगे। यदि काँग्रेस सरकार पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव डलवा सकी और आतंकवादी अड्डों का सफाया हो गया तो वह उसका श्रेय वह क्यों नहीं लेना चाहेगी ? कोई आष्चर्य नहीं कि सारे पैंतरे विफल होने पर सरकार खुद ही उन अड्डों पर सीधा हमला बोलकर कुछ ऐसा जलवा दिखा दे कि वह प्रचंड बहुमत से चुनाव जीत जाए। इसका उल्टा भी हो सकता है। यदि सरकार को कोई सफलता नहीं मिले और इसी तरह की एकाध घटना और घट जाए तो यह निष्चित है कि चुनाव के पहले ही सरकार का सूर्यास्त हो जाएगा। राज्यों के चुनावों में आतंकवाद दरकिनार हो गया लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में शायद वह केंद्रीय मुद्दा बन जाए। कुछ राज्यों के चुनाव को संसद के चुनाव से जोड़ना यों भी उचित नहीं है। संसद के चुनाव तक पता नहीं कौनसा मुद्दा कैसे उछल जाए। अगर पाँचों राज्यों में काँग्रेस बुरी तरह से हार जाती तो शायद कुछ ठोस संकेत उभरते। अभी जो मिले जुले संकेत सामने आए हैं, उनके आधार पर कोई भी भविष्यवाणी करना उचित नहीं है।
पाँच राज्यों के इन चुनाव-परिणामों ने इस निष्कर्ष को अकाट्य रूप से पुष्ट कर दिया है कि मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेतृत्व को ही अपनी कसौटी बनाया है। उन्होंने न तो जातिवाद, न ही मजहब और न ही मंहगाई को मुद्दा बनाया। मंहगाई के सवाल को अगर जनता मुद्दा बना लेती तो काँग्रेस का दिल्ली, राजस्थान और मिजोरम में जीतना असंभव हो जाता, क्योंकि मंहगाई तो देषव्यापी प्रपंच बन गई थी। लगता है कि आम आदमी को आज भी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में पूरा विष्वास है। अपनी सारी कठिनाइयों के बावजूद वह मानकर चल रही है कि अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री की सरकार उसके लिए जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह किए बिना नहीं रहेगी। मंदी की लहर में डूब रहे दुनिया के समर्थ राष्ट्रों के मुकाबले भारत की स्थिति कहीं बेहतर है। यदि आम जनता की प्रतिक्रिया यही बनी रही तो अगले चार-छह माह में होनेवाले लोकसभा चुनावों में भी काँग्रेस का ज्यादा नुकसान होने की संभावना कम ही है।

इन चुनावों में जात का मोहरा भी रद्द हो गया। राजस्थान में जातीय वोट बैंक को मजबूत बनाने के लिए भाजपा ने काफी द्राविड़-प्राणायाम किया लेकिन वह किसी काम नहीं आया। उमा भारती का अपने जातीय गढ़ में हारना अपने आप में उल्लेखनीय घटना है। छत्तीसगढ़ में भी जातीय समीकरण मात खा गया। बसपा जात के आधार पर इतने वोट लेने का दम भर रही थी कि दिल्ली, मप्र और राजस्थान में जरूरत पड़ने पर गठबंधन सरकार बनाने के सपने देख रही थी। उसे भी निराषा ही हाथ लगी। उमा की व्यक्तिवादी और मायावती की जातिवादी राजनीति का पिट जाना इस बात का सबूत है कि आम मतदाता काफी समझदार हो गया है। वसुंधरा राजे की सरकार का हारना इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि लोकतांत्रिक शासन को सामंती शैली में चलाना भी लोगों को बर्दाष्त नहीं है। मध्यप्रदेष में षिवराजसिंह चौहान की जीत सरलता, निष्ठा और अध्यवसाय की जीत है। तीन-तीन मुख्यमंत्रियों के बदले जाने के बावजूद भाजपा सरकार का लौटना एक चमत्कार-जैसा है। इससे भी बड़ा चमत्कार दिल्ली में हुआ है। शीला दीक्षित का तीसरा बार लगातार मुख्यमंत्री बनना तो दिल्ली का ही नहीं, भारत का अजूबा है। ज्योति बसु के अलावा वह सौभाग्य किसे मिला है। शीला दीक्षित की कार्य-षैली, निष्ठा और सर्वसंग्रही वृत्ति ने उन्हें जनता से जोड़े रखा। लगभग यही लाभ छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह को मिला है। शीला दीक्षित, षिवराज चौहान और डॉ. रमन सिंह दुबारा चुने गए, यह यह सिद्ध करता है कि जनता हमेषा ही सत्तारूढ़ व्यक्ति को उखाड़ फेंकना जरूरी नहीं समझती। यदि सत्तारूढ़ नेता आम जनता के हितों की रक्षा करता है तो आम लोग उसे सहर्ष वापस लाते हैं।
किस पार्टी की क्या विचारधारा है, उसके शीर्ष नेता कौन हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है। भाजपा, काँग्रेस और अन्य दलों के सभी नेता सभी राज्यों में चुनाव-प्रचार करने गए थे और उनके नाम पर वोट भी माँगे गए थे लेकिन जनता ने बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े नारों और बड़े-बड़े सब्जबागों की बजाय अपने रोज+मर्रा के छोटे-छोटे अनुभवों को अपना भगवान बनाया। उसी के इषारे पर उन्होंने वोट डाले। जनता ने अपना फैसला खुद किया । इसी का नतीजा था कि मिजोरम की अत्यंत शक्तिषाली सरकार, जो दस साल से चली आ रही थी, कूड़ेदान में समा गई। मिजो नेषनल फ्रंट का भ्रष्टाचार उसे ले बैठा। राजस्थान में भाजपा और म.प्र. में काँग्रेस की अंदरूनी खींचतान का खामियाजा भी इन पार्टियों को भुगतना पड़ा लेकिन इन दोनों राज्यों में भी जनता के अंतिम फैसले का आधार सरकार का काम-काज ही था।
कुल मिलाकर राज्यों के इस चुनाव में काँग्रेस का फायदा हुआ है। काँग्रेस ने कुछ पाया है, भाजपा ने कुछ खोया है। कांग्रेस को दो नए राज्यों, राजस्थान और मिजोरम, में सरकार बनाने का मौका मिला है। यदि भाजपा ने म.प्र. और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार बचाई तो काँग्रेस ने दिल्ली में बचा ली। लोकसभा चुनावों में काँग्रेस का रास्ता आसान नहीं होगा लेकिन भाजपा का रास्ता पहले से भी अधिक कंटकाकीर्ण हो गया है।
(वेद प्रताप वैदिक हमारे समय के चर्चित चिंतक एवं स्तम्भकार हैं। उनका एक आलेख मेल द्वारा मुझे मिला और लगा कि मित्रों को भी पढ़वाना चाहिए। पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराऐं- प्रदीप मिश्र)

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