विचार सिंह घुड़ चढ़े आज वेहद नाराज थे। बार-बार दुष्यंत कुमार की शेर दोहरा हे थे - "सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं / मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मुझे देखते ही खूब जोर से चिल्लाए तुम बुद्धी जीवियों ने इस देश को डुबा दिया। जहाँ सोने की चिढ़िया करती थी बसेरा वहाँ अमरीका के कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, और चीन की बिल्ली तो बेधड़क घूम रही है। जो बचा खुचा है उसे पकिस्तान के स्यार नोंच रहे हैं। नेता तो अब इस देश में रहे नहीं और तुम बुद्धीजीवी लोग तो सरकारी पुरस्कारों और पूंजीपतियों के अनुदान पर मदहोश हो। अभी हाल में सुना है कि लेखकों में डालर का घुन भी लग गया है। सबके सब हमारे प्यारे देश को निपटाने में लगे हो। गद्दार हो तुम सब गद्दार।" कहते ह्ए वे गुटके की पीक थूकते हुए अपनी साइकिल पर सवार हुए और मेरा जवाब सुने बगैर आगे बड़ गए। मुझे समझ में आ रहा था। अभी - अभी हमने अपने गण तंत्र का ६२ वां उत्सव मानाया है और विचीर सिंह जी हर १५ अगस्त और २६ जनवरी के १५ दिन पहले से एक महीने बाद तक अत्यंत उत्साहित रहते हैं। इस दौरान वे आजादी से लेकर अभी तक की पूरी यात्रा के विश्लेषण करते रहते हैं। उनकी नाराजगी हमारे देश की आम जनता की आवाज में होती है। इसलिए उनको गम्भीरता सुनना जरूरी होता है। आज भी वे जो कुछ कह कर गए उसमें दम तो था। सचमुच दिन प्रतिदिन हम अपने सोरकारों से मुक्त होते जा रहे हैं। क्या गणतंत्र दिवस का मतलब सिर्फ इतना ही है कि डोर का खिंचना और झण्डे का फहर जाना। सैल्युट दागना और भाषणबाजी करना और फिर पार्टी-सार्टी कर लेना। यहाँ पर एक सवाल और खड़ा होता है कि क्यों होनी चाहिए इन राष्ट्र त्यौहारों पर छुट्टियाँ ? क्या जब इन छुट्टियों को बारे में निर्णय लिया गया होगा उसके पीछे यही पार्टी-सार्टी , पिकनिक-सिकनिक था या कुछ और ? कम से कम इन उत्सवों पर हम सबको अपना भी मूल्यांकन करना चाहिए कि हम कितने नागरिक बचे और पिछले वर्षभर में बतौर नागरिक जो जिम्मेदारियाँ अपने देश के प्रति थीं, उनको किस हद तक हम निभा पाए ? मुझे लगता है कि इस कटघरे में अगर खड़ा करें तो सबसे ज्यादा संदेहास्पद स्थिती हमारे समय के बुद्धीजीवियों की होगी। खैर यह सब सोचता हुआ मैं यादव के पान ठेले पर पहुँचा ही था और गुटके का डोज लेकर मुँह में डाला ही था कि विचार सिंह जी वापस पहँच गए। लगभग लड़खड़ते हुए साइकिल को स्टैण्ड पर लगाए और झूमते हुए मेरे पास आए और मेरी आंखों में आँख डलकर पूछा - "क्यों जनाब कुछ समझ में आया। बहुत बड़े कवि बने फिरते हो ना तो सुनों मंगलेश डबराल ने क्या लिखा है- एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है /मसलन कि हम इंसान हैं /मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सच्चाई बची रहे / सड़क पर जो नारा सुनाई देरहा है /वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ /मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे /जो फिर से उम्मीद पैदा करती है /अपने लिए /शब्द बचे रहें /जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते /प्रेम में बचकानापन बचा रहे /कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा.....। " इस बार वे पूरी ताकत से खड़े रहे और मेरी आँखों में आँख डालकर मेरे जवाब का इन्तजार कर हे थे और मेरे अंदर चन्द्रकांत देवताले की पंक्तियाँ गुँज रही थी- एक दिन मांगनी होगी हमें माफी।
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