नववर्ष पर पाँच कविताएँ
नववर्ष की शुभकामनाऐं
आज फिर टरका दिया सेठ ने
पिछले दो महीने से करा रहा है बेगार
फिर भी उसे उम्मीद है पगार की
हर तारीख़ पर
कुछ न कुछ ऐसा होता कि
अगली तारीख़ पड़ जाती है
जज-वकील और प्रतिवादी
सबके सब मिले हुए हैं
फिर भी उसे उम्मीद है
एक दिन जीत जाएगा
अन्याय के ख़िलाफ़ मुकदमा
तीन साल से सूखा पड़ रहा है
फिर भी किसानों को उम्मीद है
बरसात होगी
लहलहाऐंगे खेत
आदमियों से ज़्यादा लाठियाँ हैं
विकास के मुद्दों से ज़्यादा घोटाले
जीवन से ज़्यादा मृत्यु के उदघोष
सेवा से ज़्यादा स्वार्थ
फिर भी वोट डाल रहा है वह
उसे उम्मीद है, आऐंगे अच्छे दिन भी
अख़बार के पन्नों पर नज़र पड़ते ही
बढ़ जाता है चेहरे का पीलापन
फिर भी हर सुबह
अख़बार के पन्नों को पलटते हुए
उम्मीद होती है उन ख़बरों की
जिनके इंतज़ार में कट गए जीवन के साठ बरस
उम्मीद की इस परंपरा को
नववर्ष की शुभकामनाऐं
उनको सबसे ज़्यादा
जो उम्मीद की इस बुझती हुई लौ को
अपने हथेलियों की आड़ में सहेजे हुए हैं।
मंगल कामनाएँ
बच्चों की मुस्कान को
किसान के खलिहान को
औरतों के आसमान को
चिड़ियों की उड़ान को
नव वर्ष की मंगल कामनाएँ
देश के विधान को
संसद के ईमान को
जीवन के संविधान को
मनुष्य के सम्मान को
नव वर्ष की मंगल कामनाएँ
प्रेम के उफान को
हृदय की जुबान को
संस्कृति की आन को
धर्म के इमान को
नव वर्ष की मंगल कामनाएँ
कलैण्डर के दिनमान को
इतिहास के वर्तमान को
भविष्य के अनुमान को
भोर के अनुसंधान को
नव वर्ष की मंगल कामनाएँ।
मंगलमय स्वप्न
नव वर्ष मंगलमय हो
उस चमक का
जो पहली मुलाकात पर ही
भर गयी निगाहों में
उस पतवार का
जिसने मझधार में डगमगाती नइया को
किनारे के आगोश तक पहुँचाया
उस किरण का
जो अँधेरे के ख़िलाफ़
फूटी पहली बार
उस हवा का
जो ऐन दम घुटने से पहले
पहुँच गयी फेफड़ों में
उस स्वप्न का जो नींद टूटने के
एक क्षण पहले तक
मंगलमय था
नव वर्ष मंगलमय हो ।
यह तुम्हारी सुबह है
सुबह-सुबह सूरज की नन्हीं किरणें
खिले हुए चेहरों पर उतर आयीं हैं
खिड़कियों की दराज से आती हवा की शुद्धता
फेफड़ों में ताकत की तरह भर रही है
खेतों की तरफ जा रहे हैं किसान
गाँव त्यौहार की तैयारी कर रहा है
कारखानों से चू रहा है मजदूरों का पसीना
चूल्हों को इतमिनान है
अगले दिन की रोटी का
टहल कर घर लौट रहे हैं पिताजी
घर पाँव छूकर उनका प्रणाम कर रहा
सुबह की चाय के साथ अखबार
बेहतर दिनों के स्वाद की तरह लग रहा है
कलम के आस-पास जुटे हुए हैं अक्षर
वर्षों बाद एक प्रेम कविता के लिए
आग्रह कर रहे है ।
ये तुम्हारी सुबह है
तुम्हारी सुबह लिखने के लिए
दिन डूबने के बाद से ही
लैम्पपोस्ट की रोशनी में बैठकर
कविताएं पढ़ रहा हूँ।
एक जनवरी की आधी रात को
एक ने
जूठन फेंकने से पहले
केक के बचे हुए टुकड़े को
सम्भालकर रख लिया किनारे
दूसरा जो दारू के गिलास धो रहा था
खंगाल का पहला पानी अलग बोतल में
इकट्ठा कर रहा था
तीसरे ने
नव वर्ष की पार्टी की तैयारी करते समय
कुछ मोमबत्तियाँ और पटाखे
अपने जेब के हवाले कर लिए थे
तीनों ने एक जनवरी की आधी रात को
पटाखे इस तरह फोड़े
जैसे जता रहे हों कि
जिसे लोगों ने कल मनाया वह झूठ था
आज है असली नव वर्ष
दारू के धोवन से भरी बोतल का
ढक्कन यूँ खोला जैसे शेम्पेन की बोतल हो
वे पी रहे थे
काकटेल का मजा ले रहे थे
जूठे केक के टुकड़े खाते हुए
उन्होंने एक दूसरे को
नव वर्ष की शुभकामनाएँ दी
पीढ़ियों से वे सारे त्यौहार
इसी तरह मनाते आ रहे हैं
कलैण्डर और पंचांग की तारीख़ों को
चुनौती देते हुए ।
प्रदीप मिश्र, दिव्यांश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, इन्दौर-452013 (म।प्र।) फोन 0731-2485327, मो. 09425314126, mishra508@yahoo.co.in
1 comment:
तुम्हारी सुबह लिखने के लिए
दिन डूबने के बाद से ही
लैम्पपोस्ट की रोशनी में बैठकर
कविताएं पढ़ रहा हूँ।
vaah kya baat hai.
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