Friday, 22 February 2008
दानापानी लीलाधर मण्डलोई की नई कृति है।
2008 में इसे मेधाबुक्स ने प्रकाशित किया है।
अपनी बात
मैं एक गहरे संशय और भय के ऐन बीच
यह डायरी आपको (पाठकों को) सौंपता हूँ।
मुझे लगता है कि यह डायरी है भी और नहीं भी। - लीलाधर मण्डलोई।
कविता की पहली पंक्ति में शायद मंदिर था।
कविता की दूसरी पंक्ति में शायद ईश्वर था।
कविता की तीसरी पंक्ति में शायद मनुष्य था।
कविता की अंतिम पंक्ति में रक्त था।
रक्त में डूबी पंक्ति शायद कविता थी।
शायद कविता में डूबा एक पाठक था।
पाठक की आँखों में शायद क्रोध था।
शायद घृणा।
शायद कवि।
(डायरी का 83वाँ पन्ना शीर्षक “पाठक की आँख”)
Sunday, 10 February 2008
निराला के जन्मदिन पर
जन्म- 21 फरवरी 1899 (बसंत पंचमी)
मृत्यु- 15 अक्टूबर 1961
अभी न होगा मेरा अन्त।
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल बसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।
हरे-हरे ये पात
डालियां, कलियां कोमल गात ।
मैं ही अपना स्वप्न मृदुलकर
फेरूंगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्युष मनेहर।
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूंगा मैं
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं
द्वार दिखा दूंगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहां अनन्त –
अभी न होगा मेरा अन्त।
मेरे जीवन का यह प्रथम चरण,
इसमें कहां मृत्यु
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण-कल्लोलों पर बहता रे यह बालक मन
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त।
(निराला की कविता)
सचमुच तुम्हारे राग से ही आज हिन्दी कविता दिगन्त। तुम्हारी दी हुई दृष्ठि है। जो इस धुंधलके में हमें रास्तों का पता दे रही है। जन्मदिन (11 फरवरी 2008 बसंत पंचमी) पर कोटिशः प्रणाम।
Monday, 4 February 2008
राजू भिया मुम्बई वाले
बाबू राजू सलाम। सुना है कोइ फरमान जारी किए हैं।
हुजूर आप कुछ भी जारी कर सकते हैं। यूँ भी शेर के मांद में रहने वाला हाड-मास चूसने के अलावा कर भी क्या सकता है। लेकिन ध्यान रखना देश किसी के बापू की सम्पत्ति नहीं है।
आमची मुम्बई को आकार देने वालों में कम से कम तुम्हारे पसीने का एक कतरा भी नहीं बहा है। हाँ यहाँ की सुविधा को भोगने के श्रम से जरूर भीगे रहे हो।
तुम्हारा तो कोई अधिकार ही नहीं बनता। राजनीतिज्ञ हो और हमारे देश के संविधान से इतना अपरिचय। पहले कुछ पढ़-लिख लो, समूझ-बूझ लो जिंदगी को, समाज की खूबसूरती को। एक भारतीय की तरह समग्र देश को देखो। तब समझ में आएगा कि मुम्बई की खूबसूरती में देश का हर हिस्सा शामिल है।
किसको कहाँ से कितना अलग करने पर मुम्बई कितनी बदसूरत हो जाएगी इसकी सिर्फ कल्पना ही की जी सकती है। मुम्बई आमची सिर्फ एक दो से नहीं हजारों, लाखों, करोड़ों से है। सबके सब इतनी मराठी तो जानते हैं कि आमची मुम्बई ही बोलते हैं। जम्मु से कन्याकुमारी तक सारी भाषाओं की खनक होती है, तब मुम्बई आमची होती है। खैर तुमको अपने इस करतूत पर शर्म आनी चाहिए, लेकिन आएगी नहीं। क्योंकि इस निर्यात-आयात के युग में तुम्हारे महकमें ने सबसे पहले अपने शर्म का निर्यात करके, बेशर्मी के लिए मार्केट खेल दिया है। इसलिए तुमसे बात करने का यह तरीका सही नहीं है।
तुम तो यह गिनों कि मुम्बई में कितने मराठी, कितने भइयन, कितने सरदार, कितने मदरासी, कितने-कितने कौन-कौन से जाति के अंगूठे। अब देखो कि सबसे विवेकपूर्ण अंगूठा कौन सा उसे बाहर कर दो। फिर देखो कि कौन से अंगूठे को बाहर करने से कितने अंगूठे सालिड हो जाएंगे। फिर मंत्रियों में मुख्य होने के बाकी साम-दाम, दंड-भेद से तो आप भर पूर हैं ही। तो बात सालिड है गुरू। छा गे चारो-ओर धूरदर्शन से खबरदामों तक सब जगह तुमको सब उतार रहे हैं। वे सब जानते हैं कि आजकल राजनीति में जो उतरता हुआ दिखता है, वह चढ़ रहा होता है। जो चढ़ रहा होता है वह ढह रहा होता है। मनुष्यता की ढहती हुई संरचना पर बुलडोजर चलाते हुए तुमको कैसा महसूस हो रहा है। लिखना एक आत्मकथा जरूर। तुम्हारे पड़ोसी से ज्यादा बिकेगी। भई तुम्हारे पास तो सेना भी है। और मेरी तरफ एक पंक्ति और लिखना कि - मैं समय पर कालिख पोत रहा था और समय मेरे मुँह पर। मेरा नाम तो खूब हुआ, बदनामी के लिए तरस गया।
हुजूर आप कुछ भी जारी कर सकते हैं। यूँ भी शेर के मांद में रहने वाला हाड-मास चूसने के अलावा कर भी क्या सकता है। लेकिन ध्यान रखना देश किसी के बापू की सम्पत्ति नहीं है।
आमची मुम्बई को आकार देने वालों में कम से कम तुम्हारे पसीने का एक कतरा भी नहीं बहा है। हाँ यहाँ की सुविधा को भोगने के श्रम से जरूर भीगे रहे हो।
तुम्हारा तो कोई अधिकार ही नहीं बनता। राजनीतिज्ञ हो और हमारे देश के संविधान से इतना अपरिचय। पहले कुछ पढ़-लिख लो, समूझ-बूझ लो जिंदगी को, समाज की खूबसूरती को। एक भारतीय की तरह समग्र देश को देखो। तब समझ में आएगा कि मुम्बई की खूबसूरती में देश का हर हिस्सा शामिल है।
किसको कहाँ से कितना अलग करने पर मुम्बई कितनी बदसूरत हो जाएगी इसकी सिर्फ कल्पना ही की जी सकती है। मुम्बई आमची सिर्फ एक दो से नहीं हजारों, लाखों, करोड़ों से है। सबके सब इतनी मराठी तो जानते हैं कि आमची मुम्बई ही बोलते हैं। जम्मु से कन्याकुमारी तक सारी भाषाओं की खनक होती है, तब मुम्बई आमची होती है। खैर तुमको अपने इस करतूत पर शर्म आनी चाहिए, लेकिन आएगी नहीं। क्योंकि इस निर्यात-आयात के युग में तुम्हारे महकमें ने सबसे पहले अपने शर्म का निर्यात करके, बेशर्मी के लिए मार्केट खेल दिया है। इसलिए तुमसे बात करने का यह तरीका सही नहीं है।
तुम तो यह गिनों कि मुम्बई में कितने मराठी, कितने भइयन, कितने सरदार, कितने मदरासी, कितने-कितने कौन-कौन से जाति के अंगूठे। अब देखो कि सबसे विवेकपूर्ण अंगूठा कौन सा उसे बाहर कर दो। फिर देखो कि कौन से अंगूठे को बाहर करने से कितने अंगूठे सालिड हो जाएंगे। फिर मंत्रियों में मुख्य होने के बाकी साम-दाम, दंड-भेद से तो आप भर पूर हैं ही। तो बात सालिड है गुरू। छा गे चारो-ओर धूरदर्शन से खबरदामों तक सब जगह तुमको सब उतार रहे हैं। वे सब जानते हैं कि आजकल राजनीति में जो उतरता हुआ दिखता है, वह चढ़ रहा होता है। जो चढ़ रहा होता है वह ढह रहा होता है। मनुष्यता की ढहती हुई संरचना पर बुलडोजर चलाते हुए तुमको कैसा महसूस हो रहा है। लिखना एक आत्मकथा जरूर। तुम्हारे पड़ोसी से ज्यादा बिकेगी। भई तुम्हारे पास तो सेना भी है। और मेरी तरफ एक पंक्ति और लिखना कि - मैं समय पर कालिख पोत रहा था और समय मेरे मुँह पर। मेरा नाम तो खूब हुआ, बदनामी के लिए तरस गया।
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