Friday 10 October, 2008

भोरसृजन संवाद-5

भोरसृजन संवाद अंक-5 इंदौर,10 अक्टूबर 2008



सम्पादकीय,

मित्रों भोर जब होती है, खिड़कियाँ खुलतीं हैं। खिड़कियों से उतरती हुई भोर, फिर आपके सामने है। रामविलास शर्मा हमारे समय का एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो हिन्दी समीक्षा में कई खिड़कियाँ खोलता है। उनके जन्मदिन दस अक्टूबर 2008 को भोर के नये अंक के साथ हम उपस्थित हैं। भोर मेरा और अरूण आदित्य का सपना था, जो पूरी मित्र मण्डली का भी साझा सपना बन गया था। प्रदीप कांत, देवेन्द्र रिणवा के अलावा रजनी रमण शर्मा को फिर खूजाल उठी है। बाकी रही-सही अगली बार। सो पत्रिका का यह अंक............

प्रदीप मिश्र – अरूण आदित्य


सामग्री :
डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिध्दांत – राकेश शर्मा

कहानी नकारो – सत्यानारायण पटेल

कहानी संग्रह भीम का भेरू........ की समीक्षा – शशिभूषण
टाँड से आवाज से कुछ चुनी रचनाएं- कवि जितेन्द्र चौहान



डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिध्दांत

डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म १० अक्टूबर १९१२ में हुआ था। १९३३ में वे सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” के संपर्क में आए और १९३४ में इन्होंने निराला पर एक आलोचनात्मक आलेख लिखा जो रामविलासजी का पहला आलोचनात्मक लेख था। यह आलेख उस समय की चर्चित पत्रिका चाँद में प्रकाशित हुआ। सन् १९३८ में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे निरंतर सृजनोन्मुख रहे। अपनी सुदीर्घ लेखन यात्रा में लगभग १०० महत्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन किया जिनमें “गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ”, “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश”, “निराला की साहित्य साधना”, “महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण”, “पश्चिमी एशिया और ऋगवेद” “भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद”, “भारतीय साहित्य और हिन्दी जाति के साहित्य की अवधारणा”, “भारतेंदु युग”, “भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी” जैसी कालजयी रचनाएँ शामिल हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में साहित्य अपने समय, समाज, अर्थ, राजनीति और इतिहास की समग्रता के साथ होता है। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जांचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के समग्र रचनात्मक संविधान के साथ कितना न्याय किया है।

इतिहास की समस्याओं से जूझना उनकी पहली प्रतिबद्धता है। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने मे जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आये हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गये थे। वे लिखते हैं - “दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन-अभियानों की सहस्त्राब्दी है। इसी के दौरान भारतीय आर्यों के दल ईराक से लेकर तुर्की तक फैल गए। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूंजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई हैं, जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना हैं। भुखमरी, अशिक्षा, अंध-विश्वास और नये-नये रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है। यह प्रयास जब भी हो अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नये सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्न से जुड़ा हुआ है”। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २०)

भारतीय संस्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलासजी ने किया है, उसमें उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है। शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है। वे लिखते है - “ सन् १७८६ में ग्रीक, लेटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था - ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृध्द है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है। पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्वास किये बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्त्रोत से जन्में हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडोयूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। १९ वीं सदी के पूर्वार्ध्द में तुलनात्मक और एतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है, अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी एतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है। अंग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने १८३३ में लिखा था - हम निश्चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटेलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल है जिनकी आधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अंग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है, और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिविंबित है। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २१)
डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अंग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड़यंत्र मानते हैं। उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है, तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अंग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज्य कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अंग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बांटकर ही अंग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है।


राकेश शर्मा “मानस निलयम”, एम-२, वीणानगर,इन्दौर-४५२ ०१० (मध्यप्रदेश)। मो. न. 09425321223

सत्यनारायण हमारे समय के एक संभावनाशील युवा कथाकार हैं। ग्रामीण परिवेश के की संवेदनाओं को स्वर देने में सत्यनारायण का नाम विशेषतौर पर लिया जा रहा है। इनकी कहानियाँ हम लगातार हन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं हँस, कथादेश, बया और शब्द संगत आदि में पढ़ते रहते हैं। सत्यनारायण की पहली किताब में कुल छः कहानियाँ हैं और 144 पृष्ठ। संयोग से शशिभूषण की एक समीक्षा हाथ लग गई। पहले सत्यनारायण की एक कहानी जो हाल ही में शब्द संगत में प्रकाशित हुई थी। - सम्पादक



नकारो



(लेखक – सत्यनारायण पटेल - मो.-०९८२६०९१६०५)

-तू निरखी (शुद्ध) बाँछड़ी राँड है कँई ? कि थारा मग़ज में गू भर्यो है ? रोटी खाय है कि गोबर ? इतरी अक्कल नी है कि अपनी सास की उमर की बैराँ (औरत) से कोई चीज् को नकारो (इनकार) नी करे ?

यह गालियाँ कंचन माय ने एक साँस में दी थी। दी क्या थी ? हाथ हिला-हिलाकर और चेहरे पर अजीब-अजीब से डरावने भाव लाते हुए मारी थी- जैसे खजूर की घढ़ में भाटे मारकर खजूरे खिरा लेते हैं। जैसे जामुन की पतली टहनी पर ज़ोर से डंडा मारकर लुम सहित टहनी को तोड़ लेते हैं। लेकिन कंचन माय गालियों के भाटे (पत्थर) खजूर या जामुन खिराने के लिए नहीं मार रही थी। वह तो इन भाटों से ही अपनी बहू काँवेरी का माथा रंग देना चाह रही थी।

काँवेरी बहू थी, लेकिन आजकल में ब्याही नवी-नवेली बहू नहीं थी। वह दो बेटों की माँ थी। उसे अपनी सास के घर का पानी पीते-पीते पूरे दस बरस हो गये थे; और किसी शरीफ गाय की गोनी तो वह पहले से नहीं थी। वह गालियाँ बकने में कुशल थी। गालियों से ही जंग जीत लेने की कला काँवेरी ने अपनी जी (माँ) से सीखी थी। इस हुनर में उसकी जी (माँ) बड़ी ठावी (बदनाम-मशहूर) थी। उससे गाँव की बेटियाँ और बहुएँ भी गालियाँ सीखती थी। उसके लिए गालियाँ देने का मतलब था- साँस लेना। अपनी दक्ष गुरू और जी से काँवेरी ने बचपन में जितनी गालियाँ सुन-सीख ली थी, उतनी किसी-किसी के लिए पूरी उम्र में भी संभव नहीं थीं। जब इस क़दर निपुण बहू पर कंचन ने गालियों के भाटे मारे, तो वह कैसे चुप रह सकती थी ? उसके लिए चुप रहने का मतलब अपनी जी की सीख और दूध को लजाना था। तैरना जानते हुए भी डूब मरना था, जो पानीदार काँवेरी के लिए संभव नहीं था ?

उस दिन कंचन ने जैसे ही गालियों का पहला भाटा फेंका, आँगन में बैठकर बर्तन माँजती काँवेरी ने हाथ के भरतिये (हाँडी नुमा काँसे का गोल बर्तन) को ज़ोर से दरवाजे की ओर फेंका। जो इस बात का संकेत था कि भाटा उसके कपाल से टकराया है। भाटा कितनी ज़ोर से टकराया, इस बात का अँदाज़ा भरतिये को फेंकेने की ताक़त के अनुमान से लगाया जा सकता था। गोल-गोल भरतिया तेज़ दौड़ती गाड़ी से निकले पहिये की भाँति आँगन की देहरी की ओर लुढ़कता जा रहा था। देहरी से टकराकर भी भरतिया रुक जाता तो बात और थी, लेकिन वह तो देहरी को लाँघ गया था। सेरी में खड़े-खड़े गालियों के भाटे फेंकती कंचन की ओर लुढ़कता जा रहा था। भरतिये को अपनी ओर तेज़ी से लुढ़कर आता देख, कंचन इधर-उधर हटती, तब तक तो वह उसके पाँव में पहनी चाँदी की कड़ियों से टकरा गया था। टकराने के बाद बमुश्किल रुक तो गया था, पर झन्नाहट नहीं गयी थी। झन्नाहट तो कंचन को भी पाँव की कड़ियों से लेकर माथे पर झूलते काँसे के बोर तक हो रही थी। वह दरवाज़े की ओर इतनी उतावली से बढ़ी जैसे कोई कँडों के अँगारों पर चूल फिरते वक्त़ चलता है।

उस दिन घर पर वे दोनों ही थीं। काँवेरी के छोरे ढोरों को कुएँ पर ले गये थे। उसका लाड़ा (पति) और सुसरा (ससुर) बैलगाड़ी लेकर खेत पर गेहूँ का सुक्ला-भूसा लेने गये थे। वे अभी-अभी ही खाना खाकर गये थे। काँवेरी उन्हीं के झूठे बर्तन माँज रही थी। तभी घूरे पर गोबर की हेल फेंककर कंचन लौटी थी; और उसके साथ थी कौशल्या माय।

कौशल्या माय के हाथ में थी मिट्टी की दोणी; और कंचन माय के हाथ में खाली छाब (टोपला) थी-था। जब कंचन माय के पाँव की कड़ियों से भरतिया टकराया, तो कंचन माय ने छाब को ज़ोर से एक तरफ़ सन्ना दिया था। उसके छाब को सन्नाने के बहादुराना अँदाज़ की कौशल्या माय भी कायल हो गयी थी। कौशल्या माय भी थी तो कंचन की ही दँई (समान उम्र) की और दो-दो बहुओं की सास भी, लेकिन वह कभी उन्हें डाँट भी नहीं पायी थी। लेकिन कंचन को देख कर तो वह चकित रह गयी थी। कंचन के पास कैसी-कैसी नुकीली गालियों का जखीरा था। कभी मौक़ा पड़े तो वह दुबले-पतले को तो गालियों की कत्तल से ही मार डाले; और उस क्षण तो कौशल्या माय की आँखें फटी की फटी रह गयी थी, जब छाब को सन्नाने के जवाब में काँवेरी ने थाली को सुदर्शन चक्र की तरह घूमाकर फेंकी थी। थाली तो किवाड़ की बारसाख से टकराकर अधबीच में ही रुक गयी थी। लेकिन थाली की झन-झनाट के साथ-साथ कौशल्या माय भी काँप उठी थी। उसके हाथ से मिट्टी की दोणी छूटकर गिर पड़ी और टूकडे-टूकडे हो गयी थी। फिर काँवेरी ने राख में लिथड़ी हथेलियों को एक-दूसरी पर मारी। हथेलियों से कुछ राख झरी; और इतनी ज़ोर से साँस भीतर खींची कि कौशल्या माय ने खुद को हवा के साथ काँवेरी के नकसुर की ओर खींचाती महसूस किया। जब खींची साँस को काँवेरी ने छोड़ा, तो हवा के साथ-साथ कौशल्या ने खुद को पीछे धकियाती महसूस किया।

कौशल्या माय बीच-बचाव में कुछ बोले, उससे पहले सास-बहू सेरी में आमने-सामने खड़ी हो गयी। उनका खड़े रहने और एक-दूसरी पर गालियों से वार करने का ढँग इतना कसा हुआ था कि किसी तीसरे को दखल देने की कोई गुँजाईश नहीं थी। सो कौशल्या माय दखल देने का मौक़ा तलाशती उन्हें देख-सुन रही थी। उसके मन में कहीं यह कसमसाहट भी थी कि यह सब उसकी वजह से ही हो रहा था।

-हूँ (मैं) बाँछड़ी है। म्हारा मग़ज में गू भर्यो है। तू म्हारी सौत नज (अच्छी) अक्कलमंद है। तू रँडी बड़ी साजोक (शरीफ) की मूत है। काँवेरी ने सूरज जैसे दहकते अपने मुँह से दाँत पिस-पिसकर जवाब दिया था।

-हूँ रँडी है, तने म्हारे किकी साथे सोते देखी, बता ? किका ब्याव में नाचते देखी, बता ? बता नी तो थारो चाचरो (मुँह) तोड़ दूआँ। कंचन ने कहा था।

उसे यह बात बहुत बुरी लगी थी। बाखल की कोई हम उम्र यह बात कहती, तो उसे शायद कम बुरी लगती, लेकिन बहू ने कही, तो आर-पार हो गयी थी। उसने अपने एक पैर से टायर की चप्पल निकाल ली और काँवेरी पर तानती बोली- अभी बता, तने किकी साथ में सोते देखी, तू तो म्हारो खस्सम बता।

-तो तू म्हारो खस्सम बतय दे ? काँवेरी ने पलटकर प्रश्न दागा।

-हूँ कोई थारी चौकीदारी करूँ, जो बतऊँ, कजा काँ खाल-खोदरा में मूँडो कालो करी आवे। कंचन ने कहा था

-तो गोबर खाते कद देखी यो बतय दे ? काँवेरी ने फिर पूछा।

-तू म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो फिर सतरह जगह बिंद्यो है। कंचन ने कहा।

कंचन का यह कहने का मतलब साफ़ था कि अगर काँवेरी उसकी बात नहीं सुनेगी। अगर उसकी बात का मान नहीं रखेगी। अगर उसके सामने चपर-चपर और आड़ासूड़ बोलेगी, उसकी सास बनने की कोशिश करेगी, तो फिर वह उसे नहीं बख्शेगी। उसके मुँह में सतरह छेद है। हर छेद से वह काँवेरी की पोल खोलेगी। वह उसे बाखल, गाँव में मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी।

-तू भी म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो हूँ भी अभी सब उघाड़ी ने पटकी दूआँ। काँवेरी ने इस अँदाज़ में चेताया कि जानती वह भी बहुत कुछ है, पर कह नहीं रही है।

-तू घणी छौला चड़ी है। थारी जिबान भी ज्य़ादा लम्बी हुईगी है। थारी जिबान के खेंची के थारी उकमें नी घूसेड़ी दूँ, तो गाम का भंगी भेले सोऊँ। कंचन ने तमतमाकर कहा था।

-तू तो दूसरा का साथ में सोने को बहानो ढूँढेज है ! पर म्हारी सुनी ले, या जो थारी खूब उकलासा खई री है नी, इमें बलतो बाँस नी घूसेड़ दूँ, तो काला कुतरा की टाँग नीचे निकली जऊँवा। काँवेरी ने कहा था।

-आज तो तू आने दे म्हारा छोरा के, म्हारा घर को माल खई-खई के, इ जो थारा ढेका (कूल्हे) गदराना है नी ? इन पर काँदो नी कटायो, तो हूँ म्हारा बाप का मूत नी। कंचन ने कहा था।

कौशल्या माय ने कंचन और काँवेरी की गालियों के ज्ञान का बखान तो कई बार सुना था, पर रूबरू सुनने का यह पहला ही मौक़ा था। एक क्षण तो उसके मन में आया कि अब जब उसकी पड़ोसन उसे गालियाँ देगी, तो वह अपनी तरफ़ से गालियाँ देने को कंचन माय और काँवेरी को बुला लेगी।

दोनों एक-दूसरे को भिट पर भिट मार रही थी। न कंचन हार मान रही थी, न काँवेरी पीछे हट रही थी। उन दोनों को लड़ते देख कौशल्या माय को अपनी बाँगड़ भैंसों की याद हो आयी थी। कौशल्या माय की भैंसे इतनी उतपाती और उजाडू थी कि पूरा गाँव उन दोनों भैसों के कारण परेशान रहता था। उन बाँगड़ भैसों की वजह से ही कौशल्या माय की ओड़क बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या पड़ गयी था।

जब भैंसे बेची नहीं था, तब कौशल्या माय और उनके धणी ने खूब धत्तकरम किये कि भैंसे गाबन हो जाये। उन्हें घर की झूठन से भरे कुण्डे के पानी में मिलाकर देसी अन्डे पिलाये। उनके बाँटे में कई बार भिलामा मिलाकर खिलायी आदि आदि लेकिन वे बाँगड की बाँगड़ ही रही। कभी उनकी सिरावन (भैंस की योनि) से घी के रंग का तार नहीं लटका। वे कभी उस बेचैनी से नहीं रैंकी। कभी कौशल्या माय और उनके धणी (पति) ने पाड़े (भैंसा) के आगे जबरन खड़ी कर दी। तो उन्होंने कभी पाड़े को अपनी पीठ पर टाँगे नहीं धरने दी। कभी गाबन नहीं हुई। कभी पाड़ा-पाड़ी नहीं जनी। जैसे उन्होंने ठान लिया था कि वे कभी इस लफड़े में नहीं पड़ंेगी। अंतत: कौशल्या माय और उसके धणी ने उम्मीद छोड़ दी कि अब ये कभी गाबन नहीं होगी। अगर वे गाबन हो जाती। तो उनके अँवाड़े भरी चड़स की तरह दिखते। उन बाँगड़ों का नाक-नक्श तो ठीक था ही, बस; बोटरा-बोटरा भर के बुबु (थन), अगर गिलकी की तरह लम्बे और फूले होते, तो कौशल्या माय के वारे-न्यारे हो जाते। उनकी ओड़क (पहचान) भी बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या माय नहीं पड़ती। लोग खुशी-खुशी उनकी दाढ़ी में हाथ घालकर बीस-बीस हजार रुपये में खऱीद ले जाते। लेकिन बाँगड़ों को कसाई के सिवा कौन ख्ा़रीदे ? अंतत: एक दिन कसाई के सुपुर्द कर दी थी, बाँेगड़ भैंसे न रहने पर भी कौशल्या माय की ओड़क वही रही थी। दरअसल उन भैंसों को कोई भूलता ही नहीं था, उनकी लड़ाइयाँ गाँव में मशहूर थी।

जब वे लड़ती थी, तो उनकी लड़ायी देखने लायक होती थी। एक-दूसरे पर फूँफाती और दौड़-दौड़ कर भिट मारती थी। वे लड़ते-लड़ते फसर-फसर पादती। गोबर कर देती। छलल-छलल मूतने लगती। लेकिन पीछे नहीं हटती। उनकी लड़ायी रुकवाने को कभी-कभी तो दो-तीन जवान पट्ठों को लट्ठ लेकर बीच में कूदना पड़ता था।

जब उस दिन कौशल्या माय ने कंचन और काँवेरी को उसी जज्बे और ताव के साथ लड़ते देखा, तो अनायास ही बाँगड़ भैंसों की याद हो आयी थी। वह सोच रही थी कि उन्हें समझाने की कोशिश करे। क्योंकि वे उसी की खातिर तो लड़ रही थी। लेकिन वह नहीं चाह रही थी कि छोटी-सी बात के पीछे इतनी देर तक लड़ा जाये। उसे लग रहा था कि कंचन-काँवेरी की बाखल में बेवजह उसका नाम बदनाम होगा। बाखल की बहुएँ कहेंगी कि बाँगड़ भैंस वाली कौशल्या माय के कारण काँवेरी को उसकी सास ने जमाने भर की खरी-खोटी सुनायी। सास कहेंगी कि बाँगड़ भैंस वाली के कारण एक अधेड़ सास कंचन का उसकी बहू ने माजना ख्ा़राब कर दिया। वह चाह रही थी किसी भी तरह दोनों की लडायी टूटे। पर कैसे टूटे ? उनके बीच में कौन पड़े ? बाखल वाली तो सब उनकी आदत से वाकिफ़ थी कि अगर कोई बीच में पड़ी, तो वे दोनों एकजुट होकर उस पर टूट पड़ेंगी। 'कहीं ये दोनों मुझ पर टूट पड़ी तो भागने की बाट भी न मिलेगी` कौशल्या ने सोचा और अपने भीतर उन्हें लड़ने से बरजने (मना करना, रोकना) का साहस बटोरने लगी।

-बेन चुप हुई जाओ। मत लड़ो। बीच में जरा-सा मौक़ा देख कौशल्या माय ने साहस किया। दोनों के पास जाकर बोली- लड़ाई को मूँडो (मुँह) कालो। इससे नी होय कोई को भलो।

-तू बेन (बहन) एक बाजू रुक ज़रा। पहला इकी मस्ती उतारने दे। या घणी मस्तानी है। कंचन माय ने कौशल्या माय से कहा था। और फिर काँवेरी की ओर घूरती बोली- इकी हिम्मत तो देखो ? सास के जीते-जी नकारा (इनकार) करने लगी।

-कोई बात नी बेन, नकारो कर दियो तो, नी होगी तो नकारो कर दियो। कौशल्या माय ने कहा था। वह कंचन को समझाती बोली- उका नकारा को बुरो भी नी लागो, वा भी म्हारी बहू बराबर है। नकारो करी भी दियो तो कोई बात नी।

-अरे नी, इकी दोणी फोडँ इकी। इने म्हारा होते-सोते नकारो कैसे कर्यो। कंचन ने फिर ताव खाकर बोला था। वह कौशल्या माय की ओर इशारा करती बोली- तू रुक बेन, हूँ आज फेनल करके ही दम लूआँ।

अब तक उनकी सेरी में बाखल की कईं औरतें आ गयी थीं। वे आस-पास खड़ी होकर कंचन और काँवेरी का झगड़ा देख रही थीं। फिर कंचन आसपास खड़ी औरतों की ओर देखकर बोली- सास हूँ (मैं) है कि या ? हूँ हेल फेंकने घूड़ा तक गयी, इत्ती देर में कौशल्या माय के नकारो कर द्यो। म्हारी इज्ज़्त ही कँय री गयी ?

आसपास खड़ी औरतों में रामप्यारी माय और उनकी बहू भी खड़ी थी। रामप्यारी माय की बहू ब्याह के बाद पहली बार ही ससुराल आयी थी। उस वक्त़ वह अपने घर के आँगन में गेहूँ से काँकरे बीन रही थी। उसने झगड़े की आवाज़ सुनी और देखा कि उसकी सास उतावले क़दम से बाहर निकली। तो वह भी सास के पीछे-पीछे बाहर चल पड़ी थी। रामप्यारी माय बारह-पन्द्रह क़दम आगे चल रही थी और उसकी बहू पीछे। रामप्यारी माय ने देखा नहीं कि बहू भी पीछे-पीछे चली आयी। जब वहाँ औरतों की भीड़ में देखा, तो वह बहू के पास गयी। उसे भीड़ से एक बाजू बुलाया और बोली-तू यहाँ क्यों आयी ? ये तो दोनों छीनालें हैं। इनने तो लाज-शरम को काटी के ढेका पाछे धर ली है, तू जा अपनो काम कर। हूँ भी अय री थोड़ी देर में। वह चली गयी। जाकर फिर से गेंहूँ में से काँकरे चुन-चुन अलग करने लगी।

रामप्यारी माय वहीं डँटी थी। उनकी बगल में काँता माय भी खड़ी थी। रामप्यारी माय ने काँता माय से पूछा- क्यों माय यो झगड़ो किनी बात पर है।

-कँई मालम बेन, म्हने इनकी भूषणे की आवाज़ सूनी, तो चली आयी। काँता माय ने कहा और फिर दबे स्वर में बोली- इ राँडना तो आये दिन लड़ती-भिड़ती ही रहती है। जब कोई और नी मिले, तो दोय आपस में ही लड़ने को रियाज करे।

'पर आज क्या हुआ है ? और कौशल्या माय क्यों खड़ी है ?` रामप्यारी ने सोचा और वह कौशल्या माय के पास चली गयी।

रामप्यारी माय उस बाखल में तो क्या, पूरे गाँव में न्यारी ही थी। उसे झगड़ा देखना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन झगड़े की कहानी सुनने-सुनाने का चुरुस रहता। उसका कहानी समझने और सुनाने का अँदाज़ भी न्यारा रहता। जब वह किसी और से सुनी कहानी भी खुद सुनाती, तो उसका अर्थ ही बदल जाता। उस दिन भी उसने अपने इसी स्वभाव के चलते कौशल्या माय से झगड़े की असल जड़ को जानने की कोशिश की थी।

कौशल्या माय ने बताया था कि कोई खास बात नहीं थी। आज मेरी बहू ने ज्वार की रोटी बनायी है। मैंने सोचा-ज्वार की रोटी के साथ खाटा राँधाना ठीक होगा- बेसन और भटा (बेंगन) का खाटा (कड़ी जैसा, पर कड़ी नहीं)। घर में सब सामान है। बस, छाछ नहीं है। छाछ कंचन माय के यहाँ अक्स़र मिल जाती है। यही सोचकर मैं दोणी लेकर चली आयी। और उसने कहा कि जब वह कंचन माय के घर आयी। कंचन माय घर में नहीं थी। काँवेरी थी। उसने काँवेरी से छाछ माँगी ली। काँवेरी ने उससे चाय-पानी का पूछा। बातचीत भी ठीक करी। पर छाछ का नकारा कर दिया।

-कँई बोली काँवेरी ? रामप्यारी माय के स्वर में आगे जानने की जिज्ञासा थी।

-बोली कि छाछ आज ही खुटी (समाप्त हुई) है, सवेरे एक डेढ लीटर छाछ थी, पर वी रोटी खईने सुक्लो भरने गया, तो पीता गया। और ये भी कहा- अब एक कप भर छाछ है, तो वा जम्मुन का काम आवेगी। बस म्हारी तो काँवेरी से इतरी ही बात हुई।

-घर में छाछ नी होगी तो नकरी गयी, फिर झगड़ा किस बात का ? रामप्यारी माय ने भीतर ही भीतर खुद से पूछा था और कुछ समझ नहीं आया, तो फिर कौशल्या को कुरेदा।

बात कौशल्या माय की भी समझ नहीं आ रही थी। लेकिन उसने यह बताया कि जब वह वापस खाली दोणी लेकर अपने घर जा रही थी। उसे रास्ते में कंचन मिल गयी। वह घूड़े पर गोबर की हेल फेंककर खाली छाब लिये लौट रही थी। जब दोनों नज़दीक आयी, तो कंचन ने ही पूछा- काँ से आ रही है बेन ?

-बेन थारा घर ही गयी थी छाछ लेने। कौशल्या माय ने कहा था।

-छाछ लेने गयी थी, तो थारी दोणी तो खाली ? कंचन माय ने खाली दोणी पर नज़र मारते पूछा था।

-हाँ बेन, काँवेरी ने क्यो (कहा) कि छाछ नी है। कौशल्या माय कहती हुई जाने को हुयी।

-उनी करम खोड़ली की या मजाल कि म्हारा होते-सोते, थारे छाछ को नकारो कर द्यो ? कंचन माय ने ताव में आकर कहा था।

-नी होगी, तो नकारो कर द्यो, इमे कँई बड़ी बात। कौशल्या माय ने बात टालते हुए कहा- कहीं और से ले लूँगी, गाँव में एक दोणी छाछ नी मिलेगी कँई ?

-नी बेन, असो कदी (कभी) हुओ ? तू म्हारी साथ में चल, हूँ भी तो देखूँ, थारे कैसे छाछ नी दे ! कंचन माय उसे वापस पलटाकर अपने घर तरफ़ ले चली थी।

कौशल्या को लगा कि छाछ होगी, काँवेरी ने जान बूझकर नकारा कर दिया होगा। लेकिन काँवेरी ऐसा क्यों करेगी ? कौशल्या ने तो कभी घर में चीज़ होते हुए नकारा नहीं किया। चार दिन पहले ही काँवेरी के यहाँ पावणे (मेहमान) आ गये थे। घर में शक्कर नहीं थी। कौशल्या माय ने पाँच कटोरी शक्कर दी थी। अभी तो वह लौटायी भी नहीं है। नहीं होगी, तभी उसने नकारा किया है। कौशल्या ने मन ही मन सोचा था, पर कंचन माय मान ही नहीं रही थी, तो उसके साथ वापस आ गयी थी। वह तभी से देख रही थी कि दोनों सास-बहू आपस में गाली के गोले इधर से उधर दागे जा रही है।

-लेकिन थारे छाछ मिली कि नी मिली ? रामप्यारी माय ने फिर पूछा था।

-अरे बेन, अभी छाछ तो मिली नी, दोणी और फूटी गयी। उसने अपनी फूटी दोणी की ओर इशारा करते हुए कहा था।

-लेकिन कंचन का घर में छाछ है भी कि नी ? रामप्यारी माय ने पूछा था।

ऱ्ये तो अभी पता ही नहीं चला है। कौशल्या माय बोली- इनकी बक-बक बंद हो तो पूछूँ ।

कंचन और काँवेरी का झगड़ा देखने-सुनने वाली औरतों में दो-तीन जवान छोरियाँ और बहूयें भी खड़ी थी। जवान छोरियाँ जिनके अभी-अभी ही ब्याह हुये थे। अभी कंचन जैसी सास के पाले नहीं पड़ी थी, वे आपस में फुसफुसाकर बात करती। हँसती। एक-दूसरे से कहती- ये बोल-बचन याद कर लो, ससुराल में काम आयेंगे। जो अधेड़ औरतें खड़ी थीं उनमें से रामप्यारी माय को छोड़, किसी में इतनी सूझ और साहस नहीं था कि कंचन और काँवेरी को डपटकर या समझा-बुझाकर चुप करा देती।

फटे में पाँव डालने की आदत रामप्यारी माय को ही थी, इसलिए उसी ने इस गुत्थी को सुलझाने और समझने का जोखिम उठाया। उसने अपने साथ कौशल्या माय का भी हौसला बढ़ाया। दोनों मिलकर कंचन और काँवेरी को घर में ले गयी। उन्हें जैसे-तैसे चुप कराया। बाहर खड़ी औरतें अपने-अपने घर चली गयी और अपने काम निपटाने में जुट गयी। कंचन माय के घर में वे चारों औरतें थी। कौशल्या माय और कंचन माय आपस में बात कर रही थी, तब तक रामप्यारी माय भीतर से एक जग में पानी ले आयी। वे दोनों रामप्यारी माय से बड़ी थी, इसलिए वह उनकी सेवा में बगैऱ कहे जुट गयी थी। रामप्यारी उनसे छोटी ज़रूर थी, पर वह ठंडा पानी छीड़कना जानती थी। उन्हें पानी पिलाने के बाद वहीं से बोली- काँवेरी चाय को पानी चढ़य दे। हम चाय पी कर ही जावाँगा।

कौशल्या माय चाह रही थी कि चाय बन रही है। तब तक छाछ ले ली जाये, ताकि चाय पीने के बाद तुरंत चला जा सके। उसका छोरा और धणी भी खेत बखरने गये हैं। उसकी बहू को खाना लेकर खेत पर जाना है। वह देर नहीं करना चाह रही थी। सो उसने कंचन से कहा- छाछ दे दे बेन।

-अभी कौन-सी ज़ल्दी पड़ी है। चाय बन रही है, चाय पी ले, फिर ले लेना। रामप्यारी ने कहा।
काँवेरी का चाय बनाने का तरीका, बिरबल के खिचड़ी बनाने के तरीके जैसा नहीं था, इसलिए चाय ज़ल्दी ही बन गयी थी। रामप्यारी माय चाय से भरे कप उठा भी लायी। तीनों आँगन में बैठकर चाय पीने लगी। काँवेरी भी अपना कप लेकर आँगन में आ गयी। अब आँगन में तीन सास और एक बहू बैठी थी।
-बेटा तू छोटी है। बहू है। सास को ऐसे मत बोला कर। कौशल्या माय ने कहा।
-सास तो माय बराबर होवे है कंचन माय, तम तो दानी (बुर्जुग) बैराँ हो सब जाणो-बूझो, दूसरा की छोरी के अपन घर में लावाँ, पर उके भी अपनी छोरी जैसी ही राखनी पड़े। रामप्यारी ने कहा था।
-अरे बेन म्हारे खुद अच्छो नी लागे। म्हारी बहू, म्हारी इज्ज़्त है। अपनी जाँघ अपन ही उघाड़ी कराँ और अपने ही लाज नी आवे, तो फिर दूसरा के क्यों आवेगी ? दूसरा तो खीं खीं करीने दाँत काड़ेगा (हँसेंगे)! कंचन माय भी समझदारी की बातं कर रही थीं। उसका गुस़्सा शांत हो गया था। चाय भी ख्त्म हो गयी थी।
कौशल्या माय ने सोचा- अब जाना ही पड़ेगा, नहीं तो देर हो जायेगी। जुवारे का टैम हो जायेगा और खेत पर खाना नहीं पहुँचेगा। वह उठती हुई बोली- ला बेन कंचन, देखी ले छाछ, हो तो दे दे। कंचन माय उठकर भीतर गयी। दीवार के भीतर सामान रखने की जगह बनाकर बाहर से लकड़ी के पल्ले लगी बारी को खोली। बारी के भीतर जिसमें छाछ भरी रहती, वह चूड़ला नहीं था। बस एक चरू (लोटे) में जम्मुन पुरती छाछ थी। कंचन माय के दिल में डबका पड़ा-धक। छाछ तो सचमुच में नहीं है।
वह बाहर आयी और बोली-बात अकेली यही नी है कि घर में छाछ है कि नी। घर में बड़ी मैं हूँ, मैं सास हूँ, ये नी, तो घर में क्या है और क्या नी है ? यो देखनो म्हारो अधिकार है। किसे हाँ करनी है और किसे नकारा यो म्हारो अधिकार है। आखिर मैं सास हूँ।
-अरे तम गोबर से भरी हेल फेंकने गयी थी, तो म्हने नकारो कर दियो। काँवेरी ने दबे स्वर में कहा। फिर से झगड़ा करने का उसका मूड नहीं था।
-तो हेल फेंकने ही तो गयी थी, कोई दूसरो खस्सम करके भाग थोड़ी गयी थी। कंचन की बात नुकीली थी लेकिन कहने के अँदाज़ में नरमायी थी।
रामप्यारी माय और कौशल्या माय एक-दूसरी की तरफ़ देखने लगी। वे सोच में पड़ गयी कि कहीं फिर से शुरू न हो जाये। कौशल्या माय ने पूछा- कंचन तू छाछ देखने गयी थी, है कि नी।
कंचन माय खिसानी पड़ गयी थी। उसकी आँखो में शर्मिन्दगी उतर आयी थी, उसने धीरपय से कहा- बेन छाछ तो सही में खुटीगी।
रामप्यारी माय को कहानी का सार समझ में आ गया था कि सवाल ये नहीं कि छाछ है कि नहीं। सवाल किसी को हाँ-ना करने के अधिकार का है।
००००
सत्यनारायणपटेल एम-२, १९९, अयोध्यानगरी,इन्दौर-११ मो.-०९८२६०९१६०५






अपराजेय सँघर्षशीलता की कहानियाँ

सत्यनाराण पटेल का होना हमारे समय में एक ऐसे कथाकार का होना है जिसकी कथाभूमि पूरी तरह से जीवन हो। यह जीवन बहुरंगी छटा का श्रमिक और लोक जीवन है। संघर्षशील आमजन यहांँ नायकत्व पाता है। इस कथाकार की भाषा में लोक संस्कृति के स्वर है, जिसमें लोक की गर्वीली आत्मा बोलती है। हिन्दी में कई ऐसे महत्वपूर्ण कथाकार हुये हंै जिन्होने सबसे पहले एक आयडिया चुना फिर उसी को केन्द्र में रख कर कहानी का प्लॉट बुना । यानी तयशुदा थीम की ज़मीन पर कल्पनाशीलता के उपकरणो से संवेदना के बीज बोए। नतीजे में या तो पहले से चला आता हुआ कोई विचार पुष्ट हुआ या नए विचार की कोंपलें फूटीं। चूंकि कहानी स्वायत्त, समय समाज की चौपाल पर सबसे मार्र्मिक साक्ष्य होती है। इसलिये वह कैसे भी मुकम्मल हो एक उपलब्धि के रूप में ली जाती रही है। उसे उपलब्धि के रूप में स्वीकार भी किया जाना चाहिये।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों के पात्र और कथास्थितियाँ जिंदगी से आए हैं। ये एकदम खरी भरोसेमंद कहानियाँ है। इन्हें पढकर आप ये कहने का साहस नहीं कर सकते कि गढ़ी हुई कहानियाँ हैं। जैसे पनही` कहानी का पूरण जूते गढ़ता है ठीक उसी तल्लीनता और गरिमा के साथ सत्यनारायण पटेल कहानी बुनते हैं। यह कथाकार जैसे कहानियां सुनाता है- धीरे-धीरे कदाचित रूक-रूक कर। सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ पढ़कर निराशा या अंधेरे वक्त की ऊब महसूस नहीं होती है, बल्कि अनुभवों का भरापूरा जिंदादिल संसार सामने आता है। अनुभव जो हमारी समझ के रुके हुये रास्ते खोलते हैं, ताकत देंते हैं। इनकी कोई भी कहानी उठा लीजियें चरित्रों का समूह मिलेगा। इस समुह में कोई हमारी बात रखता हुआ सुनाई देगा तो कोई वर्ग शत्रु की क्रूरता के साथ खड़ा मिलेगा । यहां एक सा जीवन जीने वाले , एक सी स्थगित भाषा बोलने वाले जिसमें धर्म ,राजनीति, बाजार या सांस्कृतिक सत्ता का व्याकरण होता है, चरित्र नहीं मिलेंगे ।

यह कथाकार कहानियों के लिये वातावरण का निर्माण नहीं करता । कहांनियाँ वर्णन से शुरू नहीं होती । बल्कि विवरण कहीं-कहीं तो खाली छोटे -छोटे संकेत स्थितियों के अनुरूप आते जाते हैं। इसी कारण शिल्प सख्त हो गया हैं। सत्यनारायण पटेल की कहानियों का शिल्प कच्चें नारियल की तरह है। पहले उसे काटना, भेदना पड़ता है। लेकिन एक बार यह हो जाए तो कौन नहीं जानता नारियल पानी की मिठास शीतल पेयों की सजावटी, विज्ञापनी मिठास से बेहतर होती है। यह हमें समृद्ध और मजबूत बताती है।

सतत् अनिश्चितता सत्यनारायण पटेल की कहानियों की एक और मुख्य विशेषता है । यह कथाकार परिवेश का कोई टुकड़ा सलीके से उठाता है और उसके सहारे कहानी की पर्ते धीरे-धीरे खोलने लगता है। इनकी कहानियॉं क्रमश: खुलती और आगे बढ़ती है। पात्रों का अधिनायकत्व रचने वाले दूसरे कथाकार होंगे । सत्यनारायण के यहां उनकी लोकतांत्रिक मौजूदगी देखी जा सकती है। इस संग्रह की सारी कहानियों में कोई पात्र ऐसा नहीं मिलेगा जिस पर पूरी कहानी निर्भर हो, बल्कि वह केन्द्रीय लगने वाला पात्र भी क्रमश: गौंड़ होने लगता हैं। और अंतत: दूसरा पात्र उसकी केंद्रीयता को धूमिल कर देता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि सत्यनारायण पटेल एक यादगार चरित्र खड़ा करने की बजाय एक सक्र्रिय समूह खड़ा करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। `भेम का भेम मांगता कुल्हाड़ी ईमान` का अंत याद कीजिये जहां कथा नायक गरम कुल्हाड़ी लेकर आगे बढ़ रहा है और पूरा समुदाय निर्णायक होता जा रहा हैं जैसे अब जो प्रतिरोध में आगे आएगा वह नायक हो जायेगा ......`पनही` का पूरण हो या `गांव और कांकड़ के बीच` का बालू ये सब अंत में सँघर्षशीलों के समूह में पर्यवसित हो जाते हंै। यही वजह है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियों में अपराजेय संधर्षशीलता दिखाई पडती हैं । ऐसा नहीं है कि इस कथाकार को हमारे समय के अंधेरे , नैराश्य, विभ्रम और पराजयों का पता नहीं है। लेकिन यह कथाकार इनके विरूद्ध प्रतिसंसार खोजने में लगता है । यही प्रतिसंसार इस कथाकार की उपलब्धि है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों में दलित और स्त्री जीवन अपने विशिष्ट स्वरूप में संघर्ष चेतना के साथ अभिव्यक्त होता है। वे समकालीन कथा जगत में दलित और स्त्रियों को विमर्शो के फार्मूले सिद्ध करने के लिये इस्तेमाल करने वाले कथाकारेा से अलग हैं। वे ब्राम्हणवाद से लड़ने के लिये नारेबाजी का सहारा नहीं लेते, बल्कि वर्गीय अर्न्तविरोध कैसे शोषकों तथा शोषितों के बीच की गुत्थियाँ नहीं सुलझने देते,शोषितों को एकजुट नहीं होने देते इसको परत दर परत उघाड़ने के लिये जीवन का तटस्थ रूपांकन करते है। इसके बावजूद जब वे दलित पृष्ठभूमि उठाते हैं तो पहले से चले आ रहे सिद्धांतो को पुष्ट करने में प्रयासरत् नहीं दिखाई देते, बल्कि दलितों के सुख-दुख, संर्घष , हार -जीत को वर्गीय चेतना के साथ प्रकट करते है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों की स्त्रियां पीराक ( पनही ), केसर ( बिरादरी मंदारी की बंदरिया) , झन्नू ( गांव और कांकड़ के बीच) , चत्तर ( बोंदा बा) , सकीना ( भेम का भेरू मांगता......) व्यक्तित्व संपन्न संघषंशील स्त़्रियाँं हंै। सकीना को छोडकर सबकी सब प्रतिरोध करती हैं, निर्णय लेती है और समय आने पर शोषण के विरूद्ध सामाजिक लाडाई के सूत्रधार की भुमिका निभाती है। इन औरतों को भारतीय ग्रामीण समाज में ढूंढ पाना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। ये उन कहानियों की स्त्रियों से भिन्न है जो सीधे कहानियों में ही अवतरित् होती है,सुंदर , बौद्धिक , कमाऊ होती है।ं अपनी आर्थिक आजादी के बल पर पुरूष सत्ता को चुनौतियां देती रहती है। चुनाव लडती है,एन.जी.ओ. चलाती है। लिव इन की संमर्थक है या अकेली रहती है, विभिन्न संगठनों के माध्यम से स्त्री चेतना का अदान-प्रदान करती है। लेकिन अंतत: खुद को शोषितों के बीच ही पाती है। इसके विपरीत ये वो स्त्रियां हैं । जो गरीबी और विरादरी के जालों को भेदने के लिये पति को शोषक माने बिना उसे लड़ने के लिये उकसाती हैं और साथ-साथ खड़ी होती है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों के संवाद विशेष महत्व रखते हैं। हालांकि वे लम्बे होते हैं, ज्यादातर पात्रों की स्थानीय बोलियों में होते हैं। जिससे कहानी का प्रवाह बाधित भी होता है। फिर भी यह उल्लेख खूबी है कि जब समकालीन हिंदी कहानी में अलग-अलग चरित्र करीब करीब एक जैसी भाषा बोलते है तब उनकी कहानियों के संवादों में चरित्रों की निजता बोलती है।

`पनही` कहानी में पूरण जब पनही गढने के बाद पटेल को देने निकलता हैं तो एक बार उसे गौर से देखता है- इस बार उसे पनहीं की नाथन पर टंके फूल पीराक ( पत्नी ) की आँंखे लगे । पनही का ऊपरी हिस्सा जिसके नीचे पांव का पंजा रहता हैं , वह पूडी सा दिखा , पनही की कमर के कटाव को देखकर वह मुग्ध हो गया और पैर की एड़ी ढकने वाला भाग देखकर , पीराक आंखों में उतर आयी । पटेल को पनही देखकर पनही की नाथन पर टंके फूल पटेलन के कानों के सुरल्ये लगे। लेकिन जब पटेल पूरण लेकिन जब पूरण को शाबासी देने के लिये आगे बढ़ता है तो उसके मुंह से जो बोल फूटते है वह सांमत आवाज है- "खींचकर किसी को मार दो तो जीव निसरी जाए।"

`पनही` संग्रह की पहली कहानी है। इसमें चमडे का जूता गढ़ने वाले पूरण का क़िस्सा है। पूरण ग्रामीण मज़दूर है। पनही बनाने का उसका हुनर इलाके भर में मशहूर है। वह हर बार पटेल के लिये नये डिजाईन की पहले से सुंदर पनही गढ़ता है। उसका पनही बनाना किसी कला की साधना जैसा है।लेकिन इस काम से मिलने वाली आमदनी इतनी कम है कि परिवार का पेट पालना मुश्किल है। एक और विडंबना देखिए पनही बनाने वाला पूरण खुद पनही नहंी पहनता। इसकी बिरादरी का कोई भी पनही नहीं पहन सकता। एक बार पूरण नयी बनायी पनही लेकर पटेल के पास जाता है। तो वह मजदूरी बढ़ाने की मिन्नत करता है जिससें पटेल इंकार कर देता है। पूरण आगे की बातचीत से गुस्से में आ जाता हैं और बोल देता है- "ढोर घीसने के काम में इतनो ही तमारे फायदो नजर आवे तो तम करो, म्हारे नी करनू् है।" पटेल आग बबूला हो जाता है। यहाँ से कहानी उस दिशा में आगे बढ़ती है। जब पूरण की मुश्किलें और उसकी बिरादरी के संघर्ष शुरू होते है। उसके साथी बिरादर एकजुट हो जाते है लेकिन वह पत्नी से कहता है - तुम लोगो के माथे कटवाओंगी । पीराक जवाब देती है -"पटेल की पनही पर घरे माथे की क्या आरती उतारें , ऐसा माथा कट जाए तो भला।" पूरण की दुविधा मिट जाती है वह लोगों के साथ इस सपने के लिये लडने को तैयार हो जाता है कि अब हमारी औलादें पढेंगी, पनही पहनेंगी और पटेलेंा की जी हुजूरी नहीं करेंगी । वह अपने लोगों से कहता है- "अब मेरा मुह क्या देख रहे हो , जाओ टापरे मे जो कुछ हो- लाठी, हाँसिया लेकर तैयार रहो पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां उबाडे पगे मत आजो कोई ।"

पूरी कहानी अपनी बनावट में अत्यंत सधन है। मुक्ति कामना की जैसी अनुगूंज कहानी में है वह अद्वितीय उदाहरण है। कहानी हमें खाली झकझोरती ही नहीं हमारी चेतना में इतिहास की भांति दर्ज हो जाती है। जैसे पूरण पीराक और उनके लोग कहानी के पात्र नहीं हमारे पीछे छूट गये संघर्षशील साथी हो , जो दूर दराज कहीं अब भी लड रहे होंगे लेकिन हमारी जिंदगी में कहानी हो गये । `पनही` महज कहानी नहीं संघर्ष चेतना का सुंदर, कल्पनाशील आख्यान है।

"बोदा बा"संंग्रह की तीसरी कहानी है। दाम्पत्य की मार्मिकताओं का जैसा यथार्थ, गहन चित्रण इस कहानी में हुआ है वह उपलब्धि है। " बोंदा बा " का दुख सार्वभौम सच्चाई है लेकिन उसका प्रतिरोध कलात्मक दृष्टि का सफलतम उदाहरण है। औलाद की क्रुरताओं और पत्नी के असहाय प्रेम मे बोंदा बा का जो चरित्र उभरता है चह दाम्पत्य की विडंबनाओं का प्रतिनिधि चरित्र है। ठंड से बेहाल बोंदा बा ठंड भगाने के लिये जिस तरह घर के कपड़े जला डालने का निर्णय लेता है उसका अपने प्रति अत्याचार के प्रतिकार की यह व्यंजना विलक्षण है।

` बिरादरी मंदारी की बंदरिया ` उस सामाजिक यथार्थ को प्रकट करती है जिसमें बिरादरी शोषक सत्ता और भ्रष्ट व्यवस्था का आचरण करती है। दबंगई कैसे रिश्तों , संबंधांे , दोस्तियों , विश्वासों का खून चूसकर बिरादरी की तैयार करती है जिसके साये में इंसान लगातार रक्तक्षीण होते जाते है यह सब कहानी में आप बिना किसी बौद्धिक ताम - झाम के देख सकते है।

`गांव और काँकड़ के बीच` कहानी के केंद्र में कभी समाप्त न होने वाले जाति संघर्ष है। इन संघषों को धर्म, प्रचलित राजनिति, स्वीकृत दलित - सवर्ण सोच के दायरे में रखकर न देखा जाना एक उपलब्धि है।
कहानी बताती है कि वर्तमान सामाजिक संरचना में जाति दरअसल संपत्ति केंद्र हैं। इस समाज में जब भी कोई इंसान जैसा सोचने लगता है तो सबसे पहले उसकी किसी कमजोरी को आधार बनाकर बिरादरी बाहर करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद जब वह नही मानता यानी जाति, वर्ण के बाहर श्रमिक की जातीयता हासिल कर लेता है, एक समूह का अंग बन जाता है, फिर शोषण को चुनोती देता हैं तो उसे मार दिया जाता है। कहानी की खूबसूरती इसमें है कि वह बताती है- अकेला आदमी मार दिया जा सकता है लेकिन समुदाय नहीं मरता ।

` भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान` सत्यनारायण पटेल की कहानी कला को एक नया आयाम देती है जिसमें भाषा और जीवन के संधान की प्रवृत्ति का उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।

" कुल मिलाकर कहना चाहूंगा सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ जीवनानुभवों की निर्मिति हैं। कोरे अनुभवों या सैद्धांतिकी के आधार पर निर्मित समझ उनकी कहानियों के भीतर धंसने में बाधक होगी। उन्हें इन कहानियों का सच्चा आस्वाद मिलेगा । जो अपने अपने द्वीपो के वासी नहीं होंगे या फिर उन्हे जो कहानियां को जिंदगियॉं बूझने का अचूक उपाय मानते है"।

शशिभूषण,हिंदी विभाग अ.प्र.सिंह वि.वि.,रीवा पिन -४८६००३,मोबाइल नं.-९९९३७१२३१०
(शशिभूषण जितने अच्छे कथाकार हैं, उतने ही अच्छे समीक्षक भी। मुझ लगता है, उनकी समीक्षा सत्यनारायण पटेल का कहानियों का समीक्षा के साथ कहानी के मुलभूत समीक्षा पर भी प्रकाश डालेगी।- सम्पादक)



(जितेन्द्र चौहान उन युवा कवियों में से हैं जिनकी उपस्थिती हिन्दी कविता मे पिछले कई दशकों से है। वे खामोशी के साथ कुछ न कुछ लिखते रहते हैं और उनकी एक पुस्तिका सामने आ जाती है। प्रेम और निज संम्बन्धों पर उनकी कविताएं अलग से ध्यान मांगतीं हैं। एक पठनीय कविता पुस्तिका टाँड से आवाज अभी-अभी हमारे हाथ में आई है। कविताएं एगले पोस्टमें. –सम्पादक)

7 comments:

Anonymous said...

well its nice to know that you have great hits here.

Anonymous said...

wow, very special, i like it.

प्रदीप कांत said...

Pradeep

Ham der se aye par durust aye.
Hamari yah shuruat se ham hi nahin hamare sab mitr khush honge.

Ise Niyamit karo taki silsila bane.

-Pradeep Kant
Madhu Kant

Anonymous said...

sabase pahale satynarayan patel ki kahani nakaro ki bat karen to yah kahani apne rchav ki vajah se dilchasp hai.kahani me ve jis saty ko samane late hain vah yah ki striyo ka jo varg he usme kis tarah se ve ek dusare ke prti krur ho jati hai.unka asli sagharsh kya hai usase ve bhatk jati hai. jis tarah se ve ek dusare ko nicha dikhane me lagi hoti hai yah hamare samaj ka katu satya hai. bhasha ka prwah hame bandh leta hai.lekin phir bhi sanwad me kuchh khatkata hai. ya kahanikar kahin-kahin apani tarah se kahani ko turn karta hai jo kahani ko kamjor karta hai. jahan tak striyon ki bat hai aisa lagata hai ki ab unke pas sirf galiyan dene aur tamasha dekhane ke alawa kuchh bachata nahi hai. satynarayan apani dusri kahaniyon me jo sangharsh gatha striyon ke madhym se kahte hain thik isase ulat ve ise kamjor bhi karte hain.ganv me prachlit ek ghatna ko ve apni kahani banate hai.thik hai bahut achhi bat hai, lekin isme yah savdhani bartani chahiye ki hamare kahe ko koi bhi hamare virudhh istemal na kar le jaye. yah hamai kamjori bhi ho sakti hai. satynarayan ke sangrh par shashibhushan ne achhe se likha hai. satynarayan ke sangrh ki kahani rangroot par bhi unhe tippani deni chahiye thi. yah ek asi prem kahani hai jise bahut khubsurat dhang se likha gaya hai jisame kahanikar apne kartvya jo ajivika ka ho ya maa ke prati ho ko bahut samjh ke sath chunta hai.yah bhi ek tarah ka bada sangharsh hai. ganv aur kankad ke bich kahani me balu patelon ke bich ka hi vyakti hai. lekin uski bimari jo ki ek asprshya bimari ke rup me andhvishwas hai ki vajah se upekshit rahata hai jo apane ko asurkshit pata hai aur daliton ke bich apane surakshit karata hai. pahali bat to yah ki vah yadi is bimari se grsit nahi hota to kya vah daliton ke paksh me hota? dusari bat yah ki kaya dalito me is bimari ko lekar kahin jyada undhvishwas nahi hoga? yah alag bat hai ki satynarayan kahani ko khubi ke kah le jate hain aur hamare gale bhi utar dete hain.lekin sachhai? biradari madari ki bandariya kahani apne vistar ke karan dhili hai lekin kathya majbut hai.panhi kahani nisandeh umda hai. shashibhushan ek jagah kahate hain ki samuh nahin marata hai janab samuh ko to mariye goli, ekata(sanghathan)nahi marni chahiye.jab tak tab tak hai. bondaba kahani ek behatrin kahani hai. bhem ka bheru.. kahani bunavat aur sanvedana ke star aur ek ghummkad jati ke bhitar hame le jati hai.jisme rach bas jate hain. parantu ant aswabhavik aur natkiya hai jivan me is tarah se fiasale aur dimag nahi badalata hai.
bahadur patel

Anonymous said...

vah! bahadur bhai bahut khubsurat tarike se apani tippani likhi.samiksha jesa hi ho gaya hai. badhi. sab kuchh achha ho raha hai.
Ranjana mehata

Anonymous said...

sattu mama ki kahani nakaro padhi,achchhi lagi par galiya zara zyada hai.har stree aisi nahi hoti par isase hamare samaj ki bahut badi sachchai samne aati he.streeyon ko aapas me ladne ke bajay apne prati ho rahe atyachar ke khilaf ladna chahiye.
KAVITA PATEL.

Bahadur Patel said...

pradeep bhi kab tak intzar karwavoge. nai post dalo.

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