Sunday, 22 February 2009

प्रदीप कांत की ग़ज़लें




जन्म : 22 मार्च 1968 रावत भाटा (राजस्थान )।
शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी व गणित )।
प्रकाशन :
कथादेश ,इन्द्रपस्थ भारती, सम्यक, सहचर, अक्षर पर्व आदि लघु पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में ग़ज़लें व गीत प्रकाशित ।
सम्प्रति :
प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत
सम्पर्क :
प्रदीप कान्त, सी 26/5 आर आर केट कॉलोनी इन्दौर 452 013,फोन: 0731 2320041,इमेल:kant1008@rediffmail.com, kant1008@yahoo.co.in

प्रदीप कांत हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा रचनाकार है,जिनके अन्दर बहुमुखी प्रतिभा खिलखिलाती हुई नजर आती है। कभी कन्धे पर कैमरा लादे समय को कैद करते दिख जाऐंगें , तो कभी दाढ़ी खुजाता हुए शायर की तरह मुलाकात होगी । मंच पर नाटक करते-करते, उनमें संगीत की मस्ती उतर जाती है। हमसब के अजीज और खुशमिजाज। इसबार हम प्रदीप की कुछ ग़ज़लें पढ़ेंगे। ग़ज़लों के साथ लगे फोटो का ग्राफर भी प्रदीप है। क्षमा चाहता हूँ, काफी अवकाश के बाद ब्लाग पर आने के लिए। मूझे पूरा विश्वास है कि प्रदीप की ग़ज़लें पढ़ने के बाद आप जरूर कहेंगे, देर आए दुरूस्त आए। प्रदीप मिश्र।



1


किसी न किसी बहाने की बातें
ले देकर ज़माने की बातें

उसी मोड़ पर गिरे थे हम भी
जहाँ थी सम्भल जाने की बातें


रात अपनी गुज़ार दें ख़्वाबों में
सुबह फिर वही कमाने की बातें

समझें न समझें हमारी मरजी
बड़े हो, कहो सिखाने की बातें

मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे
रोकर कभी भी हँसाने की बातें


2


उलझे प्रश्नो के जवाब की तरह
जी रहे हैं हम तो ख़्वाब की तरह

आज भी गुज़ारा कल ही की तरह
कल भी जी लेंगे आज की तरह

आवाज़ तो दो रूक जाऐंगे हम
भले आदमी की साँस की तरह

उदास आखों में बाकी है कुछ
किसी यतीम की इक आस की तरह

रूकती साँसों को गिन रहा हूँ मैं
किसी महाजन के हिसाब की तरह


3

रेत पर नाम लिखता हूँ
अपना अन्जाम लिखता हूँ

कद से बड़े हुऐ साये
जीवन की शाम लिखता हूँ

सिमटनें लगी दूरियाँ जब
फासले तमाम् लिखता हूँ

हैसियत है तो आइये
मैं अपना दाम लिखता हूँ


4

फिर से पत्थर, फिर से पानी
कब तक कहिये, वही कहानी

अक्सर चुप चुप ही रहती है
बिटिया जब से हुई सयानी

मेंरा चेहरा पढ़कर समझों
कहूँ कहाँ तक सभी जुबानी

नये नये सलीके है बस
बातें ठहरी वही पुरानी


5


मोड़ के आगे मोड़ बहुत
रही उम्र भर दौड़ बहुत

द्वापर में तो कान्हा ही थे
इस युग में रणछोड़ बहुत

नियम एक ही लिखा गया
हुऐ प्रकाशित तोड़ बहुत

किसिम किसिम की मुखमुद्राएँ
धनी हुऐ हँसोड़ बहुत

अन्तिम सहमति कुर्सी पर
रहा सफल गठजोड़ बहुत


6

चौखट में जड़ी हु हैं आँखें
कब से यूँ खड़ी हु हैं आँखें

गिद्धों की दृष्टि सहते सहते
उम्र से बड़ी हुई हैं आँखें

देखो कैसी लगती है भीड़
चेहरों से जड़ी हुई हैं आँखें

पढ़ पाओ जज़्बातों को जो
आँखों में मढ़ी हुई हैं आँखें

7

क्या अजब ये हो रहा है रामजी
मोम अग्नि बो रहा है रामजी

पेट पर लिक्खी हु तहरीर को
आँसुओं से धो रहा है रामजी

आप का कुछ खो गया जिस राह में
कुछ मेंरा भी खो रहा है रामजी

आँगने में चाँद को देकर शरण
ये गगन क्यों रो रहा है रामजी

सुलगती रही करवटें रात भर
और रिश्ता सो रहा है रामजी


8

उठता गिरता पारा पानी
पलकों पलकों ख़ारा पानी

चाने आईं पथ में जब
बनते देखा आरा पानी

नानी की ऐनक के पीछे
उफन रहा था गारा पानी

पानी तो पानी है फिर भी
उनका और हमारा पानी

देख जगत को रोया फिर से
यह बेबस बेचारा पानी


9


भीड़ बुलाएँ उठो मदारी
खेल दिखाएँ उठो मदारी

खाली पेट जमूरा सोया
चाँद उगाएँ उठो मदारी

रिक्त हथेली नई पहेली
फिर लझाएँ उठो मदारी

अन्त सुखद होता है दुख का
हम समझाएँ उठो मदारी

देख कबीरा भी हँसता अब
किसे रूलाएँ उठो मदारी




10

मिट्टी होगा सोना होगा
कुछ ना कुछ तो होना होगा

नहीं उचटती नींद जहाँ पर
सपना वहीं सलोना होगा

पत्थर ना हो जाएँ पलकें
हँसी न हो तो रोना होगा

गर्द सफ़र की निकल सके भी
घर में कोई कोना होगा

बरखा के आसार नहीं है
बीज तो फिर भी बोना होगा


11

सीधे सादे लोगों
तुम हो प्यादे लोगों

कब पूरे बन पाओगे
आधे आधे लोगों

चक्रव्यूह में फँसे हुऐ
करो इरादे लोगों

बंसी बजी कृष्ण की
तो नाची राधे लोगों

चुप चुप क्यूँ सुनते
हो वो ही वादे लोगों


12
अपने रंग में उतर
अब तो जंग में उतर

सलीका उनका क्यों
अपने ढंग में उतर

दर्द को लफ़्ज़ यूँ दे
किसी के रंज में उतर

बदतर हैं हालात ये
कलम ले, तंज में उतर

अपने में ही गुम है
उस दिले तंग में उतर


13

दर्द चेहरों पे पढ़ रहा हूँ मैं
एक कहानी फिर गढ़ रहा हूँ मैं

अधिकार हो किसी का मुझपे अगर
सम्पर्क कर ले, बिक रहा हूँ मैं

समझो तो सही आदमी का दिल हूँ
कहाँ बसोगे, सिकुड़ रहा हूँ मैं







14

वो जो बेघर सा लगे है
क्यों हमसफ़र सा लगे है

धूप बिफर गया है जबसे
छाँव से भी डर सा लगे है

सिर्फ मैं हूँ और तन्हा
घर भी कहीं घर सा लगे है

उसका चेहरा है आखि़र
अच्छी ख़बर सा लगे है

कुछ नहीं क्यों ख़्याल सा है
दिल में नश्तर सा लगे है


15

घर से जब उचटते हैं मन
दर ब दर भटकते हैं मन

जाने अन्जाने डर से
टूटते छिटकते हैं मन

खुद बनाए दायरों में
घुटते सिसकते हैं मन

इस गुमराह वक्त में तो
जड़ों से उखड़ते हैं मन

को न बात नहीं है
सायों से लिपटते हैं मन

सिर्फ सतही हँसी है यह
भीतर से सिसकते हैं मन


16

अपनी ही बारी के
दर्द नहीं उधारी के

जीतने में अनुभव थे
हार की पारी के

भोथरे हो गये मगर
तेवर हैं आरी के

भीतर की चुप्पी में
दर्द हैं तिबारी के

दर्द दिन की देह पर
नीँद की खुमारी के


17

जो भी पूछो, सच सच बताता है
जमूरा लोगों को बरगलाता है

हुनर यही तो है उस बदसूरत में
आईने बखूबी बेच जाता है

कहानियाँ गढ़ना सीखता है और
एक बच्चा बड़ा हो जाता है

तंग आ चुकी झील किनारों से
हाथ हर एक पत्थर उठाता है


18


गुत्थियाँ सुलझाने में गुज़र गया दिन
गलतियाँ दुहराने में गुज़र गया दिन

आँखों में सिमट रहे थे कुछ हादसे
खुद को आजमाने में गुज़र गया दिन

आले में ही दरक ग आस्थाएँ
चूल्हा सुलगाने में गुज़र गया दिन


19

आती जाती सड़क
शोर मचाती सड़क

रोज़ नये दर्द का
बोझ उठाती सड़क

आएगा वो फिर से
पलकें बिछाती सड़क

राजा हो रकं हो
सर झुकाती सड़क

दौरे पे मन्त्रीजी
ख़ौफ खाती सड़क

6 comments:

Bahadur Patel said...

pradeep bhai der se hi sahi
lekin aapane bahut achchha kam kiya. pradeep kant ki gazalen aapane bahut hi khubsurat dhang se yahan post ki padhakar maja aa gaya.
pradeep ki gazalen padhate aur sunte rahe hain.
par yahan padhakar bahut anand aaya.
ek pradeep ko badhai tatha doosare ko dhanywaad.

Udan Tashtari said...

प्रदीप कान्त जी की यह सारी गजलें एक से बढ़कर एक हैं. आपका बहुत आभार पढ़वाने के लिए. आगे और भी लाईये.

Arun Aditya said...

रेत पर नाम लिखता हूँ
अपना अन्जाम लिखता हूँ
..................
हैसियत है तो आइये
मैं अपना दाम लिखता हूँ
.................
ये विनम्रता और ये स्वाभिमान एक कवि की पूंजी है। बधाई प्रदीप द्वय को।

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रदीप जी,

कवि प्रदीपकांत जी को बधाईयाँ, शब्दों को किस खूबसूरती से ढाला है, जवाब नही. एक एक शब्द जैसे पिरोया सा लगता है और कहीं ना कहीं मन को छू लेता है. मुझे कुछ अपने हाल सी लगी यह पंक्तियाँ :-

उलझे प्रश्नो के जवाब की तरह
जी रहे हैं हम तो ख़्वाब की तरह

आज भी गुज़ारा कल ही की तरह
कल भी जी लेंगे आज की तरह

मुकेश कुमार तिवारी

rakeshindore.blogspot.com said...

Bhai Pandit ji,
you always does right things . Same you have you have done with pradeep kant's poem. congratulation toyou and pradeep too.

Anonymous said...

किसी न किसी बहाने की बातें
ले देकर ज़माने की बातें

रात अपनी गुज़ार दें ख़्वाबों में
सुबह फिर वही कमाने की बातें

इन दोनों शेरों मे काफी असमानता मिली| और भी कई शेअर बेबहर है|
मेरे विचार से अगर आप इन रचनाओ को गज़ल न कह के कविता कहे तो जायदा उचित है|
सादर !!

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