हिन्दी-भाषा का विकृत होता रूप हमारी अस्मिता के लिए एक बड़े ख़तरे का संकेत है .भाषा संस्कृति की वाहिका होती है और यह शब्द -भंडार एक लंबी परंपरा से हमारे साथ है (रामायण से भी पहले रावण कृत 'शिवतांडव स्तोत्र' की शद्बावली इसीलिए पहचानी लगती है) जो अपने में विगत की सारी ऊर्जाएं समेटे हैं जो आज भी हमें जीवन्त बना कर एक स्वतंत्र ,व्यक्तित्व की पहचान दे रहा है. उसी सुनियोजित लिपि के साथ हिन्दी की प्रमुख शब्दावली का स्रोत भी वही संस्कृत साहित्य रहा है. समय और भाषा के बदलते परिवेश में भी वह हमारे साथ हैं और उन गहरे और समृद्ध अनुभवों और अनुभूतियों से हमें समर्थ और समृद्ध बनाए है. यह शब्द परंपरा हमें अपने सुदूर अतीत से सीधा जोड़े है. उस स्रोत से अपने को काट लेना हमारी अस्मिता के लोप का कारण बन जाएगा अपनी भाषा से कट कर हम अपने सारे अतीत से कट कर वर्तमान का एक संस्कार-विहीन खंड मात्र रह जाएंगे जिसके पास अपना परिचय देने के लिए न कोई समृद्ध परंपरा होगी ,न बीते युगों का इतिहास ! भाषा के परिवर्तन के साथ हम अपने साहित्य में संचित पूर्वानुभवों-अनुभूतियों से दूर हो जाएँगे.
कोई भाषा अपनी लंबी यात्रा में जो सामर्थ्य अर्जित करती है हमारी जीवन्त निरंतरता का प्रमाण बनी, उन सारी क्षमताओं को यह शब्दावली अपने आप में धारण किए है. बीच में कितने उतार-चढ़ाव आए लेकिन भाषा के इन प्रहरियों (शब्द) ने हमें बिखरने नहीं दिया. आज भी वही शब्द अपनी सारी गरिमा के साथ हिन्दी-भाषा में विद्यमान हैं. अब तक की यात्रा में इनके संस्कार हमें समेटे रहे, लेकिन आज इन पर जो संकट आया है वह हमारे अस्तित्व का संकट है.
भाषा शब्दों से बनती है नए युग के नए शब्दों को आत्मसात् करते हुए हम अपना भंडार बढ़ाते रहें, लेकिन अपनी इस समर्थ और समृद्ध परंपरा से कट कर हम, हम नहीं रह जाएंगे, एक आरोपित व्यक्तित्व हम पर हावी हो जाएगा .
हम अपनी समर्थ भाषा पर गर्व करें, उसे समृद्ध करें, व्यर्थ में उसकी सार्थक शब्दावली को धकिया कर अपना दिवालियापन न घोषित करें .
- डॉ. प्रतिभा सक्सेना.
Pratibha Saksena
क्या हिंदी बदल रही है ?
-आम बोल चाल एवं निजी जीवन में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिंदी में बढता चला आ रहा है कारण आसानी से लोग समझ लेते है; जैसे ऑफिस (कार्यालय),डॉक्टर (चिकित्सक) ,सन्डे(रविवार). एडमिशन (नामांकन), पास (उतीर्ण ),फेल (अनुतीर्ण), टेलीफोन (दूरभाष ), हेल्थ (स्वास्थ),मीटिंग (बैठक),
नवाज़ा(सम्मानित), खामाज़िया(कशति), ताहत (अंतर्गत), हादशा (दुर्घटना), मशकत(शन्घरश), नुकसान(हानि), मुश्किल (कठिनाई), माहौल (वातावरण), कामायाब (सफल), सक्सियत (व्यवक्ति),
..........इस तरह एक लम्बी लिस्ट (सूची) है,
-क्या हिंदी भाषा के अपने शब्द धीरे-धीरे प्रयोग से उठ जायेंगे?
-क्या अंगरेजी शब्दों के आने से भाषा एवं संस्कृति पर भी प्रभाव हो सकता है?
आदित्य प्रकाश
प्रिय साथियो ,
हिंदी यात्रा के अंतर्गत हिंदी के स्वरूप की चर्चा अति उत्तम प्रयास है.विषय अत्यंत जटिल है.भाषा संस्कृति की वाहक है, उसका प्रतिबिम्ब है,साहित्य समाज का दर्पण है.इन सब मूल तथ्यों से तो नक्रारा ही नहीं जा सकता.परन्तु आज विश्व कि प्रगति के साथ हमें कौनसा मार्ग अपनाना चाहिए ,यह विचारणीय विषय है.हम इतने रूढ़िवादी भी न होजायें कि हिंदी के बढते हुए मार्ग में बाधक बनें.
हिंदी हमारी अपनी भाषा है उसमें किसी भी प्रकार की मिलावट असहनीय है.चाहे वह इंग्लिश हो या उर्दू अन्यथा अरबी फारसी . यह बात अपने स्थान पर सत्य है की हमारी शुद्ध हिंदी भाषा का उदगम संस्कृत है परन्तु हमारी बोलचाल की हिंदी भाषा का स्वरूप शुद्ध न रहकर निरंतर बदलता ही रहा है.क्या हमने कभी ध्यान दिया हमारी प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा में कितने उर्दू के शब्दों का स्वत: ही समावेश है. उदहारण के लिए ' कोशिश ज़ारी रखिए कामयाबी आपके कदम चूमेगी ' .ऐसा क्यों हुआ क्योंकि नदिया के प्रवाहित नीर की भांति भाषा भी अपने समकालीन शासकों के प्रवाह से दूर न रह पाई और जिसने जैसा चाहा वैसा स्वरूप उसे दिया.
हम सभी सहमत हैं इस बात से कि हमें हिंदी को हिंगलिश बनाने से रोकना होगा और हमें हिंदी में आये हुए अन्य भाषाओं के शुक्रिया इत्यादि शब्दों के स्थान पर धन्यवाद इत्यादि हिंदी भाषा के शुद्ध शब्दों का समावेश कर हिंदी के स्वरूप को सुंदर, उज्ज्वल और परिमार्जित करना होगा. उसकी लुप्त अस्मिता को उसे दिलाना होगा.परन्तु उसे क्लिष्ट, कठिन शब्दों से नहीं बल्कि सरल शब्दों के माध्यम से.
यह सुअवसर है भारत का स्वर्णिम समय लौट रहा है, भारत अपने चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ रहा है.हिंदी को मान्यता दिलाने के साथ साथ हमें इसके स्वरूप को सुगठित करने का भी प्रयत्न करना होगा.
हम सब एक हैं, अपने भारत की संतान हैं, भारत की आँखों से दूर पर भारत के दिल से दूर नहीं .अत: मिलकर यथाशक्ति बीड़ा उठाने को तैयार हैं.
कॉमनवेल्थ खेलों के सभी क्रिया-कलापों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए .आप सभी अपनी भाषा और अपनी संस्कृति का आदर सम्मान करने वाले डा० सुरेन्द्र गंभीर की इस बात से सहमत होंगे, यह अंतर्राष्ट्रीय अवसर हमारे अधिकारियों के लिए अपनी राष्ट्रीय भाषाओं को प्रतिष्ठापित करने का सुवर्णिम उपक्रम है। आज इस सुअवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए . हमें मिलकर यथायोग्य प्रयत्न करने होंगे और अलख जगाना होगा,क्यों न हम अमेरिका से ही इसकी आवाज उठायें.
सहयोग दीजिये आपके सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी.
नीलू गुप्ता,कैलिफोर्निया,अमेरिका
Nilu Gupta
किसी देश की भाषा उस देश की संस्कृति का प्रतिविम्ब होती है हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों को बढ़ावा देना भारत की संस्कृति पर कुठाराघात है ऐसे विचारों को स्वीकृति देना न केवल हिंदी भाषा का रूप बिगाड़ेगा बल्कि भारतीय मान्यताओं और संस्कारों को भी दुर्वल करेगा और हम सदियों से संजोई अपनी धरोहर खो बैठेंगे . सभी हिंदी प्रेमियों एवं देश प्रेमियों का कर्त्तव्य है कि ऐसा न होने दें और इसके लिए हिंदी भाषा शब्द कोष को निरंतर बढ़ाने में जुटे रहें हिंदी भाषा संस्कृत से उपजी है और उसमें हर भावना एवं सन्देश को मधुर, कर्णप्रिय,उपयुक्त और शक्तिशाली रूप से व्यक्त करने की असाधारण क्षमता निहित है .
श्रीप्रकाश शुक्ल
(यह सामग्री भाई मोहन गुप्ता जी से प्राप्त मेंल से उड़ाई गई। बात में दम है, इसलिए लगा कि आप सबसे साझा किया जाए। अगर आपके दिमाग में भी ऐसी कोई बात हो तो लिखें। विचार बहस करने से ही पनपते हैं। -प्रदीप मिश्र)
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