आज
तो गजब ही हो गया विचार सिंह
घुड़चढ़े और स्पष्ट सिंह उजागर
आमने-सामने
थे। यादव पान भण्डार पर लगभग
भीड़ सी लग गयी थी। सबसे पहले
मैं परिचय दे दूँ विचार सिंह
जी को तो आप जानते ही हैं,
वे
सदैव चिंतनशील रहते हैं,
अपने
मन की बातें बेबाकी के साथ
बकते रहते हैं। नागरिकताबोध
उनके रग-रग
में बसी हुई है। बसी क्या
अंकुरित होती रहती है। अतः
लोकतंत्र के सारे अधिकारों
को वे अपनी जेब में लेकर घूमते
हैं। स्पष्ट सिंह उजागर उनसे
भी दो कदम आगे हैं। वे पेशे से
पत्रकार हैं और खुद को बहुत
बड़ा बुद्धीजीवी समझते हैं,
जबकि
बमुश्किल 12वीं
पास हुए और फिर स्नातक तो
नेतागीरी ने पास करा दिया।
कहा यह भी जाता है कि उनकी उत्तर
पुस्तिका भी किसी पट्ठे ने
लिखी थी। खैर जो भी दोनों ही
हमारे समय की जरूरत की तरह
हैं,
कम
से कम बहस तो करते हैं। मुझे
लगता है देवेन्द्र कुमार
बंगाली ने इनको ही देख कर अपना
चर्चित नवगीत बहस जरूरी है
लिखा होगा। ये दोनों बाकी
सब चीजों में भले ही अगल सोच
रखते हों,
लेकिन
लेखकों,
कवियों
और साहित्यकारों को देखते ही
उन पर पिल पड़ते हैं। या यूँ
कहें कि पढ़े लिखे लोगों से
इनको फोबिया है। खैर पूरा
परिचय देने लगूँ तो एक पुस्तक
तैयार हो जाएगी। फिलहाल उनकी
बहस देखकर मैं भी सरकते-सरकते
उनके करीब पहुँच गया। विचार
सिंह घुड़ चढ़े पूरी ऊर्जा
के साथ बोल रहे थे -"क्यों
गुरू,
हिंलिश
उस्ताद,
बोलो
अब क्या बोलते हो ?
तुम
को ठीक-ठाक
हिन्दी भी बुरी लगती है। खाते
हिन्दी की हो और बजाते अंग्रेजों
की। बिचारे साहित्यकारों का
फजिहत करके रख दिया था। वासांसि...
ने
तुम्हारा हाजमा खराब करके रख
दिया था। दिदे फाड़कर पढ़ो -
अमरीका
ने नासा में संस्कृत को अपनाने
की घोषणा कर दी है। क्योंकि
आधुनिक तकनीक के लिए सबसे उचित
भाषा संस्कृत है। जब भारतीय
संस्कृत के विद्वानों उनको
सहयोग करने में नखड़े दिखाए
तो प्राथमिकशाला में वे संस्कृत
अनिवार्य करने जा रहे हैं।
जिससे भविष्य में भारत पर
निर्भरता खत्म हो जाए।"
बात
पूरी करते ही आखबार का पन्ना
स्पष्ट सिंह के चेहरे पर फेंक
दिया और ऊपर से जुमला चिपका
दिया-
"ये
तुम्हारा ही अखबार है।"
यहाँ
स्पष्ट कर दूँ कि वर्षों बाद
इन्दौर आकाशवाणी ने कथा,
उपन्यास
तथा आलोचना पर केन्द्रित
त्रीदिवसिय आयोजन वासांसि....
शीर्षक
से किया,
जिसकी
रिपोर्टिंग में स्पष्ट सिंह
ने जमकर उल्टी की थी और उनका
वश चलता तो साहित्यकारों को
सूली पर चढ़ा देते। क्योंकि
यहाँ पर परम्परा और संस्कृति
पर भी चर्चा हुई थी और शीर्षक
गीता के दूसरे अध्याय का बाइसवां
श्लोक था। बिचारे करें भी तो
क्या करें,
नेताओं
की चमचागीरी के बरक्स साहित्यकार
ही तो बचते हैं। खैर उन्होने
अपनी बड़ी-बड़ी
आंखों से विचार सिंह जी को
घूरा और अखबार को सम्भाल कर
लपेटा और जेब के हवाले करते
हुए भुनभुनाए -
"दारू
की बोतल लपेटने के काम आएगी।"
फिर
विचार सिंह से मुखातिब हुए -
"तुमको
तो देख लूंगा। शाम
को जब अंगुरी हलक के नीचे उतरेगी
तो मेरी प्रज्ञा जगेगी। फिर
तुमको निपटाउंगा। कल का अखबार
पढ़ लेना। पत्रकार हूँ......
पत्रकार
हूँ। तुम क्या समझो इन बौद्धिक
चीजों को। समय के साथ बदलना
सीखो। सड़ी गली परम्परा और
भाषा की वकीली बन्द करो। दुनिया
बहुत आगे निकल गयी है और तुम
पीछे लौटने की बात कर रहे हो।
पिज्जा-बर्गर
के बरक्श सूखी रोटी....।
तुम जैसों ने देश के विकास में
लंगड़ी फंसी रखी है। "
और
अपने मोटर साइकिल का किक्
मारने लगे। इतने में विचार
सिंह उनकी खिल्ली उड़ाते हुए
बोले-
" वासांसि..
के
नाम पर कपड़े फाड़-फाड़कर
तुने क्या हाल कर लिया है।
बनियान और पैंट भी फट गए हैं।
घर जा पहले ये चिंदी उतार कर
कोई कायदे का कपड़ा पहन। तूने
ही लिखा था न वासांसि यानि
कपड़ा।......पढ़
लूंगा तुमको। कल अखबार में...ऐसे
अखबार में जिसका सम्पादक
तुम्हारी जेब में पड़ा है और
वह भी पढ़ा-लिखा
तुम जितना ही है। बापू की खेत
है,
चाहे
जो बोवो,
जो
काटो। "
इतने
में मोटरसाइकिल फुर्र हो गयी
थी। खैर विचार सिंह जी ने अपना
उतारा कर लिया था इसलिए वे
यादव की तरफ मुड़ते हुए बोले
-
" एक
मीठा पत्ता,
एक
सौबीस,
तीन
सौ,
गीली
सुपारी और सादी पत्ती ...मीठा
कुछ भी मत डालना। "
फिर
मसकुराते हुए यादव से बोले -
" देखा
कैसा निपटाया..?
" कुछ
और बोलते इससे पहले यादव ने
पान का बीड़ा आगे बढ़ा दिया
था। मैं भी धीरे से खिसक लिया
और दुश्यंत कुमार मेरे अंतस
में गूंज रहे थे –
मेरे
सीने में नहीं तो तेरे सीने
में सही
हो
कहीं भी आग,
लेकिन
आग जलनी चाहिए।
लेखक - प्रदीप
मिश्र mishra508@gmail.com
1 comment:
अच्छा है...
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