Friday 15 August, 2014




पुस्तक: क़िस्साग़ोई करती आंखें (अगस्त 2012)
कवि:   प्रदीप कांत
मूल्य   चालीस रूपए
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, एफ-77, करतारपुरा
औद्योगिक क्षेत्र, बाईसगोदाम, जयपुर

क़िस्साग़ोई करती आँखों में समय की करवटें दर्ज हैं                                                                    
      किसी भी किताब को हाथ में लेते हुए, सबसे पहले एक हरा-भरा पेड़ दिखाई देता है। किताब के हर पृष्ठ पर पेड़ की टहनियों के छाप होते हैं और दिमाग में एक सवाल उपजता है कि क्या यह किताब उस पेड़ से ज्यादा उपयोगी है, जिसको काट कर इसके पन्नों का निर्माण किया गया होगा ? यदि किताब में संकलित रचनाएं आश्वस्त करती हैं कि हाँ हमारी सृजनात्मकता उस पेड़ के समकक्ष है, तो किताब एक सार्थक कृति के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। समीक्षा के इस सर्वथा नए औजार को रेखांकित करना हमारे इस तकनीकी युग की पहली जरूरत है। अन्यथा विकास के इस अंधे दौड़ में हम सबकुछ मशीनों में बदलने में लगे हैं और प्रकृति तथा धरती का चीत्कार गुंजायमान है। इन विचारों की छाया में जब हम प्रदीपकांत की पहली कृति "क़िस्साग़ोई करती आँखें" को पढ़ते हैं, तो जिस पेड़ की कुर्बानी ने इसको स्वरूप दिया है वह खिलखिलाता हुआ दिखाई देता है। "फूल, पत्ती, पेड़, बगीचे/अब सारा वन बस्तों में  सिवा छाँव की ममता के/सारे पल छिन बस्तों में।" प्रदीप यहाँ पर कटाक्ष कर रहे हैं कि आज की शिक्षा व्यवस्था में छपी किताबें ज्ञानात्मक विवेक तो दूर अपनी एवज़ में कटे पेड़ों की ममतामयी छांव को समकक्ष भी कुछ नहीं दे पा रहीं है। इस 80 पृष्ठों के किताब में कुल 67 ग़ज़लें संकलित हैं जो लगभग दो दशक की रचनायात्रा में लिखी गयी रचनाऐं हैं। अतः इन में हमारे समय की सारी करवटें और सिलवटें दर्ज हैं। जब हम पढ़ते हैं - "लोग  बेसुरे समझाते हैं / नवयुग का सुर-ताल नया है, " तो हमारे समय का यथार्थ नग्नरूप में सामने खड़ा हो जाता है।  

       रचनाप्रक्रिया में सबसे पहला सवाल उठता है - रचना क्यों ? इसके जवाब में रचनाकार अपनी भाषा, कहन, विचार और पक्षधरता की तलाश करता है। इस तलाश में ही उसकी भेंट सर्वे भवन्तु सुखिनः से होती है और तुलसी के शब्दों में स्वान्तः सुखाय का आस्वाद मिलता है। यहाँ पर स्पष्ट कर लेना चाहिए कि यह स्वान्तः सर्वे भवन्तु सुखिनः से प्राप्त होता है जिसमें समाज के अंतिम मनुष्य का सुख भी शामिल है, तभी प्रदीप लिखते हैं - "वो जो बेघर सा लगे है / क्यों हमसफ़र सा लगे है।" इस बेघर को अपना सा माननेवाला कवि समाज के निचले पायदान पर खड़ा होकर अपने समय को देख रहा है, इसलिए उसके अनुभव संसार में समग्र जीवन है। आगे कवि को समाज का स्वभाव समझ में आता है और लिखता है - "उनकी दुश्मन क्या हो सियाही / रोशनी कभी जिनके घर न थी।" यह कवि के विवेक की अनुभूति है, जो रेखांकित कर रही है कि किस तरह से विपरीत स्थितियों में रहते-रहते उसे स्वीकार करने की आदत पड़ जाती है। भारतीय समाज के दलित वर्ग के संदर्भ में यह अत्यंत प्रासंगिक है। यहीं पर इन पंक्तियों पर भी ध्यान देना होगा, जहाँ कवि कहता है - "मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे / रोकर कभी भी  हँसाने की बातें।" रोकर हँसाने की बात में विरोधाभास के माध्यम से रचनाकार फ़रिश्ते को कटघरे में खड़े नज़र आते हैं। ठीक इसी जगह से अगली ग़ज़ल निकल कर आती है कि - "क्या अजब ये हो रहा है रामजी / मोम अग्नि बो  रहा है रामजी।" यानि एक तरफ तो मानवीय संवेदना और उसकी सीमा रेखांकित हो रही है, दूसरी तरफ मोम अग्नि बो रहा है, यहाँ पर आज के जटिल विध्वंसक परिस्थितियों की तरफ भी इशारा किया जा रहा है। जहाँ मनुष्य स्वयं को नष्ट करने की स्थितियाँ निर्मित कर रहा होता है और उसे इसका पता भी नहीं चलता है। संग्रह का पाठ करते समय ऐसा लगता पूरा समय रचनाकार के सामने स्वतः खुलता चला जा रहा है और वह धीरे-धीरे अपनी चेतना और जीवन विवेक के आधार पर कथ्यों को उठाता चला जा रहा है। इसी क्रम में इन पंक्तियों को भी देखा जा सकता है, जहाँ यथार्थ बोध स्पष्ट दिखाई देता - "पत्थर हैं पागल के हाथ में / शरीफ़ों की खुराफ़ात होगी।"
      हमारे समय के रचनाकार की पहली जरूरत है कि वह राजनीतिक चेतना से भरपूर हो और उसकी कविता में समसामयिक राजनितिक मूल्य प्रखरता से उदघाटित हों। यह राजनीति संसद से लेकर चूल्हे तक की या पुस्तक से लेकर मनःस्थिति तक की हो सकती है। जब हम पढ़ते हैं - "अन्तिम सहमति कुर्सी पर / रहा सफल गठजोड़ बहुत।" तो स्पष्ट हो जाता है कि इस किताब के रचनाकार ने अपने परिवेश की राजनीति को ठीक से समझा है और आगे चलकर हमें ये पंक्तियाँ मिलतीं हैं - "उल्टी सीधी मुखमुद्राएँ / धनी हुऐ छिछोर बहुत।" अब कोई संशय नहीं रह जाता है कि कवि की आवाज में हमारे समय के आमजन की आवाज प्रमुखता से शामिल है। दरअसल अपने समय में व्याप्त हो जाना और उसमें रच-बस जाना फिर अपनी चेतना के तहत अभिव्यक्त होना किसी भी रचनाकार की पहली योग्यता होती है। यहाँ पर प्रदीप खरा उतरते हैं। स्त्री-विमर्श और स्त्री-स्वतंत्रता के युग में व्यवस्था लगातार ढोल पीट रही है कि स्त्रियों ने खूब विकास किया है और पुरूषों के समकक्ष खड़ी हो गयी हैं। यहीं पर बेहद सहज विन्यास में प्रदीप लिखते हैं - "अक्सर चुप चुप ही रहती है / बिटिया जब से  हुई सयानी।" अब आगे इसकी व्याख्या की कोई जरूरत नहीं है। प्रदीप की रचनाएँ एकदम आम भाषा और सरल रूप में पाठक के सामने प्रस्तुत होतीं हैं। जब पाठक उन रचनाओं से होकर गुजरता है तो उसे महसूस होता है कि कितनी जटिल और समझ को चुनौती देनेवाली समस्या की बारीकियों को वह अच्छी तरह से समझ गया -  "गढ़ना था ईश्वर / गुण  पत्थर में थे।" अगर हम प्रगतिशील साहित्य को खंगालें तो हजारों पन्नों में फैली बातें इन दो पंक्तियों में समाहित हैं और सम्प्रेषित भी हो रहीं हैं। पत्थर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज नहीं करा सकता है। संवेदना विहीन यह पत्थर धर्म का व्यवसाय करनेवालों के एकदम अनुकूल है।
      आज हिन्दी ग़ज़ल को अपनी विधा चुनना एक जोखिम भरा काम है। ऊपर से यदि आप ग़ज़ल को रचनात्मक सरोकारों और प्रगतिशील मानसिकता के साथ अपनाते हैं तो फिर आपकी खैर नहीं है। बहुत सारे उस्तादभीरू और जड़ मनःस्थिति के लोग आपके पीछे पड़ जाऐंगे। जब लोगों ने उर्दू में ग़ालिब जैसे बड़े शायर को नहीं छोड़ा और हिन्दी में ग़ज़ल को स्वीकृति दिलानेवाले दुष्यंतकुमार को खारिज करते रहे तो प्रदीपकांत किस खेत की मूली हैं। सो यह सब प्रदीप से साथ होता रहा है और होता रहेगा। बड़े-बड़े ग़ज़ल योद्धा इस संग्रह में तमाम तकनीकी खामियाँ निकाल देंगे। मैं भी अपनी छोटी समझ के साथ कुछ खामियाँ गिना सकता हूँ। लेकिन यहाँ पर हमें देखना होगा कि कवि अगर तकनीक से समझौता कर रहा है तो किसलिए। अगर रदीफ-काफिए और मात्राओं के चक्कर में हमारे कथ्य की धार मर रही है तो बेहतर है कि एक सीमा तक तकनीक में छूट ले लेनी चाहिए, क्योंकि रचनाकार का मूल उद्देश्य उस कथ्य को पाठकों तक पहुँचाना होता है। प्रदीप ने भी संभवतः इस विचार के तईं छूट लिया है। दूसरी एक जरूरी बहस है कि अगर कवि हिन्दी भाषा के संस्कार में ग़ज़ल लिख रहा है तो मात्राओं की तमीज हिन्दी की होगी। उसे उर्दू या फारसी की परम्परा में मूल्यांकित करना नासमझी कहलाऐगी। खैर छंद में इस तरह की बहस और खारिज-स्वीकृति चलती रहती है। रचनाकार इनसे परे रचता रहता है। उसे चिन्ता अपने पाठकों की होती है, समीक्षकों की नहीं। यदि वह समीक्षकों की चिंता करने लग जाए तो कोई रचना नहीं कर पाऐगा। पूरे संग्रह से गुजरने के बाद दो बातें निकलतीं हैं, जिनके प्रति रचनाकार को सावधान होना चाहिए, पहली कथ्य में दुहराव और दूसरी प्रखरता के तापमान में कमी। पहले संग्रह में यह कमी नगण्य है। हमें पूरी उम्मीद है कि प्रदीप कांत की अगली कृतियों में हम और ज्यादा परिपक्वता और प्रखरता से रूबरू होंगे। किताब के आमुख में यश मलवीय ने ठीक लिखा कि इनमें समकालीन कविता के कथ्य हैं और वरिष्ठ शायर नईम की याद आती है। छोटी बहर में ग़ज़ल कहना कठिन है। प्रदीप ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और उसकी यह कृति प्रदीप की सफलता का प्रमाण है। जीवन की गाँठों को खोलती ग़ज़लों से सुसज्जित इस महत्वपूर्ण संग्रह के लिए बहुत बधाई। अंत में हमारे समय का मिज़ाज को प्रस्तुत करती इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात पूरी कर रहा हूँ - "नहीं सहेगा मार दुबारा /गाँधी जी का गाल नया है।"

प्रदीप मिश्र
दिव्याँश 72ओ सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड
पो.-सुदामानगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
                                                                                                   मो- 0919425314126

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