Tuesday, 15 January 2008

बहस

बोल कि लब आजाद है
मित्रों ! तुम्हारे अन्दर एक कशिश है, जिसकी जरूरत हमारे समय को है। इस कशिश को अब शब्द देना ही होगा। तुम्हारे शब्द ही हर ना पसंद को पसंदीदा में बदल सकते हैं। फिर चुप क्यों हो ? बोलो जम कर बोलो, यह समय जिरह का है। अगर किसी शक्तिशाली से हम लड़ नहीं सकते हैं तो असहयोग तो कर ही सकते है। विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है, असहयोग। जैसे आजकल अखबारों में फ्रंटपेज पर खबर से ज्यादा वरियता विज्ञापनों को है। क्योंकि विज्ञापन से पैसा आता है। लेकिन ये विज्ञापन किस के लिए छापते हैं ? तुम्हारे लिए, फिर भी तुम मजबूर हो ? कल्पना करो अचानक एक शहर के सारे नागरिक अखबार लेना बन्द कर दें, तो क्या होगा ? तुम जीत जाओगे। बन्द हो जाऐंगे वे सारे प्रेस और अखबार जो तुम्हारे लिए निकलते हैं, तुमसे जीवित हैं और तुमको ही गुलाम समझते हैं। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा ज्यादा से, कुछ महीने तुमको देश-दुनिया की खबरें नहीं मिलेंगी। अन्त में वे आऐंगे तुम्हारे पास और तुम्हारी शर्तों पर काम करेंगे। यूँ नहीं दुष्यन्त ने लिखा है – सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं । मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चहिए। तो आइए एक शुरूआत करें, आपने दिल की बात करें और बेखौफ होकर करें। करें हम आत्मालोचन भी, देखें कि जीवन के किस क्षण में हम विरोध कर सकते लेकिन नहीं किए। देखें कि अपने टुच्चे से स्वार्थ के लिए दूसरों का कितना नुकसान किया। खैर यह भी नहीं तो लफ्फाजी ही सही। कुछ तो करो ऐसा कि लगे कि तुम एक लोकतंत्र को सक्रीय नागरिक हो। इस समय देशप्रेम का इससे बड़ा कोई मीटर नहीं है। अगर अपने देश से प्रेम करते हो तो पूछो – कि इस ग्लोबलाइजेशन में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत कितनी सही है ? आपको यह भी अच्छी तरह से पता होना चहिए कि आज के परिदृश्य में जितने भी स्टार किस्म के बुद्धिजीवी हैं, विशेषरूप से वे जो अखबारों या लोकप्रय पत्रिकाओं में कालम लिखते हैं। वे सब आप के खिलाफ लिखते हैं। उनको इस देश से, इस देश के नागरिकों और मनुष्यता से कोई लेना देना नहीं है। वे किसी महानगर में रहते हैं, एसी कारों में घुमते हैं और विदेशी दारू पीते हुए कालम लिखते हैं। तो सबसे पहला असहयोग यहीं से शुरू कर सकते हैं, कि उनको पढ़ना और नोटिस लेना बन्द कर दें। उनकी बातें नशे की तरह हैं । उनको पढ़ते हुए आप अनायास ही उनसे सहमत हो जाऐंगे। धीरे-धीरे उनकी तरह सोचने लग जाऐंगे। आप भूल जाऐंगे कि वो बातें सिर्फ पाँच-दस प्रतिशत जनसंख्या के हित में है। खैर यह कुछ बातें हैं जिनसे मैंने शुरूआत की। बातें बहुत सारी हैं। हम इस बलाग पर लगातार जिरह जारी रखेंगे। हमारी बातें सुनियोजित हों, हमारा मत साफ और प्रतिबद्ध हो तथा हम जो कहें उसके पीछे हमारे देश के अंतिम आदमी की भी आवाज हो। इसलिए क्रम से विषयों पर चर्चा करेंगे। इसबार का विषय है –

पूँजी और हमारी सांस्कृतिक विरासत के बीच आजकल जो समीकरण बनाए जा रहे हैं, वे हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं ?
अगर आपको कोई असुविधा हो रही हो, अपने विचार निम्न पते पर भेजने की कृपा करें। हम टाइप करके ब्लाग पर डालने का यथासंभव प्रयास करेंगे।
प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72ए सुदर्शन नगर इन्दौर – 452009 (म.प्र.) मो. 09425314126

3 comments:

Arun Aditya said...

बहस जरुरी है। बहस जारी रहे।

Anonymous said...

Hello,

The news paper these days appears like a pamphlates.
The government provides subsidised paper for news and important notices while news paper owners misusing it in their personal interest. It is shameful.

Sushil

Anonymous said...

भूमंळलीयकरण परमोधर्म!
रोज सुबह अखबारों के पन्नो में विज्ञापनों के बीच खबरे खोजना गालिबन अपन जैसे बचे-कुचे फुर्सतिया-फालतु “आम लोगो” का ही शगुफा बचा है, आज की इस “भागदौड की जिंदगी” (इसके बारे में आगे कभी विस्तार से चर्चा करेंगे) में “खास इंसान” को दुनिया की खबरों की जानकारी से क्या लेना देना, वैसे भी इस फालतू माथापच्ची का काम उनका तो है ही नहीं। खेर छोडीये, उन्हें शेयर की कीमतो की पल-पल की जानकारी देने के लिये चोबीसो घंटे न्यूज चेनल व इंटरनेट तो है ही।
साहब बुरा मत मानना, यह हिन्दोस्तान है पाकिस्तान नहीं! लेकिन कुछ तो वजह जरूर होना चाहिये जो पाक को हिन्दोस्ता का अक्स कहा जाये। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, निराशा, कुंठा, महंगाई, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवादी हमला सरहद को धता बता रहा हैं वही साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास, विरासत भी हमारी साझा है। बस एक फरक मुझे दिखाई देता है वो है “लब की आजादी का”। हमें नक्कारखाने में तूती बजाने का अधिकार इस “प्रजातंत्र” ने जरूर दे दिया है पर सुने जाने का नहीं। इस एक मामले में कम-से-कम पाक की अवाम हमसे ज्यादा खुशकिस्मत निकली, आखिर पत्थर पर सिर फोडने का क्या फायदा? जब सुना ही न जाना हो तो लब की आजादी का क्या फायदा।
एल.पी.जी. के ढिंढोरचियो ने कार्पोरेट मिडिया की मदद से ऎसा उन्माद का माहौल तैयार किया है जिसमें आम आदमी ही आम आदमी का दुश्मन बन गया है और खास आदमी इस सिरफुटव्वल का आनंद ले रहा है। “सांस्कृतिक विरासत” जैसा कुछ भुमंळलीयकरण के इस दौर ने बचा रहने दिया नही है। ऎसी विरासतो का जो मुसीबत के समय दुर्बल की लाठी न बन सबल को ही बल दे उनका इतिहास के कूडेदान में डाल दिये जाने का विलाप कम से कम हम जैसे बूतपरस्त तो कभी न करेंगे।
अपने निकृष्ठतम रूप में इजारेदार वैश्वीक पूंजी आज नंगई के साथ सारी दुनिया पे छा जाने को बेताब है, और ऎसी विकट परिस्थिती में स्थानिय पूंजी के प्रतिनिधियो ने अपने देश के समाज, संस्कृति, सभ्यता, कला, साहित्य, इतिहास, धर्म, दर्शन, राजनीति को वैश्वीक पूंजी के लिये अनुकूलित करने का बीडा अपने कंधे पर उठा लिया है। आज जो संस्कृति फलफूल रही है, वो है - लाखो के पैकेजो की संस्कृति, महंगे मोबाईलो की संस्कृति, नित नये आ रहे इलेक्ट्रानिक गजेंटो की संस्कृति, क्रेडीट कार्डस की संस्कृति, रिटेल बाजार की संस्कृति, माल्स की संस्कृति, मेकडोनल्डस की संस्कृति, विज्ञापन की संस्कृति, शेयर बाजार की संस्कृति, ब्ला-ब्ला-ब्ला और न जाने कौन-कौन सी संस्कृति, संक्षेप में कहे ये सब संस्कृतिया “भुमंळलीयकरण की संस्कृति” का हिस्सा है। सोचकर बडा आश्चर्य होता है लेकिन “बहुसंख्यको” पर “अल्पसंख्यको” के राज को नयी सहस्त्राब्दी में पूंजी ने बुलंदी पर पहुचा दिया है।
राजधानी में किसानों की आत्महत्याओ और उनके सवालों को लेकर जाने वाले जुलुसों के लिये स्थान नहीं है, लेकिन अंबानियों और पूंजीपतियो की मैराथन के लिये दिल्ली को संभालते पुरा प्रशासन जुटा नजर आता है यह भी संस्कृति का हिस्सा है । धर्म के नाम पर जुलुस स्वागत योग्य है पर मजदुर-किसानों की रैलीया जनता के लिये सरदर्द है यह भी संस्कृति का हिस्सा है । सांप्रदायिक दंगो के कारण चाहे कितने ही दिन शहर विराने रहे लेकिन मजदूर-किसानों की जायज बंद हडताले गैरकानूनी है यह भी संस्कृति का हिस्सा है । निजी चैनलों के धारावाहिकों में पग-पग पर स्त्रीयों का अपमान किया जा रहा है, अंधविश्वासों को बढावा दिया जा रहा है, कुरूतियों को जायज ठहराया जा रहा है यह भी संस्कृति का हिस्सा है । भगवानों को तो पहले ही बाट दिया गया था लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों को भी धर्म के आधार पर बाटने की संस्कृति चलन में आ रही है यह भी संस्कृति का हिस्सा है । वही बाजारवादी ताकते हमारी माटी के सपूतो को भी बेचने से बाज नही आ रहें है। “चे” को न जानने वाले लाखो नवयुवकों की पंसद “चे टी शर्ट” है यह संस्कृति हमारे यहा भी चल पडी है। भगत सिंह, चे, हसिया-हतौडा के फोटो वाले टी-शर्ट पहन माडल गर्व से कैट वाक कर रहे है, मजदूर-किसानों से अंतिम बचे प्रतीकों को भी छिनने की साजिश रची जा रही है यह भी हैं बाजारवादी संस्कृति का हिस्सा है । वाकई सोवियत-संघ न रहने की भारी कीमत तीसरी दुनिया के अंतिम आदमी को चुकानी पड रही है। सत्तावाद विरोधी विचारधारा का मिडिया में बढता प्रचार-प्रसार साम्राज्यवाद का “आम आदमी को राजनीती” से विरक्त करने के षडयंत्र का हिस्सा है इस षडयंत्र को बेनकाब कर आम आदमी की राजनीती को बल देने की संस्कृति की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। तो कुल मिलाकर यह है पूंजी और हमारी सांस्कृतिक विरासत के बीच बनाये जा रहें समीकरण का नतीजा।
बहस जारी है शब्दों, विचारों और समय की भी सीमा है लेकिन बहस में फिर मिलेंगे। सार्थक बहस आयोजित करने के लिये धन्यवाद।

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