(अरूण की यह कविता हरियाणा साहित्य अकादेमी की
पत्रिका हरिगंधा में प्रकाशित हुई है।)
यह केसरिया करो थोड़ा और गहरा
और यह हरा बिल्कुल हल्का
यह लाल रंग हटाओ यहाँ से
इसकी जगह कर दो काला
हमें तस्वीर के बड़े हिस्से में चाहिए काला
यह देवता जैसा क्या बना दिया जनाब
इसके बजाय बनाओ कोई सुंदर भूदृश्य
कोई पहाड़, कोई नदी
अब नदी को स्त्री जैसी क्यों बना रहे हो तुम
अरे, यह तो गंगा मैया हैं
इन्हें ठीक से कपड़े क्यों नहीं पहनाये
कर्पूर धवल करो इनकी साड़ी का रंग
कहाँ से आ रही है ये आवाज
इधर-उधर देखता है चित्रकार
कहीं कोई तो नहीं है
कहीं मेरा मन ही तो नहीं दे रहा ये निर्देश
पर मन के पीछे जो डर है
और डर के पीछे जो कैडर है
जो सीधे-सीधे नहीं दे रहा है मुझे धमकी या हिदायत
उसके खिलाफ कैसे करूं शिक़ायत?
1 comment:
धन्यवाद प्रदीप। तुम्हारे ब्लाग पर आकर मेरी कविता और ज्यादा पाठकों तक पहुंच रही है। कविता को पाठक के सिवा और क्या चाहिए।
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