Friday, 23 May 2008

देवेन्द्र रिणवा की कविता

याद नहीं आता
जैसे याद नहीं आता
कि कब पहनी थी
अपनी सबसे प्यारी कमीज
आखिरी बार
कि क्या हुआ उसका हश्र
सायकल पोंछने का कपड़ा बनी
छीजती रही मसौता बन
किसी चौके में
कि टंगी हुई है
किसी काक भगोड़े की खपच्चियों पर

याद यह भी नहीं आता
कि पसीने में सनी कमाज की तरह
कई काम भी गर्द फांक रहे हैं
किसी कोने में।

(लगभग दो माह की अनुपस्थिती के बाद इस कविता के साथ हाजिर हूँ। आप लब की शिकायतें और सजा सिर माथे। आईए फिर शुरू करें लफ्फाजी। देवेन्द्र रिणवा हमारे समय के संभावनाशील युवा कवि हैं। इनकी कविताओं में जीवन के छोटे-छोटे प्रतीक बड़ी अर्थवत्ता के साथ रेखांकित होते हैं। कथाबिंब जनवरी-मार्च 2008 के अंक में प्रकाशित हुई है। -प्रदीप मिश्र)

4 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

याद यह भी नहीं आता
कि पसीने में सनी कमाज की तरह
कई काम भी गर्द फांक रहे हैं
किसी कोने में।

एक बेहतरीन रचना पढवाने का आभार..

***राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

देवेन्द्र रिणवा को बधाई और आपका आभार.

प्रदीप कांत said...

इतनी बेहतर कविता
किसी टिप्पणी के लिये जगह ही नहीं रही। देवेन्द्र को बधाई और कविता पढ़वाने के लिये आपका धन्यवाद।

लगे रहो प्रदीप भाई।

-प्रदीप कान्त व मधु कान्त

Arun Aditya said...

देवेन्द्र जी, अच्छी कविता है। बधाई।

प्रदीप, देर आयद , दुरुस्त आयद।

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