Thursday, 21 August 2008

मानव सभ्यता का विकास -4

यह वर्ण-व्यवस्था मानव समाज के भावी विकास के लिए आवश्यक थी। इससे एक वर्ग ऐसा बना जो अवकाश-भोगी था और अपना समय गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण आदि के विकास के लिए दे सकता था। वर्ण-व्यवस्था के कारण धर्म शास्त्र, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का विभाजन हुआ। ऋग्वेद में यह विभाजन नहीं है, बीजरूप में भले विद्यमान हो। भरत का नाट्यशास्त्र, कालिदास के नाटक, कपिलकणाद के दर्शन, पाणिनि का व्याकरण, आर्यभट्ट का गणित इस वर्गभेद और संपत्तिगत विभाजन से ही संभव हुए। आज वर्ण-व्यवस्था को अन्यायपूर्ण ठहराना सही है लेकिन अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्यण के समय उसे अन्यायपूर्ण ठहराना निरर्थक है, क्योंकि वह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य थी। ऐंगेल्स ने प्राचीन युग में दास-प्रथा की आलोचना करने वालों से ``ऐं टीडूयरिंग`` में कहा है, यदि यूनान में दास-प्रथा न होती तो यूरोप में सोशलिज्म भी न आता। इसी तरह भारत और विश्व के भावी विकास के लिए वर्ण-व्यवस्था आवश्यक थी। आज हम यह न मानते हैं कि ब्राह्यण और क्षत्रिय वर्गहितों से परे ईश्वर के अंश हैं, न हम यहीं मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और मानव-सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण देन न थी। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है, सभ्यता की प्रगति के साथ दुर्गति का भी एक अंश जुड़ा रहता है, उसी के अनुकूल यहाँ भी यह प्रगति समाज के लिए बाध्य करके ही हुई। स्त्रियों की शिक्षा और सार्वजनिक कार्यों से दूर रखने के लिए कड़ी व्यवस्था की गयी और शूद्र को यथाकामवध्य: कहा गया। (पृष्ठ ५७-५८)
डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल ने पहले महायुद्ध के बाद अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ ``हिन्दू राज्यतंत्र`` लिखा था। अंग्रेज शासक और उनके समर्थक इतिहासकार भारतवासियों को यह कहकर नीचा दिखाते थे कि भारत और एशिया के लोग सदा से निरंकुश राजतन्त्र के आदी रहे हैं। जनतंत्र का उद्भव यूनान में हुआ और इंग्लैण्ड में उसका विकास हुआ। भारतवासियों को जनतंत्र की शिक्षा देने का श्रेय अंग्रेजों को है। डॉ. जायसवाल ने भारत के प्राचीन गणराज्यों का अध्ययन करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जनतंत्र का उद्भव यहाँ बहुत पहले हो चुका था, इसलिए अंग्रेजों का यह आरोप कि यहाँ के लोग कभी जनतंत्र से परिचित नहीं रहे झूठा है। हम जनतंत्र दिखाने का दावा दंभ मात्र है। डॉ. जायवाल ने जो सामग्री यहाँ एकत्र की, उससे एक बीते युग की जानकारी बढ़ी। उन्होंने न केवल जनतंत्र वरन् भारतीय राज्यतंत्र के अन्य रूपों के बारे में भी यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य दिये। उनका यह दावा कि प्राचीन गण राज्यों में जनतांत्रिक व्यवस्था थी, बिल्कुल सहीं है। सत्ता जनता से भिन्न किसी शासक वर्ग के हाथ में न थी। सैन्य शक्ति जनता से भिन्न कोई अलग सशस्त्र दल न थी जो शासक वर्ग की आज्ञापालन के लिए हो। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि यूरोप के प्राचीन समाजों में जनतांत्रिक व्यवस्था का विकास हुआ था तो यह विकास भारत में भी हो चुका था। इसलिए अंग्रेजों का दावा झूठा था, विशेषकर जब उनका पूंजीवादी जनतंत्र मजदूरों के शोषण और भारत जैसे उपनिवेशों की लूट के लिए था। (पृष्ठ ६०)
छठीं शताब्दी ई. पू. में बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उत्तर भारत में सोलह महा-जनपद थे। डॉ. बी.सी. लॉ के अनुसार ये स्वायत्त शासन वाले जन थे। अंग राज्य आज के भागलपुर के पास गंगा नदी के किनारे था और चम्पा नगर उसकी राजधानी था। अंग और काशी के राज्यों में स्पर्धा चलती थी। कोसल राज्य की सीमाएँ आज के अवध से मिलती-जुलती थीं। कोसल ने काशी को जीतकर उसे अपने राज्य में मिला लिया था। बाद को कपिलवस्तु के शाक्यों पर भी कोसल का आधिपत्य हो गया था। कोसल के राजा प्रसेनजित और मगध के राजा अजातशत्रु में लम्बा संघर्ष चला। यह दिलचस्प बात है कि कोसल का राजा प्रसेनजित गौतम बुद्ध का प्रशंसक था। वज्जि (वृजि) संघ में विदेह, लिच्छवि, वज्जि आदि अनेक गण शामिल थे। कोसल से लिच्छवियों की मैत्री थी। बौद्ध काल में विभिन्न गण अनेक संघ बनाने लगे थे। आगे चलकर उनके परस्पर मिलने और मिलकर एक जाति (नैशनैलिटी) का रूप लेने में यह कार्य सहायक हुआ। मल्लों के मुख्य नगर पावा और कुशीनारा थै। चेदिजन आज के बुन्देलखण्ड में रहता था। वत्सजन का मुख्य नगर जमुना के किनारे कोशाम्बी था। गुरूजन का मुख्य नगर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ था और पञ्चाल बदायूँ और फर्रूखाबाद के आसपास के प्रदेश में रहते थे। मत्स्य प्रदेश में आज के अलवर, भरतपुर और जयपुर शामिल थे। शूरसेन जन की राजधानी मधुरा या मथुरा थी। अवन्ति जन का प्रदेश वर्तमान मालवा था और उज्जयिनी उनकी प्रमुख नगरी थी। इन प्राचीन जनों के प्रदेश की सीमाएँ महत्वपूर्ण हैं। डॉ. लॉ के आधार पर दिये हुए उपर्युक्त विवरण से मालूम होता है कि बौद्ध ग्रंथों में जिन राज्यों का उल्लेख हैं, वे अधिकतर वर्तमान हिंदी-भाषी प्रदेश के अन्तर्गत है। वैदिक समाज की चर्चा करते हुए हम देख चुके हैं कि मुख्य वैदिक जन इसी प्रदेश के थे। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित जनों, गणों या राज्यों के प्रदेश पर ध्यान देने से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इनमें अधिकांश और विशेषकर शक्तिशाली मगध और कोसल के राज्य हिंदी-भाषी प्रदेश के अंतर्गत थे। इस तरह वैदिक और बौद्ध साहित्य द्वारा जितना क्रमबद्ध प्राचीन इतिहास हमें हिन्दी-भाषी जाति का मिलता है, उतना भारत की अन्य जातियों का नहीं। इन प्राचीन जनों और राज्यों में परस्पर संपर्क था, वे एक-दूसरे से मिलती-जुलती भाषाएँ बोलते थे, विभिन्न गणों ने मिलकर संघ बनाये थे, मगध सम्राटों के राज्यों में ये प्राय: सभी शामिल थे, ये तथ्य हिन्दी-भाषी जाति के निर्माण में सहायक हुए। लेकिन हिन्दी-भाषी जाति का गठन बाद का है। इससे पहले वे छोटी-छोटी जातियाँ बनीं जो आज के विशाल हिन्दी-भाषी प्रदेश के विभिन्न इलाकों में बहुत कुछ सुरक्षित हैं। इन्हें हम लोग जनपद कहते हैं जैसे ब्रज, अवध, बुंदेलखंड के जनपद। ये जनपद उन्हीं क्षेत्रों में बने जहाँ प्राचीन शूरसेन, कोसल, चेदि आदि जन रहते थे। प्राचीन जन रक्तसंबंध पर आधिारित थे लेकिन बाद के जनपदों में जनता के संगठन का आधार वर्ण-धर्म था। वर्णों के संगठन में प्राचीन रक्तसंबंधों, गोत्रों आदि की रक्षा की गई, लेकिन ये संबंध अब मुख्य न थे। मुख्य संबंध श्रम के विभाजन के अनुसार आर्थिक थे। अब भूमि पर भूस्वामियों का शासन था और किसानों का काम उन्हें अपने श्रमफल से शासक और शोषक के रूप मे जीवित रखना था। (पृष्ठ ६६-६७)
मार्क्स या ऐंगेल्स की किसी स्थापना को आँख मूँद कर दोहराने के पहले इस सम्बन्ध में जो सामग्री सामने आये, उस पर ध्यान देना मार्क्सवादी पद्धति के ज्यादा अनुकूल होगा। (पृष्ठ ६२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी चौथी कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

5 comments:

संगीता पुरी said...

अच्छी जानकारी मिल रही है। आगे भी लिखते जाएं। पढ़ती रहूंगी।

Udan Tashtari said...

बढ़िया आलेख..आभार.

प्रदीप मिश्र said...

भाई उड़न तश्तरी मैं आपका इन्तजार कर रहा था, कहाँ गयब हो गए थे। सब खैरियत से है न। संगीता जी हौसला अफजाई के लिए आभारी हूँ।
आप दोनों का आभार एवं सदैव इंतजार।

Arun Aditya said...

सीरीज अच्छी चल रही है। राकेश जी और आप दोनों को बधाई।

प्रदीप कांत said...

इस तरह के महत्वपूर्ण लेख हमेशा पढ़वाते रहें।

- प्रदीप कान्त

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