Sunday, 23 March 2008
२३ मार्च २००८ भगत सिंह शहादत दिवस
जिस दिन उसे फांसी लगी
उसकी कोठरी से
उसी लेनिन की एक किताब
बरामद हुई थी
जिसका एक पन्ना
मोड़ा हुआ था
देश की जवानी को
उसके आखिरी दिन के मोड़े हुए
पन्ने से आगे बढ़ना है। -अवतार सिंह पाश
सांडर्स मर्डर केस के मामले में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाते हुए लाहैर हाईकोर्ट के जस्टिस फोर्ड ने भी अपने फैसले में लिखा था – यह बयान कोई गलती न होगी कि ये लोग दिल की गहराई और पूरे आवेग के साथ वर्तामान समाज के ढांचे को बदलने की इच्छा से प्रेरित हैं। भगत सिंह एक ईमानदार और सच्चे क्रांतिकारी हैं। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि वे स्वप्न को लेकर पूरी सच्चाई से खड़े हैं कि दुनियां का सुधार वर्तमान सामाजिक ढांचे को तोड़कर ही हो सकता है।
भगत सिंह और उनके साथियों के दिमाग में स्पष्ट था कि वे कैसी आजादी चाहते हैं। अपनी शहादत के तीन दिन पूर्व 20 मार्च को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव ने पंजाब के गवर्नर को पत्र लिखकर मांग की थी कि उन्हे फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये। इस पत्र में उन्होंने लिखा था – हम यह कहना चाहते हैं कि, युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपति के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी अस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता।
भगवती चरण बोहरा द्वारा लिखित पैम्फलेट बम का दर्शन जिसे भगत सिंह ने अंतिम रूप दिया और जो 26 जनवरी 1930 को देश भर में बांटा गया था, में आजाद भारत की कल्पना करते हुए कहा गया है – क्रांतिकारियों को विश्वाश है कि देश को क्रांति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं...उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठूओं ले ....के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए खुल जाएं। क्रांति पूमजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलानेवाली प्रणाली का अंत कर देगी। ...क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर तथा किसानों का राज्य कायमकर उन सब सामाजिक अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनैतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं। -(उस मोड़े हुए पन्ने से आगे से लिए गए अंश)
यह चित्र एवं सामग्री लोकजतन के सम्पादक श्री जसविंदर सिंह द्वारा लिखित पुस्तिका उस मोड़े हुए पन्ने से आगे के कवर से लिया गया है। इस पुस्तिका का प्रकाशन 13-बी, पद्मनाभन नगर, न्यू सुभाष कोलोनी भोपाल (म.प्र.) से हुआ है।
तो क्या हमें ऐसा नहीं लगता है कि भगत सिंह की शहादत दिवस को मनाकर हम अपराध कर रहै हैं ? क्योंकि वे जिस तरह के आजाद भारत के लिए अपनी जवानी कुर्बान करके गए थे, हम ठीक विपरीत तरह का भारत बना रहें है। यह सचमुच किसी भी देश के नागरिकों के लिए शर्मानाक है। - प्रदीप मिश्र
यह चित्र पं. रामप्रसाद बिस्मिल प्रतिष्ठान, भोपाल, (म.प्र.) द्वारा प्रकाशित स्मारिका क्रान्ति समरगाथा से लिया गया है।
Thursday, 20 March 2008
प्रदीप की कविताएं
दुःखी मन की तलाश
दु:खी मन पर होता है इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उड़ना चाहे तो
फिस्स हो जाए और
आकाश उठाने का कोशिश में
धप्प् से गिर जाए
दु:खी मन में होती है इतनी पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफक्कर
बहन छोड़ दे
डोली चढ़ने के सपने
दु:खी मन में होती है इतनी निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एकमात्र जीव की निराशा
दुःखी मन जंगल में
भटकता हुआ मुसाफिर होता है
जिसे घर नहीं
नदी या सड़क की तलाश होती है
दुःखी मन
नदी में नहा कर
जब उतरता है सड़क पर
मंजिलें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ ।
-प्रदीप मिश्र
बुरे दिनों के कलैण्डरों में
जिस तरह से
मृत्यु के गर्भ में होता है जीवन
नास्तिक के हृदय में रहती है आस्था
नमक में होती है मिठास
भोजन में होती है भूख
नफरत में होता है प्यार
रेगिस्तान में होती हैं नदियाँ
हिमालय में होता है सागर
उसी तरह से
अच्छे दिनों की तारीखें भी होतीं हैं
बुरे दिनों के कलैण्डरों में ही ।
-प्रदीप मिश्र
(दुःखी मन की तलाश कादम्बिनी के फरवरी 2008 अंक में छपी थी और बुरे दिनों के कलैण्डरों में हँस के फरवरी 2008 अंक में छपी थी। कुछ कविताएं अक्षर पर्व में आनेवाली हैं, छपने के बाद उसे भी ब्लाग पर डालूँगा।)
दु:खी मन पर होता है इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उड़ना चाहे तो
फिस्स हो जाए और
आकाश उठाने का कोशिश में
धप्प् से गिर जाए
दु:खी मन में होती है इतनी पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफक्कर
बहन छोड़ दे
डोली चढ़ने के सपने
दु:खी मन में होती है इतनी निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एकमात्र जीव की निराशा
दुःखी मन जंगल में
भटकता हुआ मुसाफिर होता है
जिसे घर नहीं
नदी या सड़क की तलाश होती है
दुःखी मन
नदी में नहा कर
जब उतरता है सड़क पर
मंजिलें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ ।
-प्रदीप मिश्र
बुरे दिनों के कलैण्डरों में
जिस तरह से
मृत्यु के गर्भ में होता है जीवन
नास्तिक के हृदय में रहती है आस्था
नमक में होती है मिठास
भोजन में होती है भूख
नफरत में होता है प्यार
रेगिस्तान में होती हैं नदियाँ
हिमालय में होता है सागर
उसी तरह से
अच्छे दिनों की तारीखें भी होतीं हैं
बुरे दिनों के कलैण्डरों में ही ।
-प्रदीप मिश्र
(दुःखी मन की तलाश कादम्बिनी के फरवरी 2008 अंक में छपी थी और बुरे दिनों के कलैण्डरों में हँस के फरवरी 2008 अंक में छपी थी। कुछ कविताएं अक्षर पर्व में आनेवाली हैं, छपने के बाद उसे भी ब्लाग पर डालूँगा।)
वनमाली स्मृति कथा सम्मान
इसबार वनमाली स्मृति कथा पुरस्कार समकालीन हिन्दी कथा और कविता के चर्चित हस्ताक्षर उदय प्रकाश को दिया गया। सम्मान समारोह में उदय प्रकाश की कहानियों पर प्रतिष्ठित कथाकार एवं चित्रकार प्रभुजोशी तथा समीक्षक विजयबहादुर सिंह ने अपने विचार रखे। उदय प्रकाश हमारे समय के ऐसे कवि-कथाकार हैं जिनके पास पाठको की सबसे ज्यादा बड़ी सूची है। इनको पढ़ना समय के हर दांव-पेंच से परिचित होने जैसा है। मैं इनकी रचनाओं का प्रसंशक एवं पाठक दोनों ही हूँ। मेरी शुभकानाएं। - प्रदीप मिश्र
रात
इतने घुप्प अंधेरे में
एक पीली पतंग
धीरे-धीरे
आकाश में चढ़ रही है।
किस बच्चे की नींद में है
उसकी गड़ेरी
किस माँ की लोरियों से
निकलती है डोर।
- उदय प्रकाश
रात
इतने घुप्प अंधेरे में
एक पीली पतंग
धीरे-धीरे
आकाश में चढ़ रही है।
किस बच्चे की नींद में है
उसकी गड़ेरी
किस माँ की लोरियों से
निकलती है डोर।
- उदय प्रकाश
Wednesday, 19 March 2008
राग तैलंग
समय की बात रागतैलंग के फुटकर गद्य लेखन का संग्रह है। राग मूलतः कवि हैं और सरकार की नौकरी बजाते हैं। पुस्तक के फ्लैप पर रामप्रकाश त्रिपाठी ने लिखा है -
“यह संग्रह गद्यात्मक निबंध में काव्याभास पैदा करने का प्रभावी कारनामा है।......ये मानवीय करूणा के दस्तावेज हैं। मानवीयता की पक्षधरता ही शायद सबसे सकारात्मक राजनीति होती है। राग को बधाई। ”
राग को मेरी भी बधाई । उनके ताजा कविता संग्रह का विमोचन 12 अप्रैल को भोपाल के भारत भवन में होने वाला है। तो फिर एक कविता हो जाए - प्रदीप मिश्र
सवाल करो
सवाल करो खड़ो होकर
अगर चीजें तुम्हें समझ नहीं आतीं
अगर तुम्हारे पास
वे चीजें नहीं हैं जो दूसरों के पास हैं तो सवाल करों
सवाल करो
अगर तुम्हे शिक्षा सवाल करना नहीं सिखाती
अगर उत्तरों से और सवाल पैदा नहीं होते
तो सवाल करो
सवाल करो
अगर तुम्हारे होने की महत्ता को स्वीकार नहीं किया गया
अगर तुम अपने आप के होने को
अब तक साबित नहीं कर पाए हो तो सवाल करो
सवाल करो
और जानो समझो ऐसा क्यों है
ऐसा कौन चाहता है कि सवाल ही पैदा नहो
ऐसा होने से वाकई किसका बिगड़ता है और
किसका क्या बनता है
इस बारे में सबसे सवाल करो
इस शोर भरे समय की चुप्पी तोड़ना चाहते हो तो
सवाल जरूर करो।
- राग तैलंग
Monday, 10 March 2008
अरूण की कविता
सबका अपना-अपना मठ है
मेरे मठ में मेरा हठ है
मैं, मैं, मैं, मैं मंत्र हमारा
मैं की खातिर तंत्र हमारा
मेरा मैं है मुझको प्यारा
मैं अपने ही मैं से हारा
मेरे मैं की जय है, जय है
मेरा मैं ही मेरा भय है
मेरे मैं को आबाद करो
मुझको मैं से आजाद करो
मैं साधू , मेरा मैं शठ है
फ़िर भी मैं की खातिर हठ है। - अरुण आदित्य
अरूण हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-पत्रकार हैं। इनकी रचनाऐं समय पर जमती हुई गन्दगी को खुरच-खुरचकर साफ करती रहतीं है। इसी तरह की सफाई में लगी यह कविता भी है। मेंने यह कविता अरूण के बलाग से मारा है। मुझे पसन्द आयी सो उठा लिया। आपको कैसी लगी लिखिए। - प्रदीप मिश्र
मेरे मठ में मेरा हठ है
मैं, मैं, मैं, मैं मंत्र हमारा
मैं की खातिर तंत्र हमारा
मेरा मैं है मुझको प्यारा
मैं अपने ही मैं से हारा
मेरे मैं की जय है, जय है
मेरा मैं ही मेरा भय है
मेरे मैं को आबाद करो
मुझको मैं से आजाद करो
मैं साधू , मेरा मैं शठ है
फ़िर भी मैं की खातिर हठ है। - अरुण आदित्य
अरूण हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-पत्रकार हैं। इनकी रचनाऐं समय पर जमती हुई गन्दगी को खुरच-खुरचकर साफ करती रहतीं है। इसी तरह की सफाई में लगी यह कविता भी है। मेंने यह कविता अरूण के बलाग से मारा है। मुझे पसन्द आयी सो उठा लिया। आपको कैसी लगी लिखिए। - प्रदीप मिश्र
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