Thursday, 20 March 2008

प्रदीप की कविताएं

दुःखी मन की तलाश

दु:खी मन पर होता है इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उड़ना चाहे तो
फिस्स हो जाए और
आकाश उठाने का कोशिश में
धप्प् से गिर जाए

दु:खी मन में होती है इतनी पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफक्कर
बहन छोड़ दे
डोली चढ़ने के सपने

दु:खी मन में होती है इतनी निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एकमात्र जीव की निराशा

दुःखी मन जंगल में
भटकता हुआ मुसाफिर होता है
जिसे घर नहीं
नदी या सड़क की तलाश होती है

दुःखी मन
नदी में नहा कर
जब उतरता है सड़क पर
मंजिलें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ ।


-प्रदीप मिश्र


बुरे दिनों के कलैण्डरों में

जिस तरह से

मृत्यु के गर्भ में होता है जीवन
नास्तिक के हृदय में रहती है आस्था

नमक में होती है मिठास
भोजन में होती है भूख
नफरत में होता है प्यार

रेगिस्तान में होती हैं नदियाँ
हिमालय में होता है सागर

उसी तरह से
अच्छे दिनों की तारीखें भी होतीं हैं
बुरे दिनों के कलैण्डरों में ही ।

-प्रदीप मिश्र

(दुःखी मन की तलाश कादम्बिनी के फरवरी 2008 अंक में छपी थी और बुरे दिनों के कलैण्डरों में हँस के फरवरी 2008 अंक में छपी थी। कुछ कविताएं अक्षर पर्व में आनेवाली हैं, छपने के बाद उसे भी ब्लाग पर डालूँगा।)

3 comments:

Arun Aditya said...

donon kavitayen achchhi hain.

प्रदीप कांत said...

दुःखी मन
नदी में नहा कर
जब उतरता है सड़क पर
मंजिलें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ ।

और

रेगिस्तान में होती हैं नदियाँ
हिमालय में होता है सागर

उसी तरह से
अच्छे दिनों की तारीखें भी होतीं हैं
बुरे दिनों के कलैण्डरों में ही ।

कवि का यह विश्वास हमेशा बनाए रखना। इतनी अच्छी कविताओं पर बधाई -प्रदीप कान्त

sanjay patel said...

सुन्दर कविताएँ हैं प्रदीप भाई.
अनायास वैगातवाड़ी के ज़रिये आपसे मुलाक़ात हो गई.आप जैसे समर्थ रचनाकारों को तो लगातार रचनाएँ जारी करनी चाहिये.

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