Monday, 1 September 2008

मानव सभ्यता का विकास -5

अंग्रेज पहले भारत में व्यापार करने आये थे, यहाँ का माल अपने वहाँ बेचकर मुनाफा कमाने आये थे। लेकिन अपने यहाँ की औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ उन्होंने भारत के उद्योग-धंधों का नाश किया। १८ वीं सदी के अन्त तक भारत के रेशमी और सूती कपड़े अंग्रेजी बाजार में वहाँ के कपड़ों के मुकाबले में ५०-६० फीसदी सस्ते बेचे जा सकते थे। इससे साबित होता है कि इंगलैण्ड अभी औद्योगिक दृष्टि से कमजोर था। अपने माल की खपत के लिए उसने भारतीय माल पर ७०-८० फीसदी कर लगाया जिसका अर्थ था, माल आने पर एकदम रोक लगा देना। इससे पहले एलिजाबेथ ने लोगों को बाध्य किया था कि वे इतवार और त्यौहार के दिन इंगलैंड की बनी हुई टोपी लगाया करें। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में चार्ल्स द्वितीय ने कानून बनाया था कि लोगों को दफनाने के लिए स्वदेशी कफन ही काम में लाया जाय। इससे इंगलैंड की औद्योगिक प्रगति का अनुमान किया जा सकता है। एलिजाबेथ के समय में फ्लैडर्स के बुनकर भागकर इंगलैंड आये थे और वहाँ के नगरों में बस गये थे। ``इस नये अपनाये हुए देश को उन्होंने इस योग्य बनाया कि ऊनी उद्योग में वह सिरमौर हो।`` अंग्रेजों ने भारतीय माल पर जो भारी कर लगाने की नीति अपनायी थी, वह १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक जारी रही। १८४० की पार्लियामेंट कमेटी की जाँच से पता चलता है कि भारत में आने वाले अँग्रेजी माल पर साढ़े तीन फीसदी (सूती और रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और दो फीसदी (ऊनी कपड़ों पर) कर लगता था लेकिन यहाँ से जो माल विलायत जाता था, उस पर दस फीसदी (सूती माल पर), बीस फीसदी (रेशमी माल पर) और तीन फीसदी (ऊनी माल पर) कर लगता था। देखने की बात है कि ऊनी माल पर सबसे ज्यादा कर था, यानी इसकी होड़ से अंग्रेज उद्योगपति सबसे ज्यादा बचना चाहते थे और यह उस समय जब इंगलैंड में मशीनों का चलन हो गया था। (पृष्ठ १२०)
भारत में अंग्रेजों की लूट के फलस्वरूप यहाँ के औद्योगिक केन्द्र तबाह हो गये। ढाका और मुर्शिदाबाद के लिए क्लाइव ने कहा था कि ये नगर उतने ही समृद्ध है जितना कि लंदन (और जैसा शहर इंगलैंड में दूसरा न था)। लेकिन १९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ढाका की आबादी डेढ़ लाख से घट कर तीस-चालीस हजार ही रह गई। सर चाल्स्र ट्रेवेलियन के अनुसार ढाका जो भारत का मैंचेस्टर था वीरान होकर जंगल बनता जा रहा था और मलेरिया का शिकार होने जा रहा था। मोंटगोमरी मार्टिन ने अंग्रेजों द्वारा सूरत, ढाका और मुर्शिदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों के नाश को बहुत ही दुखद घटना बतलाया था। १८१७ में उसका निर्यात बन्द हो गया था। बाहर से सस्ता लोहा मँगाने की अंग्रेजी नीति के कारण भारत का अपना लोहे का कारोबार चौपट हो गया। अर्थशास्त्री बकनन ने लिखा है कि जैसी आधुनिक युग के पहले यूरोप में थीं। (आज का भारत अध्याय ५)। यहीं दशा जहाजों के कारबार की हुई। अंग्रेजी राज में भारतीय उद्योग-धंधों की तबाही पर अपनी पुस्तक में वामनदास बसु ने लिखा है कि पूरब का काफी व्यापार पहले भारतीय जहाजों द्वारा होता था। चीन, ईरान, लालसागर तक भारत के जहाज माल पहुँचाते थे। १७९५ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को यह आज्ञा मिली थी कि वह भारत में बने हुए जहाजों द्वारा लंदन माल ला सकती है। सर टामस मनरो ने भारतीय उद्योग-धंधों की दशा देखकर कहा था, ``औद्योगिक रूप में हम लोग उनसे (भारतवासियों से) बहुत पिछड़े हुए हैं।`` रजनी पाम दत्त ने लिखा है कि १८ वीं सदी के मध्य तक इंगलैंड कृषिप्रधान देश था। उन्होंने बैंस का हवाला दिया है जिसने लिखा है कि १७६० तक सूती कपड़र बनाने के लिए इंगलैंड में जो मशीनें इस्तेमाल की जाती थी, वे प्राय: वैसी ही साधारण थी जैसी भारत की। एक तो उन्होंने अपने औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक पूँजी बटोरी, दूसरे अपने माल के लिए भारत को खेतिहर देश बनाकर उन्होंने एक बाजार कायम किया। इंगलैंड मेमं भारत की लूट के फलस्वरूप बैंकिंग का कारोबार चमका। प्लासी के युद्ध के बाद इंगलैंड की हालत बदल गई। वहाँ जिन यंत्रों का आविष्कार किया गया था, उन्हें काम में लाने की सुविधा पैदा हो गई। ``इस तरह भारत की लूट पूँजी के एकत्रीकरण का वह गुप्त स्त्रोत थी जिसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका के कारण इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति संभव हुई।`` (पृष्ठ १२०-१२१)
हेगेल एक भाववादी विचारक था, लेकिन इसी कारण मार्क्स और ऐंगेल्स ने उसकी विचारधारा से किनाराकशी नहीं कर ली। उन्होंने उसके चिन्तन के क्रांतिकारी तत्व को पहचाना और उसे विकसित किया। यह पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है जिससे हम पुराने विचारकों का सही मूल्यांकन करना सीखते हैं। मार्क्स ने लिखा है कि उन्होंने ``पूँजी`` के प्रकाशन से तीस साल पहले ही हेगेल के द्वन्द्ववाद के रहस्यमय पक्ष की आलोचना की थी। हेगेल से अपनी पद्धति का भेद बतलाते हुए उन्होंने लिखा है, ``मेरी द्वन्द्वात्मक पद्धति हेगेल पद्धति से भिन्न ही नहीं है वरन् ठीक उसकी उल्टी है।`` हेगेल के लिए मनुष्य की चिंतनक्रिया वास्तविक संसार की मूल प्रेरक शक्ति है और यथार्थ जगत् ``विचार`` का बाह्म रूप है। इसके विपरित मार्क्स के लिए मनुष्य का विचार-जगत् उसके मन में भौतिक जगत् का ही प्रतिबिम्ब है और वह विचारों का रूप धारण करता है। ``हेगेल में द्वन्द्ववाद रहस्यमय बन जाता है। लेकिन इससे इस बात में रूकावट नहीं पड़ी की हेगेल ने सबसे पहले व्यापक और सचेत ढंग से उसकी क्रिया का आम रूप पेश किया था। हेगेल का द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा है। रहस्यमय रूप के भीतर उसके तर्क-संगत तत्व को जाना है तो उसे फिर से सीधे खड़ा करना होगा।``(पृष्ठ १४३)
मनुष्य ने युगों गों तक अपार यातनाएँ सहकर आज की सभ्यता को जन्म दिया है। यातना अधिकांश जनता के भाग्य में पड़ी, उस यातना से सुख उठाना थोड़े-से सम्पत्तिशाली लोगों के हाथ में रहा। यह युग मानव-समाज के विकास में एक विराट परिवर्तन का युग है। शोषण और ध्वंस की शक्तियाँ अपना विनाश सामने देख रही हैं। वे संसार की बहुसंख्यक जनता का नाश करके उस घड़ी को टालना चाहती हैं। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील के सिद्धांत उन्हें प्रिय नहीं लगते, व्यवहार में प्रतिदिन वे इन सिद्धांतों को तोड़ती हैं। साथ ही स्थायी शांति और शोषणहीन व्यवस्था कायम करने वाली शक्तियाँ अदम्य वेग से आगे बढ़ रही हैं। विजय इन्हीं प्रगतिशील शक्तियों की होगी। वह देश जो दो सौ वर्ष पहले संसार के किसी भी देश से पिछड़ा हुआ न था, शीघ्र ही अपना ऐतिहासिक स्थान प्राप्त करेगा और मानव-सभ्यता के विकास में अपने इतिहास के अनुरूप ही योग देगा। यह विश्वास सामाजिक विकास के वैज्ञानिक अध्ययन से पुष्ट होता है।(पृष्ठ ११)
एक अर्थ में मनुष्य श्रम द्वारा ही पशु से मनुष्य बना है। पशु-अवस्था से निकले हुए मनुष्य को लाखों वर्ष हो चुके और उस अवस्था का ठीक काल-निर्णय करना सम्भव नहीं है। लेकिन पशु-जीवन से निकलते-निकलते उसे लाखों वर्ष लगे होंगे, इसमें संदेह नहीं। उसकी सभ्यता का इतिहास उसके पशुजीवन के इतिहास के समय को देखते हुए बहुत छोटा है। (पृष्ठ १५)

मानव चेतना बाह्य जगत की वस्तुगत सत्ता को ठीक-ठीक नहीं समझती, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि वह जादू-टोने से, जंतर-मंतर सेऱ्या आगे चलकर योग-बल से।-उसे इच्छानुसार बदल लेगा। (पृष्ठ २२)
मातृसत्ताक गोत्रों में किसी व्यक्ति की अपनी वस्तुएँ उसके न रहने पर उसके मामा, भांजे और भाई पाते हैं। उसकी अपनी संतान उन्हें नहीं पाती। नारी की वारिस उसकी अपनी संतान, उसकी बहने और उसकी बहनों की सन्तान होती है। इस तरह गोत्र की उत्पत्ति गोत्र में ही रहती है। मातृसत्ताक विरासत का यह ढंग बहुत दिनों तक प्राचीन मिस्त्र में चलता रहा जहाँ राज परिवार में बहन-भाई इसलिए शादी करते थे कि अपने गोत्र की सम्पत्ति बाहर न जाय।(पृष्ठ २३)
इस संस्कृति के विनाश का श्रेय यूरोप की ``सभ्यता`` को है। अमरीकी आदिवासियों के विनाश का इतिहास अच्छी तरह प्रकट करता है कि यूरोप के लुटेरे वहाँ किस तरह की सभ्यता फैलाने गये थे। इसमें सन्देह नहीं कि यूरोप निवासी वहाँ न पहुँचते तो पेरू और मेक्सिको के लोग सभ्यता की अगल मंजिलों की तरफ बढ़ते। फॉस्टर ने ठीक लिखा है कि इनमें शासक वर्ग और राज्यसत्ता के निर्माण के लक्षण मिलते हैं। अज्तेक और इंका लोगों ने दूसरे कबीलों को जीत कर अपना राज्य-विस्तार किया था और उन कबीलों से दास, सैनिक, नरमेध के लिए बलि प्राप्त करते थे। फॉस्टर ने लिखा है, ``जब स्पेन के लोग अमरीका पहुँचें, तब दिखता है कि इंका और अज्तेक लोग वैसे ही समाज का विकास करने में लगे हुए थे, जैसे प्राचीन ग्रीस और रोम के लोग।`` इससे सिद्ध होता है कि सामाजिक विकास के नियम अमरीकी आदिवासियों पर वैसे ही लागू होते हैं जैसे यूरोप के ``सभ्य आर्यों`` पर। (पृष्ठ ३२)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी पांचवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

4 comments:

महेन said...

आपका ब्लोग लिंक अपने ब्लोगरोल में पहले ही डाल लिया था। आज फ़ुर्सत से पढ़ना शुरु किया है। अभी तो बाकी की सारी श्रंखलाएं पढ़नी हैं। आपका प्रयास सराहनीय है। धन्यवाद।

Arun Aditya said...

सीरीज अच्छी चल रही है। पढ़ें और विचारों का घमासान करें।

प्रदीप कांत said...

अच्छी सीरीज है. चलने दो ताकि लोग विचारों का घमासान करते रहें.

प्रदीप मिश्र said...

महेन जी,अरूण और प्रदीप आप सबका आभारी हूँ। प्रयास कर रहा हूँ। ऱाम विलास जी जन्मदिन पर कुछ विशेष दे सकूँ।

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