खेतों के काम करने वालो दासों को गरम लोहे से दाग दिया जाता था जिससे कि वे सदा पहचाने जा सके कि किस मालिक के हैं। रात को भेड़-बकरियों की तरह वे बाड़ों में बन्द कर दिये जाते थे और भूखे जानवरों की तरह सबरे खेतों में हाँक दिये जाते थे। युद्ध से गुलामों की कमी पूरी न होती थी तो गुलाम उड़ाने वाले डाकू उन्हें जुटाते थे। वर्षों तक ईजियन और पूर्वी भूमध्य सागर से ये डाकू लोगों को पकड़ लाते थे और उन्हें देलोस के बाजार में बेच देते थे। वहाँ से रोमन व्यापारी उन्हें इटली ले आते थे। (पृष्ठ ४३)
यह अत्याचार न सह सकने पर दासों ने कई बार विद्रोह किया। सिसिली में साठ हजार विद्रोही दासों ने अपने मालिकों को मार कर शहरों पर कब्जा कर लिया और अपना राज्य स्थापित कर लिया। रोमन फौज कई साल के संघर्ष के बाद ही उन्हें दबा पायी। इस विद्रोह के समय छोटे खेतों के मालिक, स्वाधीन किसान भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने धनी भूस्वामियों के महलों में आग लगा दी। ``इसलिए दासों के विद्रोह से न केवल दासों की वरन् स्वाधीन लोगों में निर्धन किसान वर्ग की भी घृणा प्रकट हुई।`` (ब्रेस्टेड)। धनी और निर्धन का भेद इतना तीव्र हो गया था कि दोनों वर्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गये थे। ``इटली दो बड़े सामाजिक वर्गों में बँट गया था।`` जो एक-दूसरे के खतरनाक ढंग से विरोधी था।`` (उप.)। एक और भूपतियों का वर्ग था जिनके पास दास और भूमि थी, दूसरी ओर दास और वे गरीब किसान थे जो भूपतियों की नीति से तबाह हो रहे थे। रोमन सामन्तों की युद्ध-नीति से साधारण जनता खुशहाल न हुई, वरन् और तबाह हुई। दूसरों को लूट कर वे जो सम्पदा लाते थे, उससे साधारण जनता को लाभ न था। युद्ध से लौटने पर रोमन सैनिकों को अपना खेत सुरक्षित न मिलता था। कर्ज के न चुका सकने पर अक्सर वह भूस्वामी के पास पहुँच जाता था। अगर खेत बचा भी रहा तो वह गुलामों द्वारा की जाने वाली बड़े पैमाने की खेती का मुकाबला न कर सकता था। बाहर से भी सस्ता अनाज मँगाया जाता था। आगे-पीछे खेत बेच कर किसान सर्वहारा बनकर रोम पहुँच जाता था। रोम का भव्य साम्राज्य उसके स्वाधीन किसानों ने ही कायम किया था। वहीं उससे तबाह हुए। एथेंस की तरह रोम के पतन का आंतरिक कारण ये मुफलिस बने। (पृष्ठ ४३-४४)
सबसे पहले प्रश्न यह है कि क्या वैदिक संस्कृति किसी विशेष प्रदेश की संस्कृति है। प्रदेश का सवाल भी तब उठता है, जब यह सिद्ध हो जाय कि इस संस्कृति के रचने वाले घुमन्तू जीवन न बिताते थे वरन् किसी प्रदेश में बस गये थे। श्री पुलास्कर ने भारत में आर्य बस्तियों की चर्चा करते हुए यह परिणाम निकाला है कि वैदिक ऋचाओं में जिस प्रदेश की चर्चा है, उसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध और राजस्थान के कुछ भाग, उत्तर-पश्छिमी सीमान्त प्रदेश, कश्मीर और सरयू नदी तक का पूर्वी प्रदेश आता है। (``वैदिक युग``)। पश्चिम के कुछ विद्वानों का मत रहा है कि ऋग्वेद का मुख्य क्षेत्र पंजाब है। उसके बाद का मत है कि यह प्रदेश सरस्वती नदी के आसपास और अंबाला के दक्षिण का है। कुछ लोगों का मत भी है कि अधिकांश मंत्र भारत के बाहर ही रचे गये थे। (पृष्ठ ४७)
यह वर्ण-व्यवस्था मानव समाज के भावी विकास के लिए आवश्यक थी। इससे एक वर्ग ऐसा बना जो अवकाश-भोगी था और अपना समय गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण आदि के विकास के लिए दे सकता था। वर्ण-व्यवस्था के कारण धर्म शास्त्र, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का विभाजन हुआ। ऋग्वेद में यह विभाजन नहीं है, बीजरूप में भले विद्यमान हो। भरत का नाट्यशास्त्र, कालिदास के नाटक, कपिलकणाद के दर्शन, पाणिनि का व्याकरण, आर्यभट्ट का गणित इस वर्गभेद और संपत्तिगत विभाजन से ही संभव हुए। आज वर्ण-व्यवस्था को अन्यायपूर्ण ठहराना सही है लेकिन अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्यण के समय उसे अन्यायपूर्ण ठहराना निरर्थक है, क्योंकि वह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य थी। ऐंगेल्स ने प्राचीन युग में दास-प्रथा की आलोचना करने वालों से ``ऐं टीडूयरिंग`` में कहा है, यदि यूनान में दास-प्रथा न होती तो यूरोप में सोशलिज्म भी न आता। इसी तरह भारत और विश्व के भावी विकास के लिए वर्ण-व्यवस्था आवश्यक थी। आज हम यह न मानते हैं कि ब्राह्यण और क्षत्रिय वर्गहितों से परे ईश्वर के अंश हैं, न हम यहीं मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और मानव-सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण देन न थी। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है, सभ्यता की प्रगति के साथ दुर्गति का भी एक अंश जुड़ा रहता है, उसी के अनुकूल यहाँ भी यह प्रगति समाज के लिए बाध्य करके ही हुई। स्त्रियों की शिक्षा और सार्वजनिक कार्यों से दूर रखने के लिए कड़ी व्यवस्था की गयी और शूद्र को यथाकामवध्य: कहा गया। (पृष्ठ ५७-५८)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी सातवीं कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)
2 comments:
बहुत आभार.
जैसे जैसे मानव सभ्य होता गया ,समय बदलता गया संस्कृति बदलती गई रचनाये बदलती गई उस वक्त जैसी परिस्थिथि थी उस अनुसार लोग जीते थे वैसी ही रचना होती थी उनसे आज क्या तुलना करना महाभारत काल में जुआ मान्य था आज अपराध है अब कोई ग्रन्थ चाहे किसी काल में लिखा गया हो किसी भी क्षेत्र में लिखा गया हो आज के माहोल से मेल तो नही खाएगा जहा तक विकास आदि की बात है तो आचार्य शुक्ल ने भी कम परिश्रम नहीं किया गया है / वैसे आप को तो पढ़ा ही करूंगा
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