कविता संग्रह –
निगहबानी में फूल
कवि – बसंत सकरगाए
मूल्य – 200 रूपए
प्रकाशक – अंतिका
प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
गाजियाबाद – 201005 (उ.प्र.)
सूखी घास में सूई ढूंढती कविताएं
“बसंत की कविताएँ
वस्तुतः समाज की परिधि पर खड़े उस आखिरी आदमी के पक्ष में बोलनेवाली कविताएँ हैं
जो अपनी फटी हुई चड्डी को अपनी हथेलियों से ढांपने की कोशिश कर रहा है। जिसके लिए
भाषा नया धागा कातने को अमादा है और जिसके लिए कविता सूखी घास में सूई को ढूँढ़
रही है। वस्तुतः ये कविताएँ अकाश में नक्षत्र की तरह चमकने या टूटने की चाहत की
कविताएँ नहीं हैं ये तो अपनी ही जमीन पर जुड़कर टूटने और टूट कर फिर टुड़ने की
इच्छा से भरी कविताएँ हैं।“ (फ्लैप) राजेश जोशी की इन पंक्तियों की छांव में बसंत सकरगाए के पहले कविता
संग्रह निगहबानी में फूल की कविताओं को पढ़ना, कविता के नए आस्वाद से गुजरने जैसा
है। बसंत की इन कविताओं में एक ऐसा संवेदना संसार
निर्मित होता है, जो अपने समय की पग ध्वनियों को दर्ज करता है। यहाँ पर दर्ज पग ध्वनियों
में हमारे समय के धड़कन की धक्-धक् के साथ भविष्य का स्वप्न भी व्याख्यायित होता
है। बसंत अपनी कविता ‘ मैं फिर भी आतंकित हूँ माँ ’ में लिखते हैं – “ मैं फिर आतंकित हूँ / माँ / दौड़ रहा है एक आतंक / पीछे-पीछे मेरे / तरह-तरह के रूप धरे / बम, तलवार, मंदिर – मस्जिद / वैश्विकता और बाजार की / भयावह गर्जन लिए। ” यहाँ पर कवि की चेतना में दर्ज पग ध्वनियों में
हमारे समय की दशा और दिशा का भयावह धक्-धक् पूरे यथार्थबोध के साथ उपस्थित है, तो ‘सहसा..........मौसम सा ’ कविता की इन पंक्तियों में
हमारे समय का स्वप्न उद्घाटित होता है - “ पहचान / कितनी करामात है तेरे इन हाथों में / सिर पर फैला ले तू यूँ हथेलियाँ / लगे कि जैसे / छायी हो जेठ की / कारी बदरियाँ धूप पर / बर्फाते जाड़े के विरूध संधर्ष हो / हो हथेलियों का इतना घर्षण / लगे सूरज उग आया हो तेरी हथेलियों पर /........../ इस मोसम की तय कोई बात नहीं / पर तू मत बदल वैसा / सहसा / मौसम सा। ” बहुत ही आसान वाक्य
विन्यास में लिखी गयी इन कविताओं को पढ़ते समय पाठक के मनः स्थिती में विचार चुपके
से अपनी जगह बना लेता है और चिन्तन का एक क्रम निर्मित करता है। जहाँ जीवन की
गाँठे स्वतः खुलती चली जाती है। कई बार पहले पाठ में बहुत ही सामान्य लगनेवाली
कविता का दूसरा पाठ उसकी व्यापकता का आकाश खोल देता है। संभवतः यह सूत्र ही है
जिसकी तरफ इशारा करते हुए राजेश जोशी लिखते हैं, भाषा नया धागा कातने को अमादा है।
इस विचार के पक्ष में कुछ कविताओं को रखकर देखना उचित होगा - “ अपनी ही जमीन पर / जुड़कर टूटना / और फिर टूटकर जुड़ना / चाहता हूँ मैं / अपनी बोली / अपनी ही भाषा में / ” (आकाश में टूटना नहीं चाहता)
या “ दस्तक के नाम पर / नहीं टूटती थीं कभी मानवीय
प्रतिबद्धताएँ / नहीं किया जाता था / कॉल बेल की तरह स्विच ऑफ कर / दस्तकों को बहरा /............ / दस्तक का यह कथा । मई की एक दोपहर ।” (दस्तक – एक)। यहाँ वर्तमान
जीवन शैली पर एक कटाक्ष है। जहाँ मनुष्य की सामाजिकता प्रश्न के घेरे में है।
जब हम पढ़ते हैं - “ बहुत सहमें हुए हैं मेरे दौर के बच्चे / कि न जाने किस बदली से कब / बरस पड़े / तेजाब ” (परवान) तो बच्चों की
चेतना के माध्यम से वातावरण में घुल रहे नकारात्मक मूल्यों से हम परिचित होते हैं।
यहाँ पर कविता के सरोकार को लेकर एक आस्वस्ति मिलती है तो पाठक अपने समय के तापमान
को महसूस करने में भी समर्थ होता है। हमारे समय के तेजी से बदलते हुए परिवेश में
बाजार की घुसपैठ ने विवेकशील नागरिकों न केवल चिन्तित कर रखा है, बल्कि एक अंधेरी
सुरंग की यात्रा का अनुभव दे रहा है। लेकिन यहाँ पर कवि आशा की किरण के तलाश में
सफल हो जाता है और लिखता है - “ सुपर बाजार और मॉल की / चकाचौंधी तमाम साजिशों / दुष्चक्रों से बे असर / घूरते हैं वे मुझे और मैं
उन्हें / अपनी-अपनी प्रश्नाकुलताओं में / न जाहिल-गवारों को यह / बुद्धत्व हुआ कहाँ से
प्राप्त । कि इनकी सिकुड़ती जेबों से हैं बावस्ता / जीवन की वास्तविक साँसें। ” (सिकुड़ती जेबों की रोशनी ) यहीं पर आज के विकास के एवज़ में प्रकृति की
उपेक्षा को रेखांकित करती हुई कवि की पंक्तियाँ - “ बनेगा एक प्रतीक्षालय / स्मृति शेष उस विराट बरगद की
जगह / जिसकी उखड़ी-बिखरी / यहाँ-वहाँ पड़ी जड़ों में / उखड़-बिखर गयीं हैं फिल-हाल / प्रकृतिक बोध, परम्परा की मजबूत जड़े ।” (स्मृति शेष बरगद) हमें हमारी संस्कृति से
जोड़ती हैं। हमारी परम्परा और प्रकृति में बेहतर जीवन की घोषणा करनेवाली इस कविता
में बरगद के छांव में मिलनेवाला सुकून, बरगद को काटकर बनाए गए प्रतिक्षालय में
मिलनेवाले आराम से बहुत ज्यादा स्वागतयोग्य एवं जीवन से भरा है। कवि अपनी परम्परा
में बची हुई मानवीयता और सकारात्मक जीवन को संरक्षित करनेलावे मूल्यों को प्रवणता
के साथ रेखांकित करता है - “ हाथ में खीर-पूड़ी, भजियों
से भरा दोना / और आओ.....आओ की सुनते ही / हाँक दद्दा की / जाने किस दिशा से आ जाते / जैसे जनम जनम के भूखे / कॉव-कॉव करते कउए......../ पितृपक्ष की यह आस्था / कितनी फिक्रमंद हैं / एक परिंदे के लिए ।” ( बस एक परिंदे की फिक्र में)।
इस कविता संग्रह की कविताओं में जीवन के सारे रंग उपस्थित
हैं। कवि अपने मन के गुलाब को प्रेम-पत्र में रखकर भेजता हैं तो प्रेमिका के गुलाब
को किताब में आमंत्रित करता है। जिससे शब्दों के भाव में सुरक्षित रहे प्रेम हमेशा-हमेशा
के लिए। वहीं शीर्षक कविता में एक मौंजू सवाल उठाता है कि सभ्य नगरों में एक
हिदायत के साथ फूल खिलते हैं कि फूल तोड़ना मना है, जबकि जंगल में बिना किसी
हिदायत के सुरक्षित रहते हैं फूल। ‘ मेरे चुस्त खरगोशी उत्साह
के मुकाबिल ’, ‘सहसा.. मौसम सा ’, ‘ सुदूर यादों में संजा ’ ‘ तुम चुप क्यों रहे बच्चे ’ और ‘ हरसूद में बाल्टियाँ ’ आदि कविताओं को पढ़ने के बाद पाठक सहजरूप से अर्थबोध के उस संसार में प्रवेश
कर जाता है, जहाँ से हमारे समय की सारी विकृतियाँ और खूबसूरती स्पष्ट दिखाई देती
है। किसी भी कवि का संभवतः यही मन्तव्य भी होता है।
कुल इक्यावन कविताओं के इस संग्रह में एक सौ बारह पृष्ठ
हैं। भुवनेश्वर भास्कर का चित्र आवरण को आकर्षक बनाता है तथा कविताओं के अमूर्त
संसार में प्रवेश करने के लिए आमंत्रित करता है। पुस्तक का प्रोडक्शन सुन्दर है।
कवि का पहला संग्रह है अतः अनुभव जगत का टटकापन भी दिखाई देता है तो शिल्पगत
कमजोरी भी। कहीं-कहीं भाषा के निर्वाह में भी समस्या है। लेकिन यह सब रियाज और
अनुभव के साथ हर कवि के पास संवरते रहते हैं। कवि होने की मूल जरूरत संवेदनात्मक
ज्ञान और अभिव्यक्त होने की बेचैनी है, जो इस संग्रह के कवि में पर्याप्त मात्रा
में उपलब्ध है। इस संग्रह का कवि अपने समय की मूख्य धारा की कविताओं से न केवल
परिचित है, बल्कि उनकी तकनीक को बहुत अच्छी तरह से समझता भी है। सूखी घास में सूई
ढूंढ़ती इन कविताओं का पाठ हमारे समय की जरूरत की तरह है। हमें यह उम्मीद है कि
कवि का अगला संग्रह अपने समय की काव्य यात्रा में महत्वपूर्ण मील के पत्थर की तरह
होगा। कविता की दुनिया में बसंत सकरगाए का स्वागत है और बहुत सारी अच्छी कविताओं
का अपेक्षा भी।
प्रदीप मिश्र – दिव्याँश 72ए
सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड पो. सुदामानगर, इन्दौर - 452009 (म.प्र)।
मो. 09425314126.
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