Friday 15 August, 2014







पुस्तक का नाम- काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस
लेखक – सत्यनारायण पटेल
मूल्य – 200 रूपये
प्रकाशक – आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 
एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16, पंचकुला – 134113 (हरियाणा)



काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस – समय पर मालवी दस्तक

हिन्दी साहित्य में इन दिनों कहानी की विधा में उल्लेखनीय रचनाशीलता दिखाई दे रही है। सबसे ज्यादा सराहनीय बात यह है कि एक साथ बहुत सारे युवा कथाकार सक्रीय हैं और एक से बढ़कर एक कहानी पाठकों को उपलब्ध करवा रहे हैं। इन कहानियों में जहाँ हमारे समय की छवियाँ पूरी प्रमाणिकता के साथ दर्ज हो रहीं हैं, वहीं पर बेहतर जीवन के स्वप्न भी पल्लवित हो रहे हैं। कथ्य, भाषा और शिल्प के स्तर पर हो रहे प्रयोग तो सदैव ही कहानियों में मिलते रहे हैं, लेकिन आज की कहानी इसके साथ ही बहुत सारे विमर्शों का बारीक छानबीन करती नज़र आ रही है। जहाँ एक तरफ तेजी से बदलते हुए समाज की चुनौतियाँ हैं, वहीं परम्परागत मूल्यों में से उपयोगी तथ्यों का चयन एवं संरक्षण भी है। यह कहना जितना आसान है, उसे रचनात्मक संरक्षण देना उतना ही कठिन। हमारे समय के कथाकार के लिए जरूरी है कि वह आज के तकनीकी और अर्थ प्रधान समाज के सांस्कृतिक तथ्यों को ठीक-ठीक समझकर विरोध तथा सहमति का उचित तापमान अर्जित करे, अन्यथा एक दस्तक की तरह उसकी रचना का अस्तित्व संकट में ही रहेगा। मुझे खुशी है कि हमारे समय के युवा रचनाकार इस चुनौती से दो-दो हाथ करने में सफल हैं। इसी क्रम में सत्यनारायण पटेल का नाम आता है। सत्यनारायण ने पिछले कुछ वर्षों में ही हिन्दी कहानी में न केवल अपना स्थान सुरक्षित किया है बल्कि हिन्दी कहानी में लोक संस्कृति की संवेदना को मुखर स्वर भी प्रदान किया है। समकालीन महानगरीय संवेदनाओं के विस्फोट की संस्कृति में कारपोरेट कल्चर एक चकाचौंध की तरह उपस्थित है, ऐसे समय में चमकविहीन गंवई संवेदनाओं को रेखांकित करना इतना आसान काम नहीं है। सत्यनारायण यह चुनौती स्वीकार करते हैं। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता हैं, कि वे एक तरह का खतरा मोल लेते हैं। जिसमें परम्परावादी और घिसापिटा होने के आरोप के साथ खारिज होने की प्रबल संभावना है। यहाँ पर अगर सत्यनारायण पूरी मजबूती से जमें नजर आ रहे हैं, तो यह उनकी संवेदनात्मक विवेक और रचनात्मक उर्जा का परिणाम है।
हाल ही में सत्यनारायण का तीसरा कहानी संग्रह काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस आधार प्रकाशन से आया है। इसमें कुल छः कहानियाँ हैं। जो पाखी, उद्भावना, बया तथा शुक्रवार आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं चर्चित हुईं हैं। इन कहानियों से गुजरते समय सबसे पहले भाषा का एकदम नया कलेवर मिलता है, जो हमारे अंदर मालवा और मालवी जीवन संस्कृति का अस्वाद भरने में सफल है। भाषा के इस तमीज़ को सुरक्षित रखने में सत्यनारायण कई बार हिन्दी भाषा के व्याकरण का अतिक्रमण भी करते हैं। जैसे पहली ही कहानी .... पर पाजेब न भीगे को देखा जा सकता है। वे लिखते हैं – तो किस्सा उन दिनों का है जब, अब जैसे देश नहीं हुआ करते थे। यहाँ पर अब का प्रयोग हिन्दी के व्याकरण में स्वीकृत नहीं है। पूरी कहानी बतकही का तरह से चलती है और बहतकही में भाषागत त्रुटियाँ जिस तरह से रहती हैं, वह कहानी में भी मिलती है, जो पाठक को जीवंतता से जोड़ती हैं। इस कहानी में बाँध मुद्दा बनता है और प्रेम के लिए बने बाँध के बरक्स व्यावसायिक बाँध खड़ा होता है। दूसरी कहानी घट्टीवाली माई की पुलिया में भी एक प्रेम ही है, जो एक स्त्री में इतनी ताकत भर देता है कि वह खाल पर पुलिया के निर्माण में सफल हो जाती है। यह निर्माण सरकारी व्यवस्था के काहिल गाल पर तमाचे की तरह है। अगली कहानी एक था चिका एक थी चिकी में चिकी और चिका के माध्यम से आज के जीवन को रेखांकित करते हुए लेखक कहानी में स्त्री विमर्श खड़ा करने में सफल है। जहाँ एक स्त्री एक तरफ तो मौसी या मामी भर है तो दूसरी तरफ मौसा की दासी। कहानी में गाँव से शहर के विस्थापन और जीवन स्तर के ह्रास को स्पर्श करके लेखक ने पाठक के मनः स्थिती को चिन्तनशील बनाने का सफल प्रयोग किया है। अगली कहानी ठग पहले की तीन कहानियों से लम्बी है। इस लम्बी कहानी को लोक कथा के आधार पर बुनते हुए सत्यनारायण ने बहुत खूबसूरती से वर्तमान समय के बाज़ार से जोड़ा है। हमारे समय में बाज़ार सबसे बड़ा ठग है। इस कहानी को पढ़ते हुए हमें लगातार अपनी दादी-नानी की याद आती है, जो बचपन में हमें कहानियाँ सुनाती थीं। उन कहानियों को सुनते हुए हम अनजाने में एक तरह के जीवन विवेक से भर जाते थे। जो जीवन भर हमारे काम आता रहा। यह एक ऐसी पाठशाला थी, जहाँ कक्षा की बोझिलता से बिना गुजरे हम शिक्षित हो जाते थे। ठीक इसी तरह से सत्यनारायण की कहानियाँ अपने पाठक के साथ बरताव करतीं हैं। जहाँ पाठक एक सहज एवं रोचक मनःस्थिती में कहानी का पाठ पूरा करता है। फिर कहानी उपरांत उसके अंदर जो संचरित होता है, वह हमारे समय की एक कठिन गुत्थी को सुलझा देता है। इस कहानी के हास्य विनोद में हमारे सामने बाजार और सत्ता के साँठ-गाँठ प्रकाशित हो कर चमकने लगते हैं। कहानी के अंत में सत्यनारायण लिखते हैं - मन और मोहन ने अपनी भूमिका ब़खूबी निभायी। महाराजा से उनकी साँठ-गाँठ करवायी। फिर देखते ही देखते ज़रूरत की हर चीज़ पर व्यापारियों का कब्ज़ा होने लगा। .......... हजार गुनी तरक्की होने लगी । हो रही है । और जाने कब तक तरक्की का पहिया यूँ ही देश की गर्दन पर से गुजरता रहेगा ॽ ”
अगली कहानी न्याय की शुरूआत में लेखक, पाठकों से बात करता है। इस बात-चीत में व्यंग्य के माध्यम से वह हमारे समय में व्याप्त झूठ को रेखांकित करता हैं। एक छोटी सी बतकही में पाठक को वह तैयार कर देता है कि लिखी जाने वाली काल्पनिक एवं झूठी कथा को पढ़ ले। साथ ही एक गुजारिश भी करता हैं कि - इस झूठ को सुनने-पढ़ने वालों से मामूली-सी गुजारिश है कि पढ़ें और खा-पीकर सो जायें......जैसाकि चलन है। फालतू-बेफालतू कुछ भी न सोचें। जाति, समाज, संप्रदाय, भेदभाव, आदि-आदि जैसा कुछ भी नहीं सोचें। क्योंकि देश, दुनिया और हमारे-तुम्हारे सभी के बारें में ....सभी कुछ सुनियोजित ढँग से सोचनेवाले गिरोह अपनी जिम्मेदारियाँ बख़ूबी निभा रहे हैं। यहाँ स्पष्ट है कि लेखक अपनी कहानी शुरू करने से पहले पाठक की मनःस्थिती को एकदम सहज तरीके से तैयार कर लेता है। जिसके परिणाम में कहानी की सम्प्रेषणियता काफी हद तक बढ़ जाती है। इस कहानी में एक मुसलमान परिवार के चश्मे चिराग पुलिस के हत्थे चढ़ जाता और उसके साथ वही सब होता है, जो आजकल हम रोज़ आखबारों में पढ़ते हैं। वह मासूम आतंकवादी भी घोषित हो जाता है। यह कहानी वस्तुतः झूठी नहीं एकदम सच्ची कहानी है। अगर हम अपने मुस्लिम समाज में देखें तो बहुत सारे घरों की यह सच्ची कहानी है। इस पूरी कहानी से गुज़रने के बाद पाठक हमारे समय की सत्ता और प्रशासन के असली चेहरे से परिचित हो जाता है। यह एक राजनितिक चेतना की संवेदनशील कहानी है। जो झूठ के चकाचौंध में चौंधियाये हमारे समय पर टार्च की तरह रोशनी डालती है। अत्यंत जटिल और शुष्क विषय होने के बावजूद इस कहानी का पूरा बर्ताव इतना सरल है कि इसकी पठनियता में कोई क्षति नहीं होती है। यह लेखक के किस्सागोई की सफलता है। अगली कहानी इस पुस्तक की शीर्षक कहानी है - काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस ”। लेखक ने इस कहानी को उन प्रेमी युगलों को समर्पित किया है, जो अपने समाज के विरूध जा कर प्रेम करते हैं और मारे जाते हैं। यह सबकुछ पिछले दिनों समाचारों में खूब पढ़ा गया हैं। बयालिस पन्नों में फैली इस कहानी के आठ अंक हैं। यह एक लम्बी कहानी है। यह कहानी मुस्लिम समाज, धार्मिक कट्टरता और हमारे समय के मौजूं सवालों का बहुत बारीकी से पड़ताल करती है। इस कहानी में दुनियाभर में चर्चित रही फिल्मों को संदर्भित किया गया है, जो कहानी के अर्थभूमि को और भी विस्तार देते हैं। दरअसल कहानी का सूत्रधार बिजूका एक फिल्म क्लब़ चलाता है। दरअसल सार्थक फिल्मों को माध्यम से उठे विचारों को संवेदना के कैनवास पर दर्ज करके कथाकार ने अपने समय की एक जरूरी कहानी बुनी है। इस कहानी को पढ़ने के बाद पाठक के अंदर बहुत सारे तोड़-फोड़ और चेतना में हलचल मचना निश्चित है। यहाँ पर मुस्लिम समाज एक प्रतीक की तरह लिया गया है। इस तरह के गुण कमोबेश सभी समाज में हैं, पर मुस्लिम समाज के माध्यम से इस समस्या को समझना आसान हो गया है। वरना खाप पंचायतों की खबरें हमसब कभी भी नहीं भूल सकते हैं। समसामयिक मूल्यों की चेतना और परम्परागत रूढ़ियों के ठसकपन पर रोशनी डालती यह कहानी लेखक की एक सफल कहानी है।
इस पूरे संग्रह से गुजरने के बाद हम आस्वस्त हो सकते हैं कि सत्यनारायण हमारे समय के ऐसे कथाकार हैं, जिनका वैचारिक हस्तक्षेप हमारे समय की जरूरत है तो किस्सागोई की तकनीक पाठनीयता को एक नया आयाम देता है। काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस को समय पर मालवी दस्तक की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए। एक बेचैन और विवेकशील लेखक की इस कृति को आधार प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। किताब के कवर डिजाइन से लेकर पूरी साज सज्जा आकर्षक है। इतनी सुन्दर कृति को पाठकों तक पहुँचाने के लिए आधार प्रकाशन के देश निर्मोही जी भी बधाई के पात्र हैं। रोहिणी अग्रवाल ने किताब का ब्लर्ब ईमानदारी से लिखा है। 

प्रदीप मिश्र
दिव्याँश 72ओ सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, पो. सुदामानगर, इन्दौर-452009 (म.प्र)। मो. 09425314126।

No comments:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...