सबका अपना-अपना मठ है
मेरे मठ में मेरा हठ है
मैं, मैं, मैं, मैं मंत्र हमारा
मैं की खातिर तंत्र हमारा
मेरा मैं है मुझको प्यारा
मैं अपने ही मैं से हारा
मेरे मैं की जय है, जय है
मेरा मैं ही मेरा भय है
मेरे मैं को आबाद करो
मुझको मैं से आजाद करो
मैं साधू , मेरा मैं शठ है
फ़िर भी मैं की खातिर हठ है। - अरुण आदित्य
अरूण हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-पत्रकार हैं। इनकी रचनाऐं समय पर जमती हुई गन्दगी को खुरच-खुरचकर साफ करती रहतीं है। इसी तरह की सफाई में लगी यह कविता भी है। मेंने यह कविता अरूण के बलाग से मारा है। मुझे पसन्द आयी सो उठा लिया। आपको कैसी लगी लिखिए। - प्रदीप मिश्र
5 comments:
शानदार.
बहुत बढिया!!
परमजीत जी और घोष्टबस्टर भाई साहब आप मेरे ब्लाग पर आभारी हूँ। यूँ ही फुरसत निकालकर आते रहें,बोलते-बतियाते रहें। धन्यवाद।
bahut accha hai
- pradeep kant
kavita ke jariye baat aur mulaakat..is se behtar aur kya hoga
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