तुम्हे प्यार करते हुए
तुम्हारे आकाश में
जिद्दी परिंदे की तरह उड़ रहा हूँ
जानता हूँ लौट आना है इस दुनिया में
जिसे मैं चाहता हूँ तुम्हे प्यार करते हुए
यहाँ करोड़ों चीजों के कसमसाने की आवाज
उनके टूटने बिखरने का सिलसिला
बनाता है जगह हमारे बीच
अलग नहीं है तुम्हे प्यार करना
और इस दुनिया में चोट खाकर संभलना
अलग नहीं है हमारे सपने, चाहतें और नाराजगियाँ
तुमसे रूठता हूँ
तब यही आपाधापी में
चेहरों को उलझते मुस्कुराते देख
भर उठता हूँ समुन्द्र की तरह
जैसे तुम्हारे प्यार में
ऐसा भी तो होता है कि
खिलाफ लगने लगता है सबकुछ
तब मिलती हो तुम
उस अंतिम दरख्त की तरह
जहाँ हजारों चिंचियाती चिड़ियाओं से
भर उठती है पृथ्वी
तुम्हे प्यार करते हुए
मैं चाहता हूँ यह पृथ्वी ।
- नीलोत्पल, उज्जैन
- मो. 09826732121
पड़ोस
खारिज हो रही है अब यह धारणा
कि पड़ोस अच्छा होना चाहिए
वक्त जरूरत काम होने पर
मिल जाती है मदद
और परेशानियाँ हो जाती हैं हल
जैसा पहले होता था
धनिया मिर्च और
आलू प्याज से लेकर
रूपये पैसों तक का
हो जाता था लेन-देन
कई बार तो छोटी-मोटी बात पर
झगड़ लेते थे पड़ोसी
सभ्यता और प्रबंधन के
इस महान युग में
अब किसी को किसी से
कुछ भी लेना देना नहीं
न धनिया मिर्च न आलू प्याज
न रूपया पैसा
अब किसी के भी घर
अनायास ही खत्म नहीं होती शक्कर
कि कटोरी लेकर
भागना पड़े पड़ोसी के यहाँ
अब हँसी,प्रेम,गुस्सा,जलन
और झगड़ा भी नहीं रहा पड़ोसियों के बीच
चारो और फैल गया है एक निर्वात
जिसमें छाई है शुष्क उदासीनता और कठोरता
पड़ोस अच्छा होने या न होने से
अब कोई फर्क नहीं पड़ता।
- राजेश सक्सेना, उज्जैन
- मो. न. +919425108734
पिता की मृत्यु पर बेटी का रूदन
आप पेड़ थे और छांव नहीं थी मेरे जीवन में
पत्ते की तरह गिरी आपकी देह से पीलापन लिए
देखो झांककर मेरी आत्मा का रंग हो गया है गहरा नीला
कभी पलटकर देखा नहीं आपने
नहीं किया याद
आप मुझसे लड़ते रहे समाज से लड़ने के बजाय
मैं धरती के किनारे पर खड़ी क्या कहती आपसे
धकेल दी गई मैं, ऐसी जगह गिरी
जहाँ मां की कोख जितनी जगह भी नहीं मिली
आप थे इस दुनिया में
तब भी मेरे लिए नहीं थी धरती
और माँ से धरती होने का हक छीन लिया गया है कब से
छटपटा रही थी हवा में
देह की खोह में सन्नाटा रौंद रहा था मुझे
और अपनी मिट्टी किसे कहूं, किसे देश
कोई नहीं आया था मुझे थामने
जीवन जितना जटिल
कितने छिलके निकालेंगे दुःखों के
उसके बाद सुख क्या भरोसा
कौन से छिलके की परत कब आंसुओं में डुबो दे
हमारी सिसकियों से अपने ही कानों के पर्दे फट जायें
हृदय का पारा कब नाभी में उतर आये
मोह दुश्मन है सबका
मौत आपकी नहीं मेरी हुई है
हुई है तमाम स्त्रियों की
यह आपकी बेटी विलाप कर रही है निर्जीव देह पर
चित्कार पहुंच रही है ब्रह्माण्ड में
जहां पहले से मौजूद हैं कई बेटियों का हाहाकार
और कोई सुन नहीं पा रहा है।
-बहादुर पटेल, देवास म.प्र.
-मो. 09827340666
(पिछले दिनों प्रलेस, इन्दोर इकाई ने तीन युवा कवियो का काव्य पाठ आयोजित किया था। उनकी एक-एक कविताएं आपके लिए भी – प्रदीप मिश्र)