तू खुदा है न मेंरा ईश्क फरिश्तों जैसा
दोनो इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
इन्सान को इन्सान से इन्सान के सलीके से मिलाने की बात करता ये शेर दुनिया के सबसे मशहूर और मकबूल शायरों में से एक अहमद फ़राज़ का है।
१९४७ में भारत को आज़ादी तो मिल गई पर विभाजन की बुरी कीमत पर। अब क्या क्या बाँटा जा सकता था। भूगोल और उसमें बसी आबादी को धर्म और मज़हब के नाम पर अलग कर दिया गया किन्तु आसमान! वो तो आज भी सबका है। ज़रा सरहद पर जाकर देखो, यहाँ से वहाँ का और वहाँ से यहाँ का आसमान बराबर दिखता है। पंछी बिना पासपोर्ट और वीज़ा के सरहद पार करते है। धर्म के आधार पर ज़मीन को बाँट कर दो देश तो बट गऐ पर सौभाग्य से विभाजन के ठेकेदार भाषा, साहित्य और कला के विभाजित नहीं कर पाए। साहित्य किसी भी देश का हो, पैरवी शोषितों की ही करेगा, गुण इन्सानियत के ही गाऐगा, नग्में मुहब्बत के ही गुनगुनाएगा।
आज़ादी के नाम पर बटवारे के बाद भले ही फ़राज़ पाकिस्तान में रह गऐ किन्तु भारतीयों के दिल से नही निकले। बकौल अशोक वाजपेयी -- `उनकी कविता जितनी पाकिस्तानी है उतनी ही भारतीय' (फ़राज़ की शायरी - खानाबदोश में अशोक वाजपेयी की भूमिका से)। सही भी है क्यों कि ऊर्दू तो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनो की साँझी विरासत है। फ़राज़ की शायरी इन्सानी जेहन व रिश्तों की बारिक जटिलता को बडे सलीके से बयान करती है। और जब तक दुनिया कायम है ये मसले ख़त्म नहीं हो सकते। इसलिये फ़राज़ की शायरी प्रासंगिक थी, है और हमेशा रहेगी।
फ़राज़ निरे शायर ही नहीं, लोकतान्त्रिक मूल्यों के कट्टर समर्थक रहे। इसीलिये उन्होने २००४ मे मिला `हिलाले-इम्तियाज़ अवॉर्ड' २००६ में पाकिस्तानी सरकार को वापस लौटा दिया।
अपने फ़न के उस्ताद शायर फ़राज़ इन दिनों गम्भीर रूप से बीमार हैं। उनका शिकागो में इलाज चल रहा है। आइये, हम सब उनके जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना करते हुऐ उनकी ये दो गज़लें पढ़ें। ये गज़लें उनकी दस किताबों के एक मुकम्मल संग्रह में छपी अप्रकाशित गज़लों से ली गई हैं।
१
उम्र गुज़री है कहाँ यूँ ही गुज़ारा हुआ था
वरना जो माल गिरह में था वो हारा हुआ था
ये भी तस्लीम है कि हम दुश्मने जाँ थे अपने
ये भी सच है कि उधर का भी इशारा हुआ था
हमने उस हुस्न के दरिया का तमाशा देखा
वो जो प्यासा भी न था प्यास का मारा हुआ था
पहने फिरती है जिसे नाज़ से लैला-ऐ-बहार१
पैरहन२ वो मेरी जानाँ३ का उतारा हुआ था
हम कि दुश्मन का भी अहसास नहीं भूलते
तू अदावत४ में हमें और भी प्यारा हुआ था
हम जो खुश खुश नज़र आते हैं बहुत गम़ज़दा हैं
तू न आया था तो ये खोल उतारा हुआ था
बाज़ औकात तो महसूस ये होता है `फ़राज़'
जैसे जो वक्त गुज़रता है गुज़ारा हुआ था
१. बहार का मौसम या बहार की जान २. लिबास ३. महबूबा ४. शत्रुता
२
गुफतगू अच्छी लगी ज़ौके नज़र अच्छा लगा
मुद्दतों के बाद कोई हमसफ़र अच्छा लगा
दिल का दुख जाना तो दिल का मस्अला है पर हमें
उसका हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा
इस तरह की बे-सरो-सामानियों के बावजूद
आज वो आया तो मुझको अपना घर अच्छा लगा
क्या बुरा था गऱ पड़ा रहता तेरी दहलीज़ पर
तू ही बतला क्या तुझे वो दर--बदर अच्छा लगा
कौन मक्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे
तेरे कातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा
हम भी क़ायल हैं वफ़ा-ऐ-उस्तवारी१ के मगर
कोई पूछे कौन किसको उम्र भर अच्छा लगा
`मीर' की मानिन्द गरचे ज़ीस्त करता था `फ़राज़'
हमको वो आशुफ़्ता-खू२ शायर मगर अच्छा लगा
१. स्थायी प्रेम २. पागल, बद-दिमाग
-प्रदीप कान्त, फोन. 0731-2320041
(इन दिनों हमारे अजीम शायर अहमदफ़राज़ बीमार चल रहे हैं। साथी प्रदीप कांत भी शायरी करते हैं। पेश है उनकी कलम से चन्द शब्द -प्रदीप मिश्र
पुनश्च- इस आलेख को अपलोड कर रहा था इसी बीच हिन्दी के वरिष्ट कवि चन्द्रकान्त देवताले का फोन आ गया। बात चीत में उनको जब पता चला कि अहमदफ़राज़ पर आलेख दे रहा हूँ, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और अपनी स्मृति का एक कतरा थमा गए -
लगभग दो साल पहल जब मैं साहित्य अकादेमी के एक कार्यक्रम में कविता पढ़ने गया था तो वहाँ पर अहमदफ़राज़ भी बतौर कवि शामिल थे। उनके साथ कविता पाठ एक उत्तेजना भरा अनुभव था । जब वे कविता पाठ कर रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि सचमुच एक बड़ा कवि भाषा,देश और सरहद से परे होता है। मैं उनके यथाशीघ्र स्वस्थ होने की कामना करता हूँ।- चन्द्रकांत देवताले)
2 comments:
हम जो खुश खुश नज़र आते हैं बहुत गम़ज़दा हैं
तू न आया था तो ये खोल उतारा हुआ था
बाज़ औकात तो महसूस ये होता है `फ़राज़'
जैसे जो वक्त गुज़रता है गुज़ारा हुआ था
क्या बात है ..कमाल के लगे ये अशआर
प्रदीप जी को इस प्रस्तुति के लिए आभार। फराज़ साहब जल्द ही सेहतमंद हों इस उम्मीद के साथ
अहमद फराज पर सार्थक टिपण्णी के लिए प्रदीप कान्त को बधाई।
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