अभी कल ही संसद की भयानक और शर्मसार करनेवाली कार्यवाही से रूबरू हुआ और आज समय के उम्मीद पर कुछ कहना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि हम जिस वर्तमान में जी रहे हैं, उसका भविष्य मनुष्यों का भविष्य नहीं है। कुछ अजीब किस्म की सभ्यता की तरफ बढ़ रहे हैं, जहाँ सामने आता हुआ, मनुष्य रूपयों की शक्ल में दिखाई देगा। जितने का नोट उतनी इज्जत। तकनीकी विकास इतने चरम पर पङुँच जाएगा कि बस्तर के बीहड़ में बैठा हुआ आदिवासी किसान भी इन्टरनेट से खेती की आधुनिकतम तकनीकें डाउनलोड करेगा और अपनी पैदावार दोगुना-तीनगुना कर लेगा। फिर अमेरिका या फ्रांस के किसी मण्डी में बेचकर डालर कमाएगा। मजदूर एयर कण्डीशन्ड वातावरण में काम करते हुए भूल जाएगा कि पसीना क्या होता है। चारो तरफ रूपये ही रुपये बिखरे पड़े होंगे। भविष्य में किसी को लाटरी खुलने की खुशी में दिल का दौरा नहीं पड़ेगा। सामाजिक और नैतिक मूल्यों को मापने का पैमाना भी अत्यन्त आधुनिक तकनिक से निर्मित होगा उसके लिए भी परमाणु करार जैसा कुछ विकास से लबालब करार किसी विकसित देश से हो जाएगा। यहाँ के कस्बे, गांव टोले भी न्युयार्क और लंदन जैसे दिखाई दैंगे। इसलिए चिन्तित होने की कोई जरूरत नहीं है। हम अपनी आंख पर काली पट्टी बाँध कर किसी एयरकण्डीशन्ड कमरे में बैठा दिए गए हैं और हमें बताया जा रहा है कि यह पुरवाई बह रही है। हमें वहां की ठण्डक में सचमुच पुरवाई महसूस हो रही है। अब इससे ज्यादा विकास क्या चहिए।
किसी महानगर में बैठे कुल जमा दस-बारह प्रतिशत अतिआधुनिक समाज के विकास को देखते हुए अगर यह कल्पना किया जा रहा है कि हमारा भविष्य बहुत अच्छा है और हम दौड़ में सबसे आगे हैं, तो यह आत्महत्या का जुगाड़ है। वास्तव में ताकत, अतिचारिता और पैसे के आधार पर निर्धारित हो रहे आज के सामाजिक मूल्य निश्चित रूप से हमें अमरीका और फ्रांस की जीवनशैली तक पहुँचा दैंगे। खरीदने की क्षमता हमारे पास आ जाएगी, लेकिन तब तक हमसे हमारा देश, हमारी भाषा और संस्कृति कितनी पीछे छूट चुकी होगी, इसकी कल्पना दिल दहला देती है। मेरा कहना है कि पूरे विश्व को आज बैठकर सोचना चहिए कि जिस विकास और आधुनिकता की बात हो रही है, जिस उन्नत तकनीक की बात हो रही है और जिस तरह की जीवनशैली का स्वप्न आंखों में बोया जा रहा है। क्या यह सबकुछ सही दिशा में है। क्या विज्ञान का विकास उसी दिशा में हो रहा है, जिस दिशा की कामना के साथ हमने इसे हाथों-हाथ लिया। अगर बहुत जल्दी मूल्यांकन की मानवीयप्रणाली नहीं विकसित हुई तो हमें अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि अपने आज को देखते हुई सिर्फ एक उम्मीद है, कि आत्महत्या को नैसर्गिक मौत की तरह स्वीकार कर लिया जाएगा।
आज के बहुमान्य मूल्यों के आधार पर देखें तो कोई उल्लेखनीय और सुखद उम्मीद नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सबकुछ गड़बड़ ही है, हाशिए पर बैठी कुछ चीजें जो भले ही हाँफ रहीं हैं, लेकिन इस बुरे को अच्छे में बदलने की कुव्वत रखतीं हैं। जब तक अपने खेत में खटते हुए किसान दिखाई दे रहे हैं, माथे से पसीना पोंछते हुए मजदूर दिखाई दे रहे हैं, राजनीति में कुछ पढ़े-लिखे युवा दिखाई दे रहे हैं, समाज में बेचैन और चिन्तित बुद्धिजीवी दिखाई दे रहे हैं और विरोध बचा हुआ है, तब तक बहुत अच्छे भविष्य की कल्पना की जा सकती है। इस संदर्भ में मेरी एक कविता शायद समीचीन हो –
उम्मीद
आज फिर टरका दिया सेठ ने
पिछले दो महीने से करा रहा है बेगार
फिर भी उसे उम्मीद है पगार की
हर तारीख़ पर
कुछ न कुछ ऐसा होता है कि
अगली तारीख़ पड़ जाती है
जज-वकील और प्रतिवादी
सबके सब मिले हुए हैं
फिर भी उसे उम्मीद है
एक दिन जीत जाएगा
अन्याय के ख़िलाफ़ मुकदमा
तीन साल से सूखा पड़ रहा है
फिर भी किसानों को उम्मीद है
बरसात होगी
लहलहाऐंगे खेत
आदमियों से ज़्यादा लाठियाँ हैं
विकास के मुद्दों से ज़्यादा घोटाले
जीवन से ज़्यादा मृत्यु के उदघोष
सेवा से ज़्यादा स्वार्थ
फिर भी वोट डाल रहा है वह
उसे उम्मीद है, आऐंगे अच्छे दिन भी
अख़बार के पन्नों पर नज़र पड़ते ही
बढ़ जाता है चेहरे का पीलापन
फिर भी हर सुबह
अख़बार के पन्नों को पलटते हुए
उम्मीद होती है उन ख़बरों की
जिनके इंतज़ार में कट गए जीवन के साठ बरस
उम्मीद की इस परंपरा को शुभकामनाऐं
उनको सबसे ज़्यादा
जो उम्मीद की इस बुझती हुई लौ को
अपने हथेलियों की आड़ में सहेजे हुए हैं।
प्रदीप मिश्र, दिव्यांश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड इन्दौर-452009 (म.प्र.)
मो. 9425314126
(हमारे मित्र श्री अवधेश जी को किसी काम के लिए हमारे समय की उम्मीद पर कुछ विचार चहिए था। लिखा उनके लिए था, लेकिन आप सब भी इस विषय पर कुछ मगजमारी करें। इसलिए यहाँ पर भी- प्रदीप मिश्र)
4 comments:
Bhai,
Mujhe to lagata hai ki ham aur hamare jaise tamam buddhijivi kahlane vale atmhatya ki aur hi agrasar ho rahe hain. Aur man lo ki ye samanya mout hai kyonki loktantra ki is buri halat par koi dard kisee kao nahin hota. Anytha kahin se to koi avaz aati.
Ek sadee pahale galib ne jo kaha tha vo aaj bhi prasangik hai
Koi ummeed bar nahin aati
Koi soorat nazar nahin aati
Age aati thi hale dil pe hansi
Ab kisee baat par nahin aati
Khair, apane vicharon ko vyakt karane ke liye dhanyawad ki ve kuch logon tak to pahunchen.
-Pradeep Kant
सटीक..वाह!
प्रदीप कांत जी, इतनी निराशा ठीक नहीं है। आत्महत्या तो कायरों का हथियार है, अगर आप-हम ही इस लडाई से कन्नी काट लेंगे तो सचाई की आवाज कौन बुलंद करेंगा। संसद में जो कुछ भी हुवा वह राजनिती के पतन का न्यूनतम स्तर था। लेकिन इससे भी बदतर है मनमोहन-मौटेंक-चिदंबरम की तिकडी का छुट्टा सांड हो जाना, अब इस सरकार पर लगाम कसने वाला कोई नहीं बचा।
लेकिन ये न भूलिये कि घनी रात सबेरा होने की निशानी होती है। जनता जर्नादन सब समझ-देख रही है, जयचंद-मीरजाफरों को इस गद्दारी की कीमत चुकाना ही पडेगी।
ऐसे धारदार
लेखन के लिए
भाई प्रदीप मिश्र
बधाई के पात्र हैं...
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