Tuesday, 8 July 2008

मानव सभ्यता का विकास

मनुष्य ने युगों-युगों तक अपार यातनाएँ सहकर आज की सभ्यता को जन्म दिया है। यातना अधिकांश जनता के भाग्य में पड़ी, उस यातना से सुख उठाना थोड़े-से सम्पत्तिशाली लोगों के हाथ में रहा। यह युग मानव-समाज के विकास में एक विराट परिवर्तन का युग है। शोषण और ध्वंस की शक्तियाँ अपना विनाश सामने देख रही हैं। वे संसार की बहुसंख्यक जनता का नाश करके उस घड़ी को टालना चाहती हैं। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील के सिद्धांत उन्हें प्रिय नहीं लगते, व्यवहार में प्रतिदिन वे इन सिद्धांतों को तोड़ती हैं। साथ ही स्थायी शांति और शोषणहीन व्यवस्था कायम करने वाली शक्तियाँ अदम्य वेग से आगे बढ़ रही हैं। विजय इन्हीं प्रगतिशील शक्तियों की होगी। वह देश जो दो सौ वर्ष पहले संसार के किसी भी देश से पिछड़ा हुआ न था, शीघ्र ही अपना ऐतिहासिक स्थान प्राप्त करेगा और मानव-सभ्यता के विकास में अपने इतिहास के अनुरूप ही योग देगा। यह विश्वास सामाजिक विकास के वैज्ञानिक अध्ययन से पुष्ट होता है। (पृष्ठ ११)
एक अर्थ में मनुष्य श्रम द्वारा ही पशु से मनुष्य बना है। पशु-अवस्था से निकले हुए मनुष्य को लाखों वर्ष हो चुके और उस अवस्था का ठीक काल-निर्णय करना सम्भव नहीं है। लेकिन पशु-जीवन से निकलते-निकलते उसे लाखों वर्ष लगे होंगे, इसमें संदेह नहीं। उसकी सभ्यता का इतिहास उसके पशुजीवन के इतिहास के समय को देखते हुए बहुत छोटा है। (पृष्ठ १५)
मानव चेतना बाह्य जगत की वस्तुगत सत्ता को ठीक-ठीक नहीं समझती, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि वह जादू-टोने से, जंतर-मंतर से या आगे चलकर योग-बल से, उसे इच्छानुसार बदल लेगा। (पृष्ठ २२)
मातृसत्ताक गोत्रों में किसी व्यक्ति की अपनी वस्तुएँ उसके न रहने पर उसके मामा, भांजे और भाई पाते हैं। उसकी अपनी संतान उन्हें नहीं पाती। नारी की वारिस उसकी अपनी संतान, उसकी बहने और उसकी बहनों की सन्तान होती है। इस तरह गोत्र की उत्पत्ति गोत्र में ही रहती है। मातृसत्ताक विरासत का यह ढंग बहुत दिनों तक प्राचीन मिस्त्र में चलता रहा जहाँ राज परिवार में बहन-भाई इसलिए शादी करते थे कि अपने गोत्र की सम्पत्ति बाहर न जाय। (पृष्ठ २३)

इस संस्कृति के विनाश का श्रेय यूरोप की ``सभ्यता`` को है। अमरीकी आदिवासियों के विनाश का इतिहास अच्छी तरह प्रकट करता है कि यूरोप के लुटेरे वहाँ किस तरह की सभ्यता फैलाने गये थे। इसमें सन्देह नहीं कि यूरोप निवासी वहाँ न पहुँचते तो पेरू और मेक्सिको के लोग सभ्यता की अगल मंजिलों की तरफ बढ़ते। फॉस्टर ने ठीक लिखा है कि इनमें शासक वर्ग और राज्यसत्ता के निर्माण के लक्षण मिलते हैं। अज्तेक और इंका लोगों ने दूसरे कबीलों को जीत कर अपना राज्य-विस्तार किया था और उन कबीलों से दास, सैनिक, नरमेध के लिए बलि प्राप्त करते थे। फॉस्टर ने लिखा है, ``जब स्पेन के लोग अमरीका पहुँचें, तब दिखता है कि इंका और अज्तेक लोग वैसे ही समाज का विकास करने में लगे हुए थे, जैसे प्राचीन ग्रीस और रोम के लोग।`` इससे सिद्ध होता है कि सामाजिक विकास के नियम अमरीकी आदिवासियों पर वैसे ही लागू होते हैं जैसे यूरोप के ``सभ्य आर्यों`` पर। (पृष्ठ ३२)
ईसा से लगभग पाँच हजार साल पहले मिस्त्र की प्राचीन संस्कृति का विकास हुआ। नील नदी की बाढ़ के कारण यहाँ की उर्वर धरती में जिस संस्कृति का विकास हुआ, उसका गहरा असर भुमध्यसागर के प्रदेशों पर पड़ा। यह प्राचीन संस्कृति बर्बर और अर्ध-बर्बर अवस्था की है। लोहे के औजार बनना अभी शुरू नहीं हुए। तांबा और कांसा मुख्य धातुएँ हैं। खेती (अर्थात् बागववनी) पहले हाथ से होती थी, फिर कुदाल को जुए से बाँधकर कर्षण द्वारा ``कृषि`` होने लगी। बागों के बदले क्षेत्रों को जोत-बो कर ``खेती`` होने लगी। जुए में बँधा हुआ कुदाल हल बना और बैल उसे खींचने लगे। इस तरह मनुष्य ने पशुओं के योग से अपने श्रम और उत्पादन की शक्ति बढ़ाई। (पृष्ठ ३२-३३)
........शेष अगली बार
(हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा जी को इसलिए हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि वे पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने हिन्दी समीक्षा को व्यापक अर्थों में सामाजिक मूल्यों से जोड़ा है। न केवल जोड़ा है बल्कि उस पगडण्डी का निर्माण भी किया है, जिसपर भविष्य की समीक्षा को चलना होगा। अन्यथा हिन्दी समीक्षा अपनी दयनीय स्थिती से कभी भी उबर नहीं पाएगी। इस संदर्भ में इन्दौर के राकेश शर्मा ने रामविलास जी पर बहुत गम्भीरता से अध्ययन किया है। वे उनकी पुस्तकों से वे अंश जो वर्तमान समय की जिरह में प्रासंगिक हैं, हमारे लिए निकाल कर दे रहे हैं। हम एक सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसकी पहली कड़ी आपके सामने है, जिसमें रामविलास शर्मा जी की पुस्तक मानव सभ्यता का विकास से निकाले गए अंश हैं। पढ़ें और विचारों का घमासान करें। - प्रदीप मिश्र)

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

स्तुत्य प्रयास। रामविलास जी का साहित्य लोगों तक पहुँचना चाहिए। जनता तक पहुँचना ही उस की सार्थकता है। इसी से परिवर्तन की प्रक्रिया को तीव्र किया जा सकता है।

Arun Aditya said...

हिन्दी में सभ्यता-समीक्षा के क्षेत्र में रामाविलास शर्मा का योगदान अमूल्य है।

प्रदीप मिश्र said...

दिनेश राय जी और अरूण आभारी हूँ. यदि कोई सुझाव हो तो जरूर दें।

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